शख्सियत

विशेष: मजरूह सुल्तानपुरी, जिन्होंने आजाद कलम की हिफाजत के लिए जेल जाना मंजूर किया, झुकना नहीं

मजरूह इंक़लाबी शायर थे लेकिन ज़्यादातर अवाम उन्हें सिनेमाई गीतकार के तौर पर मानता-जानता है। शायद कम से कम भारत में तो ऐसा ही है कि सिनेमा से वाबस्ता ‘लोकप्रिय’ बड़ी-बड़ी क़लमों को बड़े-बड़े आलोचक हाशिए पर डालने की कवायद करते हैं।

फोटो:सोशल मीडिया
फोटो:सोशल मीडिया 

भारतीय उपमहाद्वीप की शायरी और सिनेमाई गीतकारी का इतिहास तो क्या वर्तमान भी कालजयी शायर मजरूह सुल्तानपुरी के जिक्र के बगैर अधूरा है। असरारुल हक खान महानता के करीब नहीं बल्कि महानता और परंपरा उनके करीब होकर गौरवान्वित होती है। पाकिस्तान के फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ सहित कई अजीम शायरों को हम जानते हैं जिन्होंने व्यवस्था के खिलाफ लिखे लफ्ज़ों के लिए माफी न मांगते हुए बाखुशी जेल की सलाखें चुनीं। बाकी दुनिया में भी हर्फों के जरिए मुखालफत के लिए कई कलमकारों को यातना शिविरों में डाला गया। हिंदुस्तान में ऐसा सबसे बड़ा नाम मजरूह सुल्तानपुरी का था। उन्होंने आजाद कलम की हिफाजत के लिए जेल जाना मंजूर किया लेकिन झुकना नहीं। उनके बाद भी कई अदीब जेलों की संकरी काल-कोठियों में गए। कत्ल तक हुए। अब भी हो रहे हैं। लेकिन अपने यहां आजादी के बाद यह रिवायत सुल्तानपुरी साहब ने कायम की थी। तब इस शुरुआत का हिस्सा बना दूसरा बड़ा नाम बलराज साहनी का था। जो जितने बड़े कलाकार थे उतने ही बड़े कलमकार भी।

Published: undefined

मजरूह इंकलाबी शायर थे लेकिन ज्यादातर अवाम उन्हें सिनेमाई गीतकार के तौर पर मानता-जानता है। शायद कम से कम भारत में तो ऐसा ही है कि सिनेमा से वाबस्ता 'लोकप्रिय' बड़ी-बड़ी कलमों को बड़े-बड़े आलोचक हाशिए पर डालने की कवायद करते हैं। गोया ‘पॉपुलर’ होना कोई गुनाह हो। अलबत्ता सिनेमाई गीतकारी में भी सुल्तानपुरी जी की पायदारी बेमिसाल और जबरदस्त अलहदा है।

Published: undefined

आजादी से दो साल पहले, तब के मशहूर फिल्म निर्माता-निर्देशक एआर कारदार ने बंबई में हुए एक मुशायरे में उन्हें सुना और चंद पलों में दीवानगी की हद तक उनके प्रशंसक हो गए। उन्होंने मजरूह से अपनी फिल्मों के लिए गीत लिखने के लिए कहा लेकिन यह प्रस्ताव निर्ममता के साथ उसी मानिंद ठुकरा दिया गया, शैलेंद्र ने जैसे राज कपूर को इंकार किया था। आखिरकार सांझे दोस्त जिगर मुरादाबादी ने उन्हें गीत लिखने के लिए राजी किया। वह फिल्म ‘शाहजहां’ थी। महान गायक कुंदन लाल सहगल (केएल सहगल) ने मजरूह सुल्तानपुरी के लिखे गीत ‘जब दिल ही टूट गया, हम जी के क्या करेंगे’ को गहरी शिद्दत के साथ स्वर दिया। दशकों बीत गए लेकिन यह गीत आज भी लोकप्रियता उच्चस्तरीय गुणवत्ता के लिहाज से अपना शानदार मुकाम रखता है। यह गीत सहगल की रूह के करीब था। सार्वजनिक तौर पर उन्होंने कई बार कहा था कि इस नगमे को उनके जनाजे पर जरूर बजाया जाए।

Published: undefined

इसके बाद मजरूह ने फिल्मी दुनिया में कलम के दम पर वह जगह बनाई कि कहा जाता है कि बेशुमार फिल्में सिर्फ उनके लिखे गीतों की वजह से 'सुपर हिट' की श्रेणी में आईं। उनकी कलम का सफर सन 2000 तक मुसलसल जारी रहा। वह ऐसे अनूठे गीतकार थे जिन्होंने कई पीढ़ियों के साथ काम किया। हिंदी सिनेमा जगत का ऐसा कोई ख्यात संगीतकार और गायक नहीं, जिसके साथ इस सदी के पहले साल तक जनाब सुल्तानपुरी साहब ने काम न किया हो।

