2024 के लोकसभा चुनावों में मामूली बहुमत हासिल करने के लगभग एक साल बाद भी भारतीय जनता पार्टी अपना नया राष्ट्रीय अध्यक्ष नहीं चुन पाई है। वैसे, था तो यह महज एक नियमित सांगठनिक बदलाव, लेकिन ऐसे बेमियादी, अव्यवस्थित गतिरोध में बदल चुका है, जिसके निहितार्थ पार्टी के आंतरिक पद-क्रम तक सीमित नहीं हैं।
इस बीच ‘स्वास्थ्य कारणों’ के चिर-परिचित खोल में लिपटकर आए उप-राष्ट्रपति जगदीप धनखड़ के अचानक इस्तीफे ने भी इसमें इजाफा कर दिया है। इससे भी आगे जाकर यह साबित कर दिया है कि संघ परिवार की सत्ता संरचना के भीतर कुछ भी सामान्य नहीं है। एक उच्च संवैधानिक पद पर बैठे धनखड़ ने जिस तरह संस्थागत आजादी के संकेत देने शुरू कर दिए थे, एक ऐसे नेतृत्व के लिए एक असहज व्यक्ति बन गए जो संवैधानिक उच्च पदों पर आसीन लोगों से भी ‘आज्ञाकारी आचार-व्यवहार’ की अपेक्षा रखता है।
उनकी ऐसी विदाई उन चिंताओं का प्रकटीकरण भी है, जो यह भी बताती हैं कि बीते तमाम दशकों में पहली बार भाजपा खुद को नया पार्टी अध्यक्ष देने में असमर्थ या अनिच्छुक क्यों पा रही है। शीर्ष पर यह शून्य प्रशासनिक नहीं है। यह शून्य राजनीतिक और मनोवैज्ञानिक है।
Published: undefined
संरचनात्मक गतिरोध
बीजेपी के संविधान के अनुसार, पार्टी अध्यक्ष का कार्यकाल तीन साल का होता है और इसे एक बार बढ़ाया जा सकता है। अमित शाह (2014-2020) के बाद यह पद जे पी नड्डा (2020 से अब तक) ने संभाला। शाह ने जहां पांच साल का कार्यकाल पूरा किया, वहीं नड्डा का कार्यकाल पहले ही अपनी मानक अवधि से आगे बढ़ाया जा चुका है। नड्डा के कार्यकाल विस्तार को 2019 और 2024 के लोकसभा चुनावों और विभिन्न राज्यों में लंबित संगठनात्मक चुनावों के दौरान निरंतरता बनाए रखने के मद्देनजर जरूरी बताया जाता रहा है। निर्णय लेने वाला शीर्ष निकाय माना जाने वाला बीजेपी संसदीय बोर्ड महज एक रबर स्टैंप बनकर रह गया है। पिछले 11 वर्षों के दौरान इसकी बैठकें इतनी कम और असामान्य रही हैं कि यह व्यावहारिक रूप से अपना अर्थ खो चुका है।
पार्टी के लिए सबसे तात्कालिक बाधा ‘तकनीकी’ भी है और बताने लायक भी। बीजेपी के संविधान के अनुसार, पार्टी को अपना राष्ट्रीय अध्यक्ष चुनने से पहले उसकी 36 राज्य और केन्द्र शासित प्रदेश इकाइयों में से कम-से-कम आधे को संगठनात्मक चुनाव पूरे कर लेने चाहिए। जुलाई 2025 तक उत्तर प्रदेश, गुजरात, कर्नाटक, झारखंड तथा तेलंगाना जैसे प्रमुख राज्यों में यह प्रक्रिया अभी पूरी नहीं हुई है। कर्नाटक और तेलंगाना जैसे कुछ राज्यों में तो आंतरिक गुटबाजी जिला-स्तरीय नियुक्तियों पर भी आम सहमति बनाने में बाधक बन गई, जो आगे की प्रक्रिया में विलंब का कारण है।
Published: undefined
इससे राज्य इकाइयों में गहरे तक बने बिखराव का पता चलता है, जो कभी पार्टी की सबसे मजबूत जमीनी इकाई हुआ करती थीं। 2024 के चुनावों में इस ढांचे की दरारें दक्षिणी और पूर्वी भारत में खासतौर से उभरकर दिखाई दीं। राज्यों के स्तर पर सांगठनिक पुनर्गठन में ऐसा विलंब बीजेपी के कभी बेदाग कमान और नियंत्रण ढांचे पर मंडरा रही अनिश्चितता का प्रतीक है। जिस मॉडल ने उसे कभी चुनावी प्रभुत्व दिलाया था, वही आज जब बातचीत, आम सहमति और समन्वय की सबसे ज्यादा जरूरत है, कमजोर साबित हो रहा है।
