राजनीति

तारीखों के ऐलान के साथ झारखंड में बजा चुनावी बिगुल, लेकिन सियासी तपिश से हलकान है बीजेपी

कट्टर हिंदुत्व, मॉब लिंचिंग, अडाणी के लिए गोड्डा में जमीन अधिग्रहण, आदिवासी ईसाइयों के प्रति सरकार की कथित कूटनीति जैसे मामले बीजेपी को परेशान करने वाले हैं। ऐसे में आदिवासी वोटरों की नाराजगी अगर बीजेपी का गणित गड़बड़ा दे, तो कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए।

फोटोः सोशल मीडिया
फोटोः सोशल मीडिया 

महाराष्ट्र और हरियाणा में जीभ जला चुकी बीजेपी झारखंड में छाछ पी पाएगी या नहीं, यह इस बार बीजेपी विरोधी पार्टियों की रणनीति पर ज्यादा निर्भर करेगा। अगर यहां विपक्षी पार्टियों का ठीक-ठाक गठबंधन हुआ, तो बीजेपी की राह मुश्किल हो सकती है। राज्य में बीजेपी अभी उस छद्म के सहारे जिंदाबाद कर रही है, जो दरअसल उसका अपना बेस (आधार) नहीं है। दूसरे दलों के विधायकों को बीजेपी में शामिल कराकर पार्टी ने खुद ही यह मुनादी कर दी है। चुनाव तारीखों के ऐलान के बाद जाहिर है इन सर्दियों में झारखंड गरमागरम सियासी लड़ाई का अखाड़ा बनने जा रहा है। इसमें अभी किया गया कोई भी आंकलन उस एग्जिट पोल के माफिक हो सकता है, जो विभिन्न चैनलों के एंकर मदारी नाच की तरह कूद-कूद कर करते हैं। लेकिन जमीनी हकीकत ये है कि बीजेपी इस समय राज्य में जबर्दस्त सत्ताविरोधी लहर झेल रही है।

क्या दो जगह से लड़ेंगे रघुवर दास

यह शायद पहला मौका है, जब महज 81 सीटों की झारखंड विधानसभा की लड़ाई इतनी कठिन और दिलचस्प बनती दिख रही है। अनुभव कहता है कि दूध के जले को छाछ भी फूंक कर पीनी चाहिए, लेकिन बीजेपी के स्थानीय रणनीतिकारों की भाषा और हरकतें ऐसे संकेत नहीं देतीं। ऐसे में 19 साल के झारखंड के 10वें मुख्यमंत्री रघुवर दास को इस राज्य का 11वां मुख्यमंत्री बनने का मौका मिलेगा या नहीं, यह कहना फिलहाल कठिन है। वे ऐसे छठे नेता हैं, जिन्हें साल 2014 में यहां मुख्यमंत्री बनने का मौका मिला था। तब वे ऐसे पहले मुख्यमंत्री बने, जो गैर- आदिवासी हैं। उन्हें पूरे पांच साल तक (अगर अगले कुछ दिनों में कुछ अप्रत्याशित न हो जाए) सत्ता के शीर्ष पर रहने का मौका मिला। इसके बावजूद उनकी पारंपरिक विधानसभा सीट जमशेदपुर (पूर्वी) निकल ही जाए, इसकी गारंटी बीजेपी के पास भी नहीं है। ऐसे में पार्टी सूत्रों की मानें, तो बीजेपी उनके लिए हटिया, रांची या धनबाद की एक सीट भी दांव पर लगा सकती है। मतलब, वे जमशेदपुर (पूर्वी) के अलावा एक और सीट से चुनाव लड़ सकते हैं।

बीजेपी की रणनीति

इसका एक और संकेत है। वह यह कि बीजेपी चुनावों से पहले ही उन्हें अपना मुख्यमंत्री प्रत्याशी घोषित कर मैदान में उतर सकती है। पिछले चुनाव में बीजेपी ने ऐसा नहीं किया था। तब एक हाई-टी पार्टी में इन पंक्तियों के लेखक ने मौजूदा गृहमंत्री और बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह से नेतृत्व संबंधी सवाल किए थे और उन्होंने तब उसका कोई जवाब नहीं दिया था। बीजेपी दरअसल नेतृत्व को लेकर तब असमंजस में थी। इस बार उसके लिए वैसी स्थिति नहीं है। वह रघुवर दास के नेतृत्व का ऐलान कर सकती है। रघुवर दास पूरे राज्य में जन-आशीर्वाद यात्रा भी कर रहे हैं। अर्जुन मुंडा समेत दूसरे कद्दावर नेता इन यात्राओं में उनके सहयोगी की भूमिका में हैं। ऐसे में लगता है कि कई दफा मुख्यमंत्री रहे अर्जुन मुंडा अब इस पद के लिए पार्टी की पहली पसंद नहीं हैं।