Published: undefined

1949 में बंबई में मजदूरों की हड़ताल हुई। तब सपनों की यह माया नगरी यथार्थ के धरातल पर श्रमिक आंदोलनों के लिए भी जानी जाती थी। मजरूह सुल्तानपुरी ने इस हड़ताल में शिरकत करते हुए एक ऐसी इंकलाबी प्रतिरोधी नज़्म पढ़ी, हुकूमत ने जिसे अपने खिलाफ बगावत माना। तब सख्त मिजाज मोरारजी देसाई गवर्नर थे। उनकी हिदायत पर उन्हें आर्थर रोड जेल में डाल दिया। उनके साथ बलराज साहनी की गिरफ्तारी भी हुई। दोनों से कहा गया कि वे माफी मांग लेंगे तो रिहा कर दिए जाएंगे। मार्क्स और लेनिन के मुरीद मजरूह सुल्तानपुरी (और बलराज साहनी ने) माफी मांगने से साफ इंकार करते हुए जेल में रहना मंजूर किया। अलबत्ता जेल में रहकर भी लिखते रहे। तब राज कपूर ने उन्हें आर्थिक मदद की पेशकश की थी लेकिन मजरूह ने इसे नामंजूर कर दिया। इसके बाद अति स्वाभिमानी सुल्तानपुरी को अपने वक्त के महान शो मैन ने अपनी किसी आगामी-अघोषित फिल्म के गीत लिखने के लिए किसी तरह राजी किया और उसका पारिश्रमिक उनके परिवार तक पहुंचाया। 1950 में लिखा गाना राज कपूर ने 1975 में अपनी फिल्म 'धर्म- कर्म' में इस्तेमाल किया। वह गाना था: 'इक दिन बिक जाएगा माटी के मोल...।'

Published: undefined

अदब के मंदिर में मजरूह सुल्तानपुरी के लफ़्ज़ों के अनगिनत चिराग पूरे एहतराम के साथ जल रहे हैं। उनका एक नजीर शेर है, जिसे दुनिया भर में अक्सर दोहराया जाता है, ‘मैं अकेला ही चला था जानिबे मंजिल मगर/लोग साथ आते गए और कारवां बनता गया।’ शायराना हर्फों की ऐसी कारागिरी दुर्लभ है। इसमें शुमार हौसले का शिखर गजब है। यकीनन उनका कारवां बहुत लंबा चला।

Published: undefined

तकरीबन पचास साल के अपने फिल्म गीतकारी के कारवां में उन्होंने एक से एक गीत दिए, जो सुनने वालों की रगों में दौड़ते हैं। 'दोस्ती' फिल्म को गीतों के लिए भी जाना जाता है। उसके एक गीत 'चाहूंगा मैं तुझे सांझ-सवेरे' के लिए मजरूह सुल्तानपुरी को 1965 में फिल्म फेयर अवार्ड मिला। किसी भी पुरस्कार, औपचारिक सम्मान और किताब से कहीं ज्यादा ऊंचा वजूद रखने वाले सुल्तानपुरी जी को 1993 में दादा साहब फालके अवार्ड से भी नवाजा गया।

Published: undefined

खुद को मूलत: शायर मानने वाले मजरूह सुल्तानपुरी ने करीब 300 फिल्मों के लिए 4000 से ज्यादा गीत लिखे। इनमें से ज्यादातर को 'अमर गीतों' का दर्जा हासिल है। 1 अक्टूबर 1919 में निजामाबाद में जन्म लेने वाले मजरूह सुल्तानपुरी के पिता उन्हें चिकित्सक बनाना चाहते थे। इसलिए उन्होंने आर्युवेद और यूनानी चिकित्सा पद्धति की पढ़ाई की। लेकिन शब्दों के साधक को डॉक्टरी कहां करनी थी? सो डॉक्टर असरारुल हक खान ने बाकायदा ज़िद के साथ कलम पकड़ते हुए खुद को नया नाम 'मजरूह' दिया। इसका एक अर्थ 'घायल' भी होता है। खैर, 24 मई, 2000 को जनाब मजरूह सुल्तानपुरी नाम के एक युग का जिस्मानी अंत मुंबई में हुआ।

Published: undefined

Google न्यूज़नवजीवन फेसबुक पेज और नवजीवन ट्विटर हैंडल पर जुड़ें

प्रिय पाठकों हमारे टेलीग्राम (Telegram) चैनल से जुड़िए और पल-पल की ताज़ा खबरें पाइए, यहां क्लिक करें @navjivanindia

Published: undefined