अमेरिकी राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप की 9 जुलाई की डेडलाइन बिना किसी धूम-धड़ाके के गुजर गई। संभव है कि ट्रंप ‘अमेरिका-विरोधी’ ब्रिक्स को धमकी देने में मशगूल हो गए हों। भारत भी ब्रिक्स का सदस्य है। बहरहाल, इस आलेख को लिखने तक भारत और अमेरिका में से किसी ने भी ट्रेड डील के मौजूदा हाल पर जुबान नहीं खोले थे। 9 जुलाई की डेडलाइन के बाद भारत पर और भी कड़े टैरिफ (अमेरिकी निर्यात पर 26 फीसद) लगने थे, लेकिन अमेरिकी प्रशासन की ओर से इसकी कोई घोषणा नहीं हुई। व्हाइट हाउस, वाणिज्य विभाग और व्यापार विभाग को भेजे ईमेल का भी कोई जवाब नहीं मिला। ऐसे में तो यही लगता है कि बातचीत का रास्ता अब भी खुला है।
7 जुलाई को व्हाइट हाउस में इजराइली प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू की मेजबानी करते हुए ट्रंप ने पत्रकारों को बताया था कि अमेरिका और भारत समझौते के करीब हैं। एक दिन पहले अपने सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म ट्रुथ सोशल पर एक पोस्ट में ट्रंप ने चेतावनी दी: ‘ब्रिक्स की अमेरिका-विरोधी नीतियों से जुड़ने वाले किसी भी देश पर 10 फीसद का अतिरिक्त शुल्क लगाया जाएगा। इस मामले में कोई अपवाद नहीं होगा।’ इस पर ब्राजील के राष्ट्रपति लुईज इनासियो लूला दा सिल्वा ने यह कहकर पलटवार किया: ‘दुनिया ऐसा बादशाह नहीं चाहती जो इंटरनेट पर भड़ास निकाले।’ दक्षिण अफ्रीका के राष्ट्रपति माटामेला सिरिल रामफोसा प्रतिक्रिया देने में ज्यादा संयमित रहेः ‘ताकतवर लोगों को दुनिया में भलाई का काम करने वालों से बदला नहीं लेना चाहिए।’ लेकिन भारत ने दुम दबाकर चुप रहने का विकल्प चुना।
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ट्रंप को लगता है कि द्विपक्षीय व्यापार में ब्रिक्स डॉलर को किनारे लगाने की तैयारी कर रहा है। जब ट्रंप ने पहली बार यह मुद्दा उठाया तो भारत ने फौरन सफाई दी कि वह ‘डी-डॉलरीकरण’ का समर्थन नहीं करता, हालांकि कुछ मामलों में उसके पास स्थानीय मुद्रा व्यवस्था है। ‘ब्लूमबर्ग’ ने 9 जुलाई को रिपोर्ट दी कि ट्रंप के इस कदम ने महीनों से चल रही बातचीत में एक नया मोड़ ला दिया है। वैसे, यह भी संभव है कि ट्रंप भारत के अलावा, कई दूसरे देशों के साथ भी कड़ा मोलभाव कर रहे हों। ‘सीएनएन’ ने उसी दिन रिपोर्ट किया- ‘लंबे समय से भारत को अमेरिका का ऐसा प्रमुख भागीदार माना जाता रहा जिसके ट्रेड डील पर सबसे पहले समझौता करने की संभावना थी, लेकिन अमेरिकी अधिकारियों के मुताबिक हाल के दिनों में भारतीय व्यापार वार्ताकारों ने अपना रुख कड़ा कर लिया है।’
राष्ट्रपति के तौर पर अपने दूसरे कार्यकाल के 100 दिन पूरे होने के फौरन बाद ट्रंप ने गलत दावा किया कि उन्होंने 200 देशों के साथ व्यापार समझौते पूरे कर लिए हैं। लगभग ढाई महीने बाद, उन्होंने केवल तीन का खुलासा किया है- ब्रिटेन, चीन और वियतनाम के साथ। शायद यह समझते हुए कि सभी व्यापारिक साझेदार उनके आक्रामक रुख से नहीं डरेंगे, उन्होंने बांग्लादेश और श्रीलंका सहित कई देशों को उच्च टैरिफ वाले पत्र भेजकर वस्तुतः तोलमोल के लिए कुछ और समय की गुंजाइश कर दी है। ऊपरी तौर पर यह कदम दबाव बनाने वाला है, लेकिन असल में ऐसा करके वह अपनी ही इज्जत बचा रहे हैं। ऐसे देशों में से ज्यादा ने माना है कि ट्रंप गरजते ज्यादा और बरसते कम हैं और इसीलिए उनके नरम पड़ने का इंतजार कर रहे हैं।
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नरेन्द्र मोदी सरकार उन गिनती की सरकारों में है जिनमें ट्रंप के झांसे को उजागर करने का साहस नहीं। यही वजह है कि भारत को अमेरिका धौंस-पट्टी नहीं दिखा रहा, लेकिन अगर मोदी सरकार अमेरिकी कृषि और डेयरी उत्पादों को भारतीय बाजार में बेरोकटोक पहुंच दे देती है तो यह भारत की खेती-किसानी पर निर्भर आबादी के लिए मौत की घंटी ही होगी। अगर ट्रंप इस मामले में नरमी नहीं बरतते हैं तो साफ हो जाएगा कि मोदी सरकार की सालों से की जा रही लल्लो-चप्पो के बाद भी ट्रंप वास्तव में भारत को किस खाने में रखते हैं। उलटे, इसका असर क्वाड पर पड़ेगा जो चीन को काबू करने के लिए अमेरिका-भारत-जापान-ऑस्ट्रेलिया के बीच की साझेदारी है।
