जाने-माने समाजशास्त्री और नैदानिक (क्लिनिकल) मनोविज्ञानी आशीष नंदी का मानना है कि देश जिस तरह से सोचता है उसमें एक मूलभूत बदलाव आया है। हिंसा अब आम बात हो चुकी है और घृणा का गुजरात मॉडल देश में हर जगह फैल चुका है। नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली बीजेपी सरकार के इन पांच वर्षों को किन चीजों के लिए याद किया जाएगा, इस सवाल पर वह दो टूक कहते हैं, “भारत को लिंचिंग कैपिटल बनाने के लिए।” मोदी शासन के इन पांच वर्षों के बारे में आशीष नंदी से नवजीवन के लिए ऐशलिन मैथ्यू ने बातचीत की।
इन पांच वर्षों के दौरान आपने किस तरह के बदलाव देखे हैं?
मैं नहीं समझता कि इसकी व्याख्या करने के लिए मुझे अपने शब्दों का इस्तेमाल करने की जरूरत है। मेरे मित्र, जो एक राजनीतिक अर्थशास्त्री हैं और यूनिवर्सिटी ऑफ बर्केले में अर्थशास्त्र पढ़ाते हैं, ने इसे बहुत ही साफ तरीके से रखा है। वह कहते हैं कि विकास के गुजरात मॉडल को कहीं भी नकल नहीं किया गया, लेकिन घृणा का गुजरात मॉडल भारत में हर जगह फैल चुका है।
भारतीय मध्यवर्ग अब एक खोखला मध्यवर्ग है। पुराना स्थापित मध्यवर्ग बीते 70 वर्षों में छह गुना से अधिक बड़ा हो गया है, लेकिन जो नया मध्यवर्ग उभरा है उसके पास मध्यवर्ग का पैसा तो है, लेकिन मध्यवर्ग के मूल्य नहीं हैं। माना जाता है कि मध्यवर्ग के मूल्य होते हैं। जब पुराने मूल्य मरते हैं, तो नए मूल्य परवान चढ़ते हैं। लेकिन यह मध्यवर्गअलग तरह का मध्यवर्ग है। वे इसके बारे में ढोंग नहीं करते हैं, यहां तक कि उनके पास यह पाखंड भी नहीं है कि वे मध्यवर्ग और उसके मूल्यों से ताल्लुक रखते हैं, जैसा कि पहली वाली पीढ़ी के साथ था।
इसलिए, अपनी भावना (स्पिरिट) में वे मध्यवर्गीय नहीं थे, उनके बच्चों को अलग प्रकार के मूल्यों का एक्सपोजर मिला। वे कुछ मूल्यों को संभाल (रिकवर) सकते थे। उदाहरण के लिए, अगर आप किसी बंगाली घर में जाते हैं, आप को रविंद्र नाथ टैगोर की रचनावली के 15 खंड या यहां तक कि विलियम शेक्सपियर का मुकम्मल काम या रविशंकर की सीडी/डीवीडी दिखाई देंगे। इसलिए, कम से कम बच गए मूल्यऔर एक पीढ़ी को छोड़ने और फिर वापस आने का मौका था। अब हम कैजूअल (लापरवाह) हैं। यह शिनाख्त करना मुश्किल है कि इस तरह के मूल्यों का क्षरण किस वजह से हुआ। मुझे बदलाव नए शासन (न्यूरेजीम) से प्रेरित लगते हैं और उत्तरोत्तर इस तरह के लोगों के जरिए राजनीतिक शासन गठित किया जाता है। कुछ अपवाद हो सकते हैं, लेकिन मुझे संदेह है कि क्या अमित शाह की इस तरह के मूल्यों तक वास्तविक पहुंच है।
या मोदी के विषय में। वह एक मीडिल क्लास प्रोडक्ट हैं, लेकिन दुर्भाग्य से, वह आरएसएस के बच्चे हैं। उनकी उस दुनिया तक सीमित पहुंच है जहां विभिन्न विचारों और मतों का सह-अस्तित्व है और इसके बावजूद उन पर जीवंत बहसें हैं। इसलिए, वह असहमति का दम घोंटना चाहेंगे और यह सब हमारे आस-पास हो रहा है। वे टेलीविजन चैनल खरीद रहे हैं, पत्रकारों को बुलावा (समन) भेज रहे हैं। पहले आप गवाहों को बुलाते थे, अब यह मीडिया है। सरकार तय करती है कि किसे विज्ञापन देना है, किसे संरक्षण देना और किसे नहीं देना है- अब यह सब चलन में है। इसलिए, कुछ अर्थमें, मध्यवर्ग को एकार्थक (यूनिवोकल) आवाज से परिचय कराने का प्रयास है। इसका अर्थ है वे विविधता को सहन नहीं करते हैं।