हालांकि बीजेपी के नेता अभी इस मुद्दे पर कुछ भी नहीं बोल रहे। पार्टी प्रवक्ता दीनदयाल वर्णवाल ने कहा कि “रघुवर दास के नेतृत्व में झारखंड में विकास की नई कहानी लिखी गई है। ऐसे में अगर हम इस बार 65 पार का लक्ष्य रखते हैं, तो यह हवा में नहीं है। इस दावे का व्यापक आधार है और हम इस चुनाव में फिर से जीतने जा रहे हैं। विपक्ष भी नेतृत्व विहिन है और हम वाकओवर टूर्नामेंटमें अपराजेय बन चुके हैं।”

लेकिन बड़ी हैं बीजेपी की चुनौतियां

वैसे बीजेपी के लिए यह लड़ाई इतनी आसान भी नहीं है। पार्टी अगर रघुवर दास के नेतृत्व का ऐलान करती है, तो उसे अपने आदिवासी कार्यकर्ताओं की नाराजगी भी मोल लेनी होगी जो यह मानते हैं कि अर्जुन मुंडा के साथ इंसाफ नहीं हो रहा। सीएनटी-एसपीटी एक्ट, भूमि अधिग्रहण कानून और डोमिसाइल नीति में संशोधन की कोशिशों के बाद बीजेपी सरकार के मुखिया रघुवर दास वैसे ही आदिवासियों का विरोध झेल रहे हैं। आम धारणा है कि वे आदिवासियों के हितों की रक्षा नहीं कर सकते। ऐसे आरोप उनके ही मंत्री सरयू राय और पूर्व मुख्यमंत्रीअर्जुन मुंडा ने पिछले पांच साल के दौरान मुख्यमंत्री को लिखे अपने कई पत्रों में लगाए हैं।

हाल ही में पार्टी में शामिल कराए गए पांच विपक्षी विधायकों वाले क्षेत्रों में भी पुराने कार्यकर्ताओं में मायूसी है, क्योंकि उन्हें अब बीजेपी के टिकट की आस नहीं रही। इससे पहले बाबूलाल मरांडी की पार्टी के जिन विधायकों को बीजेपी ने पार्टी में शामिल करा लिया था, उन क्षेत्रों में भी पार्टी को बड़ी चुनौतियों का सामना करना पड़ेगा। ये सीटें फिर से निकल ही जाएं, इसकी फिलहाल कोई गारंटी नहीं है। पार्टी को वहां भितरघात का भी सामना करना पड़ेगा।

इसके अलावा पूरे देश में कट्टर हिंदुत्व के माहौल, माब लिंचिंग में अल्पसंख्यकों की हत्याएं, अडाणी के लिए गोड्डा में जमीन का जबरन अधिग्रहण, सरकारी कंपनियों की दयनीय हालत, अर्थव्यवस्था की अभूतपूर्व कमजोरी, आदिवासी ईसाइयों के प्रति सरकार की कथित कूटनीति जैसे मामले भी बीजेपी को परेशान करने वाले हैं। ऐसे में आदिवासी वोटरों की नाराजगी अगर बीजेपी का गणित गड़बड़ा दे, तो कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए।

विपक्षी एकता पर बहुत कुछ निर्भर

झारखंड के आगामी चुनाव में इस समय रघुवर दास का भविष्य बहुत हद तक विपक्षी पार्टियों की एकता पर टिका है। शिबू सोरेन की पार्टी झारखंड मुक्ति मोर्चा, बाबूलाल मरांडी की पार्टी झारखंड विकास मोर्चा (प्रजातांत्रिक) और कांग्रेस यहां की तीन बड़ी विपक्षी पार्टियां हैं। जेएमएम के कार्यकारी अध्यक्ष और पूर्व सीएम हेमंत सोरेन पूरे राज्य में परिवर्तन यात्रा करने के बाद रांची में बदलाव रैली कर चुके हैं। वहीं, राज्य के पहले मुख्यमंत्री बाबूलाल मरांडी भी राज्य भर में जनादेश यात्रा और रांची में जनादेश रैली आयोजित कर चुके हैं। इनके अलावा कांग्रेस भी रांची में जनआक्रोश रैली कर चुकी है।