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ट्रंप ने हाल ही में कहा कि उन्हें इलेक्ट्रिक कारें (जिन्हें एलन मस्क की टेस्ला बनाती है) पसंद नहीं और उनकी तुलना में तेल पीने वाली पारंपरिक कारें ज्यादा पसंद हैं। एक दिन पहले तक एक-दूसरे की दोस्ती की कसमें खाने वाले इन दोनों के बीच अब 36 का आंकड़ा है। ट्रंप के बयान के निहितार्थ को समझने की कोशिश करने से ऐसा लगता है कि अमेरिकी सरकार के ‘विशेष कर्मचारी’ और राष्ट्रपति के करीबी सलाहकार मस्क ‘इलेक्ट्रिक वाहनों को अनिवार्य बनाने’ की वकालत कर रहे थे। मस्क को इससे बहुत निराशा हुई कि ट्रंप का ‘बिग, ब्यूटीफुल बिल’ अब कानून बन चुका है और इसने इलेक्ट्रिक वाहनों के लिए कर छूट को खत्म कर दिया है। ट्रंप ने कहा, ‘लोग अब जो चाहें, खरीदें- पेट्रोल से चलने वाली हाइब्रिड कारें या नई तकनीक वाली कोई और, अब इलेक्ट्रिक वाहन ही खरीदने की कोई जरूरत नहीं।’
मस्क ने इस कानून का खुलकर विरोध किया। उनका तर्क था कि इससे ट्रंप के चार साल के कार्यकाल के दौरान अमेरिका के राष्ट्रीय ऋण में खरबों का इजाफा हो जाएगा। अब उन्होंने ट्रंप के विरोध के लिए एक नई राजनीतिक पार्टी की स्थापना की है। मस्क द्वारा ‘अमेरिका पार्टी’ की घोषणा पर ट्रंप ने कहा- ‘मुझे लगता है कि तीसरी पार्टी शुरू करना हास्यास्पद है... मुझे एलन मस्क को इस तरह पटरी से उतरते देख बेहद अफसोस हो रहा है।’ उन्होंने मस्क के व्यवसाय को तबाह करके उन्हें दक्षिण अफ्रीका निर्वासित करने की भी बात की। दुनिया के सबसे अमीर व्यक्ति मस्क के पास अपनी पार्टी को वित्तपोषित करने के संसाधन हैं। 7 जुलाई को अपने सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म एक्स पर उन्होंने कहा: ‘राष्ट्रपति पद के लिए किसी उम्मीदवार को समर्थन करना असंभव नहीं है, लेकिन अगले 12 महीने उनका ध्यान प्रतिनिधि सभा और सीनेट पर है।’ मस्क एक्स के मालिक हैं, जिसके 60 करोड़ ऐक्टिव यूजर हैं जिनमें से 5 करोड़ से ज्यादा अकेले अमेरिका में हैं। उन्होंने बिल के पक्ष में वोट करने वाले सत्तारूढ़ रिपब्लिकन सांसदों को भी चेताया कि अगले साल उन्हें प्राइमरी (नामांकन-पूर्व) मुकाबले में हराने में वह कोई कोर-कसर नहीं छोड़ेंगे। अमेरिका पार्टी 2028 के लिए राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार चुन सकती है, लेकिन मस्क चुनाव नहीं लड़ सकते, क्योंकि उनका जन्म प्रिटोरिया में हुआ था और इस कारण वह चुनाव लड़ने के योग्य नहीं।
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27 देशों का यूरोपीय संघ, जिसका सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) ब्रिटेन के संघ से बाहर निकलने के बाद भी अमेरिका के बाद दूसरे स्थान पर है। ट्रंप यूरोपीय संघ को ‘कई मायनों में चीन से भी बदतर’ मानते हैं। 2016 में ब्रेक्सिट जनमत संग्रह के बाद यूरोपीय संघ और ब्रिटेन के बीच कटुता ने यूरोप में फूट डाल दी। ब्रिटेन में लेबर सरकार की वापसी ने बेहतर माहौल बनाया है और संबंधों में नई शुरुआत हुई है, जिससे सुगम व्यापार की उम्मीद जगी है। यूक्रेन पर रूसी हमले ने यूरोप को एकजुट किया और ब्रिटेन ने इच्छुक देशों का सैन्य गठबंधन बनाने में अगुवाई की। 8-10 जुलाई को ब्रिटेन ने फ्रांस के राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों की मेजबानी की। ब्रिटेन की संसद के संयुक्त सत्र में मैक्रों ने कहा, ‘हम यह सिद्धांत कभी स्वीकार नहीं करेंगे कि जिसकी लाठी, उसी की भैंस। …यही वजह है कि प्रधानमंत्री (कीर स्टारमर) ने पिछली फरवरी में यह गठबंधन बनाने का फैसला किया।’
उन्होंने इस बात पर रोशनी डाली कि ब्रिटेन और फ्रांस यूरोप की केवल दो परमाणु ताकतें हैं और ये ‘महाद्वीप की अग्रणी सशस्त्र सेनाएं’ हैं जो यूरोप के रक्षा व्यय का 40 फीसद वहन करती हैं। मैक्रों ने जोर दिया कि यूरोपीय देशों को ‘अमेरिका और चीन दोनों पर अपनी अत्यधिक निर्भरता’ खत्म करनी चाहिए।
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