भारत में हमेशा से एक शांति आंदोलन था। अब, शांति आंदोलनों के बारे में बात करना अपराध है। यहां तक कि विपक्षी पार्टियां भी अपना मुंह खोलने की हिम्मत नहीं करती हैं। सेना की आलोचना करने की किसी को भी अनुमति नहीं है जैसे कि वे परम पावन (सैक्रोसैंगक्ट) हैं। भारतीय राजनीतिक स्पेक्ट्रम का कोई क्षेत्र अलंघनीय नहीं है- यह क्यों होना चाहिए? यहां तक कि न्यायपालिका गंभीर आलोचना के प्रति खुली है। जो उनकी आलोचना करते हैं वे उनके पीछे नहीं भागते। यहां तक कि देवता आलोचना को सहन करते हैं- हमारे बहुत सारे देवता और देवियां हैं जिनके एक-दूसरे के साथ अच्छे संबंध नहीं हैं, लेकिन वे सहिष्णु हैं। भारत में हम दर्शन के छह प्रमुख स्कूलों की बात करते हैं, उनका शताब्दियों से एक-दूसरे के साथ सह-अस्तित्व है।
अब, पहली बार, आप सुन रहे हैं कि एकार्थक समाज किस तरह से अच्छा है। इसकी वजह से हम कहां हैं। अब, इसे बदलना मुश्किल होगा, क्योंकि यह प्रबंधकीय रूप से अधिक कुशल है। विकास एक निश्चित सीमा तक ऐसा करता है। जहां कहीं भी एक देश असाधारण विकास की ओर देखता है, उन्होंने व्यवस्था को बंद करने की कोशिश की है, क्योंकि यह बेहतर तरीके से व्यवस्था को नियंत्रित और चालाकी से काम निकालने की अनुमति देता है। मैं व्यवस्था को बहुत उम्मीद के साथ नहीं देखता हूं, यद्यपि मैं उम्मीद करता हूं भारतीय मतदाता अपनी बात कहेगा।
तो, आप अगले पांच वर्षों को किस तरह से देखते हैं?
मैं नहीं समझता कि चीजें बहुत बदलेंगी। भारतीय राजनीति की शैली को बदलना बहुत कठिन होगा, क्योंकि जिस दौर में हम जी रहे हैं उसमें मीडिया बहुत गहन प्रचारअभियान में जुटा हुआ है। हमारे पास नेताओं का पूरा सप्तक है जिनके वास्तविक आत्म, वास्तविक मतों, वास्तविक विश्वासों को मैं नहीं जानता। वे बहुत सारी बातें कहते हैं क्योंकि वे मानते हैं कि वह उन्हें वोट दिलाएगा। यह सब मीडिया चालित है। यह अमेरिकी राष्ट्रपति चुनावों की तरह हो रहा है। प्रतिनिधित्ववादी व्यवस्था हमारे लिए अहम है। प्रतिनिधित्ववादी व्यवस्था को बाईपास किया जा रहा है। इसलिए, यह स्थिति बहुत ज्यादा खतरनाक है, केवल लोकतंत्र के लिए ही नहीं, बल्कि यहां तक कि यह एक लोकतांत्रिक संविधान के भीतर एक एकाधिकारवादी शासन के होने की अनुमति देता है।
आप इसे कैसे काउंटर करते हैं? क्या आप देखते हैं कि नेताओं की एक अलग किस्म की नस्ल आ रही है और इसे बदल रही है?
समकालीन भारतीय राजनीति के केंद्रीय सिंह द्वारों में इस तरह के नेताओं को आसानी से अनुमति नहीं मिलेगी। वे आने की कोशिश करेंगे। मैं समझता हूं उनके लिए अभी भी जगह है, लेकिन फिलहाल लोगों को एक अलग तरह की उम्मीद है। ऐसा नहीं है कि नेताओं की नई नस्ल इसे बदल देगी। बदलाव की मेरी उम्मीद भारतीय मतदाता के लचीलेपन में है, क्योंकि पहले भी वे इस तरह के तूफानों को झेल चुके हैं।
आपको क्या लगता है कि बीजेपी को किसके लिए याद किया जाएगा?
भारत को लिंचिंग कैपिटल बनाने के लिए। 1950 के दशक तक अमेरिका लिंचिंग की विश्व राजधानी थी, अब 70 साल बाद हमने भारत में उस परंपरा को पुनर्जीवित किया है। सोहराबुद्दीन की हत्या और उनकी पत्नी कौसर बी की हत्या में भी बड़ी संख्या में गवाह मुकर(हॉस्टाइल) गए हैं। सरकार ने उन्हें गैरकानूनी तरीके से मारा, उसी तरह से जिस तरह से उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने राज्य में ‘खुले आम हत्याओं’ का आदेश दिया है।
इन पांच वर्षों में बीजेपी के प्रदर्शन को आप कैसे आंकेंगे?