स्पष्ट है कि सभी विपक्षी पार्टियों ने अपने-अपने बूते शानदार कार्यक्रम किए हैं। इनके अलावा कमयुनिस्ट पार्टियां, जनता दल (यूनाइटेड), राष्ट्रीय जनता दल समेत दूसरी छोटी पार्टियां भी चुनाव लड़ने का ऐलान कर चुकी हैं। इन सबने महागठबंधन की बात भी कही है, लेकिन इसका कोई स्वरूप फिलहाल नजर नहीं आ रहा है। इसके बावजूद इन सभी पार्टियों का अपना-अपना मजबूत जनाधार है और अगर समय रहते इनका गठबंधन हो गया तो बीजेपी के लिए झारखंड का चुनावी समर आसान नहीं रह जाएगा।

झारखंड कांग्रेस के कार्यकारी अध्यक्ष राजेश ठाकुर ने दावा भी किया कि महागठबंधन की बात सही रास्ते पर है। जल्दी ही हम इसका ऐलान भी कर देंगे। उन्होंने कहा कि महाराष्ट्र और हरियाणा के चुनाव परिणामों से स्पष्ट है कि लोगों का बीजेपी से विश्वास घटा है। लोग बेरोजगारी, भूखमरी, वंचित समुदाय के अधिकारों पर कुठाराघात, अर्थव्यवस्था की कमजोरी, पूंजीपतियों के हाथों आम आदमी के हितों को गिरवी रखने वाली बीजेपी सरकार से उब चुके हैं। झारखंड में रघुवर दास की तानाशाही और उनके रवैये के कारण लोगों में बड़ाआक्रोश है। जनता इस चुनाव में बीजेपी को सबक सिखाने जा रही है।

विपक्ष में नेतृत्व की पेंच

झारखंड में विपक्षी एकता की सबसे बड़ी दिक्कत नेतृत्व को लेकर है। वरिष्ठ पत्रकार मधुकर मानते हैं कि जेएमएम के कार्यकारी अध्यक्ष हेमंत सोरेन की जिद इसमें सबसे बड़ी बाधा बनी हुई है। उन्हें यह समझना चाहिए कि उनके पिता शिबू सोरेन और स्वयं उनका कार्यकाल जोड़ भी लें, तो जेएमएम तीन साल से भी कम समय तक यहां की सत्ता में रही है। वहीं, बाबूलाल मरांडी अकेले लगभग इतने ही वक्त तक झारखंड के मुख्यमंत्री रहे। इस लिहाज से उनका सियासी अनुभव हेमंत सोरेन से बहुत ज्यादा है। इसके बावजूद उन्होंने हेमंत सोरेन के नेतृत्व को स्वीकार कर लोकसभा चुनाव में गठबंधन बनाया, लेकिन ये लोग एक-दूसरे को अपना वोट ट्रांसफर नहीं करा पाए। अब उन्हें इसकी इमानदार कोशिश करनी होगी।

वरिष्ठ पत्रकार ने कहा कि हरियाणा और महाराष्ट्र के चुनाव परिणाम दरअसल एक पैगाम हैं। विपक्ष अगर इस पैगाम को समझ लेता है, तो झारखंड चौंकाने वाले परिणाम दे सकता है। ऐसे में विपक्षी पार्टियों को नेतृत्व के झमेले में पड़ने की बजाय खुले दिल से गठबंधन की बात करनी चाहिए।

ऐसे में राज्य के वर्तमान राजनीतिक हालात बीजेपी के खिलाफ हैं। बस उन्हें सही राह देने की जरूरत है। विपक्ष अगर समझदारी के साथ समय रहते एक होकर जन भावना को भुनाने में कामयाब रहा तो इस बार झारखंड की सत्ता बीजेपी के लिए दूर की कौड़ी साबित होने जा रही है।

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