असरानी सिर्फ हास्य अभिनेता नहीं थे, बल्कि एक शांत चरित्र अभिनेता भी थे, जो उन कई फिल्मों का हिस्सा रहे जो अब हिंदी सिनेमा के सुनहरे दौर का प्रतीक हैं।
गोवर्धन कुमार असरानी को फिल्म प्रशंसक असरानी के नाम से ही जानते हैं। उनका निधन दिवाली वाले दिन सोमवार को दोपहर में हुआ और उसी दिन शाम को उनका अंतिम संस्कार कर दिया गया जिसकी बहुत ज्यादा खबर नहीं फैली क्योंकि पूरा देश रोशनी के त्योहार का जश्न मना रहा था। वह 84 वर्ष के थे।
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उन्हें हमेशा फिल्म ‘शोले’ के जेलर के रूप में याद किया गया और आगे भी किया जाएगा, जिनका संवाद ‘‘हम अंग्रेज़ों के ज़माने के जेलर हैं’’ 50 साल बाद भी दोहराया जाता है।
उसी साल बासु चटर्जी की ‘‘छोटी सी बात’’ आई, जिसमें असरानी ने चिकनी-चुपड़ी बात करने वाले नागेश की भूमिका निभाई, जो विद्या सिन्हा के साथ नायक अमोल पालेकर के रिश्ते में बाधा डालने की कोशिश करता है। उन्होंने गुलजार की ‘खुशबू’ में मददगार भाई की भूमिका निभाई। आश्चर्यजनक रूप से, 1975 में उन्होंने ऋषिकेश मुखर्जी की ‘‘चैताली’’ में एक नकारात्मक भूमिका भी निभाई।
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असरानी ने छह दशकों में 300 से अधिक फिल्मों में अभिनय किया जिनमें उनकी कई भूमिकाएं भुला दी गईं तो कई ऐसी थीं जो हमेशा याद रखी जाएंगी।
असरानी ‘‘अभिमान’’ (1973) में चंदर के रूप में भी प्रसिद्ध हुए थे। अमिताभ बच्चन-जया बच्चन अभिनीत यह फिल्म उनकी निजी तौर पर पसंदीदा फिल्म थी, जिसे निभाने के लिए मुखर्जी ने उन्हें राज़ी किया था। एक तरह से, मुखर्जी ने उन्हें एक ऐसे चरित्र कलाकार के रूप में तैयार किया जो एक खास तरह की सिनेमाई संवेदनशीलता का प्रतिनिधित्व करता था। उन्हें चमकने का मंच देने वालों में गुलजार और बासु चटर्जी भी शामिल थे।
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असरानी ने ‘बावर्ची’ (1972) में एक ऐसे संगीतकार की भूमिका निभाई जो अपनी ही दुनिया में खोया रहता है, वहीं क्लासिक कॉमेडी ‘चुपके-चुपके’ (1975) में एक ऐसे दोस्त की भूमिका निभाई जो हास्य कथानक को आगे बढ़ाता है। ‘नमक हराम’ (1973) में उन्होंने नायिका के भाई की भूमिका निभाई। इन सभी का निर्देशन मुखर्जी ने किया था।
गुलजार ने एक कलाकार के रूप में असरानी की विविधता को समझने की कोशिश की और उन्हें ‘मेरे अपने’, ‘परिचय’, ‘कोशिश’ और ‘अचानक’ में लिया।
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असरानी ने 2016 में ‘पीटीआई-भाषा’ को दिए एक साक्षात्कार में कहा था, ‘‘जहां तक हिंदी फिल्मों में कॉमेडी का सवाल है, शुरुआत में दो विचारधाराएं थीं। एक थी 'बिमल रॉय स्कूल', जिसके प्रवर्तकों में ऋषिकेश मुखर्जी, गुलजार, एल वी प्रसाद, बासु चटर्जी और बासु भट्टाचार्य जैसे लोग शामिल थे।’’
उन्होंने कहा था, ‘‘ उसके बाद ‘मद्रास स्कूल’ आया जो एक अलग तरह की कॉमेडी लेकर आया। इसमें जितेंद्र, मैं और अन्य हास्य अभिनेताओं के साथ कादर खान थे। यहां कॉमेडी अधिक मुखर थी।’’
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असरानी एक ऐसे अभिनेता थे जिन्होंने समय के साथ खुद को ढाल लिया। 1980 और 1990 के दशक में जैसे-जैसे फिल्मों का लहजा बदलता गया, वैसे-वैसे असरानी भी ढलते गए।
इस दौर में ‘हिम्मतवाला’, ‘एक ही भूल’, ‘कामचोर’ और ‘बीवी हो तो ऐसी’ फिल्में आईं। 1990 के दशक में ‘बड़े मियां छोटे मियां’, ‘घरवाली बाहरवाली’ जैसी फिल्में आईं।
डेविड धवन की ‘हीरो नंबर 1’, ‘दीवाना मस्ताना’ और ‘बड़े मियां छोटे मियां’ जैसी हास्य फिल्मों में गोविंदा के साथ उनकी केमिस्ट्री ने उन्हें दर्शकों की एक नई पीढ़ी से परिचित कराया।
अपने अभिनय करियर के अंतिम चरण में, असरानी के सबसे महत्वपूर्ण सहयोगी प्रियदर्शन थे, जिन्होंने उन्हें ‘हेरा फेरी’, ‘चुप चुप के’, ‘गरम मसाला’ और ‘भूल भुलैया’ में भूमिकाएं दीं।
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विभाजन के बाद पाकिस्तान से आए एक मध्यमवर्गीय सिंधी परिवार में 1941 में जन्मे असरानी चार बहनों और तीन भाइयों के साथ जयपुर में पले-बढ़े। उन्होंने सेंट जेवियर्स स्कूल से पढ़ाई की और राजस्थान कॉलेज से स्नातक की उपाधि प्राप्त की। उन्होंने जयपुर में आकाशवाणी में एक वॉयस आर्टिस्ट के रूप में काम करते हुए अपनी शिक्षा जारी रखी।
उन्हें अपने पिता के कालीन व्यवसाय में कोई दिलचस्पी नहीं थी और वह फिल्मों में काम करने पर अड़े रहे। उन्होंने पुणे के प्रसिद्ध भारतीय फिल्म एवं टेलीविजन संस्थान (एफटीआईआई) में दाखिला लिया।
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उनके अभिनय करियर की शुरुआत 1960 के दशक की शुरुआत में हुई, जहां उन्होंने मुंबई आने से पहले गुजराती फिल्मों में छोटी-छोटी भूमिकाएं निभाईं। उनकी पहली हिंदी फिल्म ‘हरे कांच की चूड़ियां’ (1967) थी, लेकिन ऋषिकेश मुखर्जी की ‘सत्यकाम’ (1969) और ‘गुड्डी’ (1971) ने उन्हें पहचान दिलाई।
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