उत्तर प्रदेश और गुजरात जैसे पारंपरिक रूप से मजबूत राज्यों में मौजूदा सत्ता केन्द्रों और उभरती स्थानीय नेताओं की महत्वाकांक्षाओं के बीच जारी जमीनी जंग भी नियुक्ति प्रक्रिया शिथिल करने का कारण बनी है।
वैचारिक रस्साकशी
प्रक्रियागत बाधाओं से परे एक और भी सूक्ष्म लेकिन महत्वपूर्ण कारक छिपा है: बीजेपी और उसके वैचारिक जनक, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के बीच अनसुलझे सत्ता समीकरण। बीजेपी नेतृत्व- खासकर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और गृहमंत्री अमित शाह- कथित तौर पर मजबूत चुनावी साख वाले किसी राजनीतिक दिग्गज को आगे बढ़ाने के पक्ष में हैं। लेकिन दूसरी ओर, ऐसा कहा जाता है कि आरएसएस की प्राथमिकता संगठनात्मक कार्यों में दक्ष और वैचारिक प्रतिबद्धता वाले किसी नेता पर ही है।
यही मतभेद गतिरोध का असल कारण बताया जा रहा है। शीर्ष पदाधिकारियों के बीच अनौपचारिक विमर्श के कई दौर भी आम सहमति नहीं बना सके। सही है कि भाजपा अब वाजपेयी-आडवाणी युग की तरह आरएसएस के इशारों पर नहीं नाचती, लेकिन वह संघ के नैतिक वीटो से मुक्त भी नहीं है।
Published: undefined
आरएसएस अध्यक्ष को महज एक प्रशासनिक मुखिया के रूप में नहीं, बल्कि पार्टी के मूल दृष्टिकोण के रक्षक के रूप में देखता है। संघ को डर है कि मोदी-शाह के प्रति वफादारी या चुनावी जीत की संभावना वाले आधार मात्र पर किसी नेता की नियुक्ति से उसका दीर्घकालिक असर वैसा नहीं रह जाएगा। भाजपा का शीर्ष नेतृत्व अध्यक्ष पद को अपनी राजनीतिक रणनीति जमीन पर उतारने के लिए महत्वपूर्ण मानता है, क्योंकि उसकी नजर राज्यों के चुनावों के एक नए क्रम और 2029 के आम चुनाव की तैयारी पर है।
सूची लंबी है और खत्म ही नहीं होती
कई नामों पर चर्चा चल रही है। शिवराज सिंह चौहान गहरे जनाधार के साथ संगठनात्मक पकड़ वाले नेता तो हैं, लेकिन ‘अपने मन’ की करने वाले यानी बहुत स्वतंत्र विचारों वाली छवि भी साथ है। निर्मला सीतारमण का कद है और क्षमता भी, तमिलनाडु की महिला होने के नाते प्रतीकात्मक तौर पर सभी मानदंडों पर खरी भी उतरती हैं। लेकिन क्या वह पार्टी कार्यकर्ताओं का भी पर्याप्त भरोसा जीत सकती हैं? डी. पुरंदेश्वरी और वनथी श्रीनिवासन क्षेत्रीय संतुलन और लैंगिक प्रतिनिधित्व के आधार पर ठीक हो सकते हैं, लेकिन अखिल भारतीय स्तर पर प्रभावी नहीं है। मनोहर लाल खट्टर और भूपेंद्र यादव भरोसेमंद प्रशासक हो सकते हैं, लेकिन उनकी पहचान जननेता की अपेक्षा प्रबंधक की ज्यादा रही है। धर्मेंद्र प्रधान में आकर्षण है और संवाद कौशल भी, लेकिन ओडिशा में उनका सीमित संगठनात्मक आधार आड़े आता है।
इन सारे नामों में जो एक चीज आम है, वह उनका पद के उपयुक्त होना नहीं है, बल्कि पार्टी, संघ और नेतृत्व के आंतरिक दायरे के प्रमुख हितधारकों के बीच खंडित आम सहमति बनाने में उनकी असमर्थता है।
Published: undefined
रणनीतिक गतिरोध और प्रतीकात्मक समय
एक सोचा-समझा व्यवधान भी है। भाजपा के कुछ अंदरूनी सूत्रों का तर्क है कि नेतृत्व घोषणा करने के लिए ज्योतिषीय या सांस्कृतिक रूप से अनुकूल समय, मसलन ‘हिन्दू नव वर्ष’ या मानसून सत्र के बाद का इंतजार करना चाहता है। अन्य लोगों की नजर में ऐसे विलंब से मोदी-शाह को पार्टी तंत्र पर अपनी पकड़ मजबूत बनाए रखने में मदद मिलेगी, जबकि 2024 के बाद से व्यापक सुधार का दौर जारी है।
