विचार

आकार पटेल का लेख: आखिर हमारे राजनीतिक विमर्श से क्यों गायब रहते हैं आर्थिक संकट, रोजगार और नौकरियों के मुद्दे!

बजट आया और चला गया। लेकिन देश में छाए आर्थिक संकट, नौकरियों और रोजगार की कमी को लेकर कोई राजनीतिक विमर्श नहीं हो पा रहा है। विपक्ष इन मुद्दों पर बहस का हिस्सा बनाना चाहता है, लेकिन सत्ताधारी दल के साथ ही शायद वोटर को भी इससे फर्क नहीं पड़ता।

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एक और बजट आया और चला भी गया। दो-एक दिन इस पर आई प्रतिक्रियाओं और लोगों के बयानों को देखा-सुना-पढ़ा कि आखिर लोग अर्थव्यवस्था के बारे में क्या कहते हैं। जो भी बयान आए, वह दो बातों तक सीमित रहे। पहला तो यह कि सरकार कितना टैक्स लगाएगी, कितना खर्च करेगी और इसका घाटा कितना होगा। दूसरी बात यह कि देश के लोगों को कितने तोहफे और सब्सिडी दी गई। जाहिर है कि बजट यही सब होता है और यही उम्मीद भी होती है। लेकिन जिज्ञासा की बात यह है कि देश के राजनीतिक विमर्थ में अर्थव्यवस्था को एक प्रासंगिक विषय माना ही नहीं जा रहा है।

हम एक कदम और आगे बढ़कर कह सकते हैं कि आर्थिक मोर्चे पर सरकार की नाकामी और विकास न कर पाने में उसकी असमर्थता से सत्तारूढ़ पार्टी को कोई नुकसान नहीं होता है। यह कोई नई बात नहीं है क्योंकि हम काफी समय तक बल्कि कई दशकों तक काफी कम आर्थिक वृद्धि देख चुके हैं, जिसे नेहरू और इंदिरा गांधी के दौर में 'विकास की हिंदू दर' कहा जाता था, यानी करीब 3 फीसदी। इसके बावजूद तब की सत्ताधारी पार्टियां लोकप्रिय बनी और सत्ता में रहीं।

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ऐसा ही कुछ नौकरियों को लेकर भी है। भारत सरकार के अपने आंकड़ों के अनुसार, दक्षिण एशिया में सबसे कम श्रम भागीदारी दर भारत में है और जोकि दुनिया की निम्नतम भागीदारी में से एक है। श्रम भागीदारी वह आंकड़ा है जो 15 वर्ष या अधिक उम्र के ऐसे लोगों के बारे में है जो या तो काम कर रहे हैं या काम की तलाश में हैं। अमेरिका में यह दर 60 प्रतिशत है, थाईलैंड में लगभग 70 प्रतिशत और चीन और वियतनाम में लगभग 75 प्रतिशत है। वहीं भारत में यह 40 फीसदी है, जो पाकिस्तान और यहां तक कि अफगानिस्तान से भी कम है। माना जा रहा है कि लोगों ने नौकरियों की तलाश करना बंद कर दिया है क्योंकि उन्हें काम मिलना लगभग असंभव हो गया है। मनरेगा में रोजगार की संख्या आज 2004 के मुकाबले 4 गुना है, फिर भी इस योजना के तहत काम की मांग को पूरा नहीं किया जा पा रहा है क्योंकि सरकार के पास पैसा नहीं है।

हालांकि श्रम बाजार में कम लोग आ रहे हैं, फिर भी बेरोजगारों की संख्या (जो काम की तलाश में हैं लेकिन काम नहीं मिल रहा है) सरकार के अनुसार 2018 में 6 प्रतिशत के रिकॉर्ड स्तर तक पहुंच गई थी और तब से इस दर से नीचे नहीं आई है।

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नौकरियां कम होने की समस्या अर्थव्यवस्था में नरमी के साथ-साथ है। इसमें भी हमें फिर से सरकारी आंकड़े ही आंकड़े देखने की जरूरत है। जनवरी 2018 से भारत की जीडीपी में गिरावट शुरू हुई और महामारी से पहले 2 साल और 3 महीने तक इसमें लगातार गिरावट आती रही। और, फिर महामारी ने मंदी पैदा कर दी। इस साल अगर हम उच्च विकास दर हासिल भी कर लेते हैं तो भी हम वहीं पहुंचेगे जहां हम दो साल पहले थे।