मैं नहीं समझता कि उनका दिल परफॉर्मेंस (कार्य-निष्पादन) में लगता था। वे कह रहे हैं कि उन्होंने काम किए हैं, लेकिन उनका दिल मीडिया में लगता था। उनका दिल केवल लोगों की मौजूदगी में था। मोदी के पास प्रत्येक स्टेट्समैन को आलिंगन करने का विश्व रिकॉर्ड है। कोई भारतीय प्रधानमंत्री इस करतब का मुकाबला नहीं कर पाएगा। यह गिनीज बुक ऑफ रिकॉर्ड्स में जाने के योग्य है।
अगर बीजेपी सत्ता में आती है, तो हमें किस तरह का खतरा है?
मैं समझता हूं कि व्यवस्था और ज्यादा बंद हो जाएगी। सत्ता एक व्यक्ति के चरित्र का एक अच्छा मनोवैज्ञानिक टेस्ट है। फिलहाल मोदी को लगता है कि उन्हें किसी से कुछ भी सीखने की जरूरत नहीं है। वह सोचते हैं कि वह सब कुछ जानते हैं, और वह हर विषय पर बातें करते हैं। उन्हें ये विचार कहां से मिले कि ज्ञान की जरूरत नहीं है- कोई नहीं जानता। उनके पास ज्ञान के लिए अवमानना है। वह केवल व्यावहारिक (अप्लाइड) ज्ञान के बारे में सोचते हैं। लेकिन, व्यावहारिक ज्ञान सैद्धांतिक ज्ञान के बिना नहीं आ सकता।
बीजेपी ने किस हिस्से को सबसे ज्यादा चोट पहुंचाई है?
मैं समझता हूं यह तथ्य एकदम स्पष्ट हो चुका है कि उन्होंने आदिवासियों को प्रताड़ित किया। दूसरा, निःसंदेह, किसान हैं। तीसरे, मुसलमान हैं। सोनिया गांधी द्वारा गठित की गई एडवाइजरी काउंसिल एक बहुत अच्छा सुधारात्मक कदम था। एक राजनीतिक को सभी पक्षों को देखना चाहिए और अंततः प्रत्येक के साथ बातचीत करनी चाहिए। यदि अमेरिका तालिबान के साथ बातचीत कर सकता है, तो मुझे लगता है कि सरकार नक्सलियों के साथ क्यों नहीं बात कर सकती। इसे नहीं भूलना चाहिए, नक्सलियों के काडर में 90 प्रतिशत आदिवासी हैं और उनके खिलाफ हमने सेना तैनात की हुई है। अब, इस तरह की स्थिति में, आदिवासी दो तरह से सोचते हैं। केवल यही नहीं, आदिवासी लोकतंत्र का एक बिसरा हुआ अध्याय बन चुके हैं। उनकी मांगें मामूली हैं। वे पारिस्थितिकीय स्वास्थ्य के लिए आपकी गारंटी हैं; वे एक खास सीमा के बाद वनों की कटाई की इजाजत नहीं देते हैं; खनन पर कोई नियंत्रण नहीं है। कहानी के इस हिस्से पर खास ध्यान देना होगा। किसी को उनके भविष्य की परवाह नहीं है।
जहां तक किसानों की बात है, हर कोई जानता है कि सरकार कृषि कार्य में लोगों की संख्या को कम करना चाहती है। वे भारत में कृषि पर निर्भर जनसंख्या के अनुपात को कम करना चाहते हैं। चमत्कार पूर्ण विकास का विचार सत्तारूढ़ कुलीन वर्ग, लोगों का समूह जो कोई भी मार्ग अख्तियार करता है, में लाया गया। वे सोचते हैं कि एनजीओ और श्रीमती गांधी की सलाहकार परिषद उन चीजों के पक्ष में बोलती और खड़ी होती है जो भारत की तरक्की में बाधा बनेंगे। यह शासन काफी हद तक डोनाल्ड ट्रंप के शासन की तरह है- वे विचारों के एक समुच्चय, जो कि मरणोन्मुख हैं, को संरक्षित करते हैं। लेकिन, वे इस तरह से नहीं सोचते हैं। वे सोचते हैं कि वे ज्ञान की अग्रिम पंक्ति में हैं। देश जो पहले था उसे अब फिर से प्राप्त करना मुश्किल होगा।
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