यह रुकावट भले ही रणनीतिक हो, इससे पैदा होने वाले शून्य के लिए यह सब जोखिम भरा है। एक स्पष्ट संगठनात्मक नेतृत्व के अभाव में भाजपा ऐसे समय में दिशाहीन दिखाई देती है जब विपक्ष, खासकर इंडिया गठबंधन के तहत, खुद को पुनर्गठित कर रहा है। इसके अलावा, आंतरिक रूप से जो संदेश जाता है, वह असहज करने वाला है। अनुशासन और संरचना पर गर्व करने वाली एक कैडर-आधारित पार्टी के लिए अनिर्णय और भटकाव भरा ऐसा दृष्टिकोण हानिकारक है।
अध्यक्ष पद अपने आप में एक ‘प्रतीक’ होता है, वह प्रतीक भी खतरे में है। पारंपरिक रूप से केन्द्रीय नेतृत्व और कैडर को एक साथ जोड़ने वाले गोंद के रूप में देखे जाने वाले अध्यक्ष की भूमिका संक्रमण के समय खासी महत्वपूर्ण हो जाती है। भाजपा अब अपने चरम पर नहीं है; उसे किसी ऐसे व्यक्ति की जरूरत है जो खुद तो जमीन से जुड़ा ही हो, आंतरिक गुटों में तालमेल स्थापित करते हुए, एक अनिश्चित वैचारिक एवं चुनावी परिदृश्य में भी पार्टी का मार्गदर्शन करने में सक्षम हो।
Published: undefined
अवसर या छिपा संकट?
यह पहली बार नहीं है जब पार्टी अध्यक्ष पद को औपचारिक बनाकर सीमित कर दिया गया हो। वाजपेयी-आडवाणी युग में भी जन कृष्णमूर्ति और बंगारू लक्ष्मण जैसे लोग नाममात्र के नेता रह गए थे- असल सत्ता प्रधानमंत्री और उप-प्रधानमंत्री के हाथों में केन्द्रित थी। लगता है इतिहास खुद को दोहरा रहा है- भारी भरकम शीर्ष नेतृत्व के जरिये संस्थागत कमजोरी का संकेत दे रहा है।
एक दशक के प्रभुत्व के बाद एक अधिक विवादास्पद राजनीतिक भविष्य की ओर बढ़ते हुए, क्या भाजपा अपने अति-केन्द्रीकृत नेतृत्व मॉडल से आगे की सोच सकती है? पिछले दस वर्षों में मोदी और शाह पार्टी की राष्ट्रीय रणनीति के दो सूत्रधार रहे हैं, जिसके बाद स्वतंत्र कामकाज के लिए बहुत कम अवसर बचा है। ‘अध्यक्ष’ कभी कुशाभाऊ ठाकरे और राजनाथ सिंह सरीखे नेताओं के हाथ में अत्यंत शक्तिशाली पद हुआ करता था, लेकिन अब वह बड़ी तेजी से पीएमओ का विस्तार बनता जा रहा है।
अगर भाजपा को पुनर्जीवित और पुनर्स्थापित करना है, तो अध्यक्ष पद पर किसी ऐसे व्यक्ति की नियुक्ति होनी चाहिए जिसमें कार्यकर्ताओं को प्रेरित करने के साथ ही आरएसएस से बराबरी के स्तर पर संवाद कायम करने की क्षमता तो हो ही, पार्टी को ऐसे आकाश के लिए तैयार कर सके जहां नरेन्द्र मोदी पार्टी एकमात्र चुनावी ध्रुवतारा न रह जाएं।
Published: undefined
गतिरोध और तलाश के बीच
आने वाले दशक में भाजपा की दशा और दिशा इस बात पर निर्भर करेगी कि पार्टी नेतृत्व निर्णय लेने की प्रक्रिया को लोकतांत्रिक बनाने और नई आवाजों को सशक्त बनाने के इस अवसर का लाभ उठाता है या कि ‘रणनीतिक विलंब’ की राह अपनाकर समय लेते रहने में यकीन दिखाता है।
यह शून्य जितना लंबा खिंचेगा, पार्टी की विश्वसनीयता आंतरिक रूप से, कार्यकर्ताओं के बीच; और बाहरी रूप से ही नहीं, मतदाताओं के बीच भी उतनी ही कमजोर होती जाएगी। जो पार्टी खुद अपना नेता नहीं चुन सकती, वह देश को कैसे विश्वास दिलाएगी कि उसे पता है कि वह किस दिशा में जा रही है।
Published: undefined
Google न्यूज़, नवजीवन फेसबुक पेज और नवजीवन ट्विटर हैंडल पर जुड़ें
प्रिय पाठकों हमारे टेलीग्राम (Telegram) चैनल से जुड़िए और पल-पल की ताज़ा खबरें पाइए, यहां क्लिक करें @navjivanindia
Published: undefined