इस सबको एक साथ लिया जाए, तो हम देख सकते हैं कि भारत की अर्थव्यवस्था और अपने लोगों को काम देने की उसकी क्षमता लंबे समय से संकट में है। लेकिन यह हमारी राजनीतिक बहस का हिस्सा नहीं है और सत्ताधारी दल पर इस मोर्चे पर अपने रिकॉर्ड का बचाव करने का कोई दबाव भी नहीं है। ऐसा भी लगता है कि विपक्ष के लिए आर्थिक नाकामी और बड़े पैमाने पर बेरोजगारी के इन दो मुद्दों के इर्द-गिर्द लोगों को लामबंद करना भी आसान नहीं है। जो कुछ भी लामबंदी इस मुद्दे पर हुई है, वह स्वतःस्फूर्त थी, जैसे कुछ साल पहले नौकरियों के लिए पाटीदार आंदोलन और हाल के दिनों में उत्तर प्रदेश और बिहार में रेलवे भर्ती को लेकर युवाओं का विरोध प्रदर्शन।

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विपक्ष राजनीतिक बहस को हिंदू-मुसलमान और इसी तरह के मुद्दों के बजाए अर्थव्यवस्था और नौकरियों की ओर ले जाना चाहता है लेकिन ऐसा हो नहीं पा रहा है। सवाल यह है कि आखिर क्यों? एक उत्तर हो सकता है, जैसा कि समाचार एंकर रवीश कुमार ने सुझाव दिया है कि मीडिया इन मुद्दों को कवर नहीं करने का विकल्प चुनता है। उन्होंने कहा है कि अगर मीडिया लगातार दो सप्ताह नौकरियों पर ध्यान केंद्रित करेगा, तो सरकार को सड़क पर उतरे लोगों के सामने झुकना पड़ेगा।

शायद ऐसा ही है। किन आज के दौर में जब सोशल मीडिया की मौजूदगी हर जगह है, मुख्यधारा के मीडिया की आज किसी को उतनी जरूरत भी नहीं है जितनी आज से 15 साल पहले थी। इसलिए यह कहना भी सही नहीं लगता कि मीडिया में इन मुद्दों को प्रमुखता न मिलने के चलते सरकार इन्हें अनदेखा कर रही है या दबाए रख रही है।

ऐसा लगता है कि सवला का जवाब किसी गहरी बात में छिपा है। ऐसा भी लगता है कि अर्थव्यवस्था की खराब सेहत और सरकार के कुप्रबंधन उसकी काबिलियत जैसे व्यापक मुद्दे एक ऐसा माहौल बना सकते हैं जिससे नौकरियां पैदा हों, लेकिन वोटर के तौर पर शायद हमें इसकी ज्यादा चिंता है नहीं। और अगर है भी तो प्राथमिकता में यह अधिक मंदिर और हिजाब पहनने वाली युवतियों को कॉलेज में प्रवेश करने से रोकने (जैसा कि इस सप्ताह कर्नाटक में देखा जा रहा है), अधिक मूर्तियां आदि की तुलना में यह बहुत नीचे है।

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हम में से कुछ लोग जो इस आर्थिक संकट से सीधे तौर पर प्रभावित हैं, जैसाकि गुजरात में हार्दिक पटेल की अगुवाई में पाटीदार आंदोलन हुआ था या फिर रेलवे भर्ती को लेकर जो कुछ हुआ है, तभी जमीनी तौर पर कुछ होता नजर आता है। लेकिन ज्यादातर समय हमारी लोकप्रिय राजनीति इन मुद्दों को अनदेखा ही करती रही है। जबकि पश्चिम के लोकतांत्रिक देशों में यही महत्वपूर्ण मुद्दे हैं। ऐसे मुद्दे और विषय जो नेताओं और पार्टियों को बनाने या खत्म करने की क्षमता रखते हैं और जो हमारी रोजमर्रा की चिंता का हिस्सा है, भारत में महत्वपूर्ण हैं ही नहीं।

हम इस बात पर चिंतन कर सकते हैं कि एक मतदाता के रूप में हमारे और एक राष्ट्र के रूप में हमारे बारे में यह सब क्या मायने रखता है, और अगर ये सब जारी रहता है, तो हम अपने लोकतंत्र के अमृतकाल में प्रवेश करते ही खुद को कहां पाएंगे।

(लेखक एमनेस्टी इंटरनेशनल इंडिया के अध्यक्ष हैं)

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