शख्सियत

हिरोईन की सुंदरता और प्रणय की संवेदना को बहुत कलात्मक बना देते थे फिरोज़ खान

फ़िरोज़ खान अपनी बनायी फ़िल्मों में हिरोइन के सौंदर्य और सेक्स अपील को अपने खास नज़रिये से पेश करने के लिये भी याद किये जाते हैं। ‘धर्मात्मा’ स्वप्न सुंदरी हेमा मालिनी की उन चुनी हुई फ़िल्मों में है जिसमें उनकी बेपनाह ख़ूबसूरती को बेहद सधे हुए ढंग से प्रदर्शित किया गया है।

फोटो : सोशल मीडिया
फोटो : सोशल मीडिया 

कोई शख्स पचास साल अभिनय करे और उसके खाते में हों केवल 57 फ़िल्में। यें आंकड़े हैं हिंदी सिनेमा के सबसे हैंडसम अभिनेताओं में से एक फ़िरोज़ खान के। अफ़गानी पिता सादिक़ खान और ईरानी मां फ़ातमा के सबसे बड़े बेटे फ़िरोज़ कान का जन्म 25 सितंबर 1939 को बंगलोर में हुआ। उनकी प्रारंभिक शिक्षा बंगलोर में हुई।आगे की पढ़ाई के लिये वे मुंम्बई आ गए।

कॉलेज तक पहुंचते पहुंचते फ़िरोज़ खान को उनके दोस्तों और रिश्तेदारों से मिल रही तारीफ़ों ने यह एहसास दिला दिया था कि वे एक ख़ूबसूरत शख्स हैं और उनकी जगह फ़िल्मी दुनिया में है। उन्होंने फ़िल्में हासिल करने के लिये कोशिश शुरू कर दी। उन्हें 1957 में फ़िल्म "ज़माना" में सहायक अभिनेता का मौक़ा मिला फिर अगले तीन साल तक "दीदी" (1959), "घर की लाज" (1960) जैसी फ़िल्मों के ज़रिये फ़िरोज़ खान रूपहले पर्दे पर अपनी मौजूदगी बनाए रहे।

शुरूआती दौर में उन्हें कम बजट वाली थ्रिलर फ़िल्में ही मिलीं। जैसे रिपोर्टर राजू, सैमसन, चार दरवेश , एक सपेरा एक लुटेरा , और सीआईडी 999,।लेकिन 1965 में आयी फ़िल्म " ऊंचे लोग " की कामयाबी ने फ़िरोज़ खान को मज़बूती से स्थापित कर दिया।

उसी साल सहायक अभिनेता के रूप में उनकी ब्लाक बस्टर फ़िल्म आरज़ू आयी। इसके बाद "आदमी और इंसान" (1969) और "सफ़र"(1970) ने फ़िरोज़ खान को भारी लोकप्रियता दिलायी। "आदमी और इंसान" के लिये तो उन्हें श्रेष्ठ सह अभिनेता का फ़िल्म फ़ेयर अवार्ड भी मिला।

मुख्य किरदार का रोल पाने के लिये संघर्ष करते फ़िरोज़ खान को महसूस होने लगा था कि उन्हें फ़िल्म निर्देशन की बारीकियां सीख लेनी चाहिये क्योंकि अपनी डायरेक्ट की हुई फ़िल्म में ही उन्हें वह सब करने का मौक़ा मिल सकेगा जो वह चाहते हैं। फ़िल्म "अपराध" (1972 ) के प्रोड्यूसर डायरेक्टर बन कर फ़िरोज़ ने अपने फ़ैसले को सही साबित कर दिया।

"अपराध" के बाद फ़िरोज़ खान ने "कशकमश" और "गीता मेरा नाम" में काम किया उनके काम की सराहना भी हुई लेकिन उन्हें उनकी पसंद का रोल मिला फ़िल्म "खोटे सिक्के" में। एक्शन से भरपूर इस फ़िल्म में फ़िरोज़ ने रॉबिन हुड नुमा किरदार निभाया। 1975 में उनके निर्देशन में "धर्मात्मा" आयी। धर्मात्मा की पूरी शूटिंग अफ़ग़ानिस्तान में हुई और इसमें वहां के परंपरागत घुड़सवारी के ख़तरनाक खेल बुज़कशी को दिखाया गया जो भारतीय दर्शकों के लिये नया और पहला अनुभव था।

फ़िरोज़ खान अपनी बनायी फ़िल्मों में हिरोइन के सौंदर्य और सेक्स अपील को अपने खास नज़रिये से पेश करने के लिये भी याद किये जाते हैं। ‘धर्मात्मा’ स्वप्न सुंदरी हेमा मालिनी की उन चुनी हुई फ़िल्मों में है जिसमें उनकी बेपनाह ख़ूबसूरती को बेहद सधे हुए ढंग से प्रदर्शित किया गया है। "जांबाज़" में अनिल कपूर और डिंपल कपाड़िया का प्रणय दृश्य भारतीय सिनेमा के यादगार प्रणय दृश्यों में से एक माना जाता है। फिरोज़ ने "दयावान" में माधुरी दीक्षित और विनोद खन्ना का लगभग दो मिनट लंबा चुंबन दृश्य दिखाया। इतना लंबा चुंबन दृश्य इससे पहले भारतीय सिनेमा के इतिहास में कभी नहीं दिखाया गया था। और क़ुर्बानी में भीगी साड़ी में ज़ीनत का सौंदर्य तो कभी न भुला पाने वाला दृश्य बन पड़ा है।

फ़िरोज़ खान के जीवन की सबसे बड़ी हिट फ़िल्म थी क़ुर्बानी। 1980 में प्रदर्शित इस फ़िल्म में बिद्दू के संगीत ने नौजवानो में तहलका मचा दिया ख़ास कर पाकिस्तानी मूल की गायिका नाज़िया हसन के गाए गीत "आप जैसा कोई मेरी ज़िंदगी में आए" ने तो अपनी तरह के गानो का ट्रेंड शुरू कर दिया।

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कुर्बानी की कामयाबी के बाद अगले चार साल में फ़िरोज़ खान की अभीनीत सिर्फ़ दो फ़िल्में "कच्चे हीरे" और "खून और पानी" रिलीज़ हुईं जिनकी कोई चर्चा नहीं हुई फिर 1985 में फ़िरोज़ खान की निर्देशित और अभीनीत फ़िल्म "जांबाज़" आयी। इसके बाद उन्होंने यलगार शुरू की लेकिन अचानक उन्हें तमिल फ़िल्म "नायकन" देखने का मौक़ा मिला और यलग़ार छोड़ उन्होंने "दयावान" के नाम से नायकन का रीमेक बना डाला। इसके बाद उन्हें "यलग़ार" बनाने में दो साल और लग गए। अपने बेटे फ़रदीन खान को लांच करने के लिये उन्होंने फ़िल्म "प्रेम अगन" (1998) बनायी जो बुरी तरह फ़्लाप हुई। यह उनकी बनायी पहली ऐसी फ़िल्म थी जिसमें उन्होंने अभिनय नहीं किया।

एक बार फिर उन्होंने फ़रदीन के कैरियर को सहारा देने के लिये फ़िल्म "जानशीन" (2003) बनायी लेकिन यह फ़िल्म भी बुरी तरह फ़्लाप हुई। फ़िरोज़ के अभिनय की अंतिम दो फ़िल्में "एक खिलाड़ी एक हसीना" (2005) और "वेलकम" (2007) रहीं। 27 अप्रैल 2009 को फिरोज खान का निधन हो गया।

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