राजनीति

यूपीए की मदद से नीतीश ने बनाई विकासवादी-धर्मनिरपेक्ष छवि, सत्ता की लालच ने बनाया मोदी का पिछलग्गू

नवंबर में बिहार में होने वाला चुनाव इस बात का स्पष्ट ऐलान होगा कि मोदी के नेतृत्व वाली बीजेपी ने नीतीश को पूरी तरह घुटने पर ला दिया है। भले इसका असर चुनाव नतीजों पर न पड़े, लेकिन तय है कि जिन तीन ‘सी’ से परहेज उनकी राजनीति की बुनियाद थी, वह कब की हिल गई है।

फोटोः सोशल मीडिया
फोटोः सोशल मीडिया 

कोविड-19 के कारण बिहार विधानसभा का नवंबर में होने वाला चुनाव मतदाताओं के लिहाज से तो अलग होगा ही, नीतीश के लिए भी यह चुनाव कई मामलों में अलग रहने जा रहा है। लगभग चार दशक के अपने राजनीतिक करियर में अटल बिहारी वाजपेयी सरकार में केंद्रीय मंत्री और एनडीए के मुख्यमंत्री के तौर पर लगभग एक दशक बिताने के बाद भी नीतीश बहुत हद तक अपनी धर्मनिरपेक्ष और समाजवादी छवि को बचाए रखने में सफल रहे थे। लेकिन इस बार उनकी वह छवि भी उनके साथ नहीं है।

नीतीश ने 2005 में जब बीजेपी के साथ मिलकर सरकार बनाई तो उन्होंने अपने प्रशासन का बुनि यादी सिद्धांत यह रखा कि तीन ‘सी’- कम्युनलिज्म, करप्शन और क्राइम- से अलग रहना है। यह तो मानना पड़ेगा कि भगवा खेमे में नरेद्र मोदी के नेतृत्व वाले समय के आने से पहले तक उन्होंने अपनी यह छवि बचाए रखी। वह बीजेपी-संघ के अतिवादी तत्वों के प्रति काफी मुखर रहे। यहां तक कि तब गुजरात के मुख्यमंत्री रहे नरेंद्र मोदी को उन्होंने बिहार में प्रचार नहीं करने दिया था।

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वह किशनगंज में अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी का सेंटर खोलने का विरोध कर रहे एबीवीपी के दबाव के आगे झुके नहीं, बुनकरों को पेंशन दी, जिनमें से ज्यादातर 1989 के भागलपुर दंगों के पीड़ित थे, कब्रगाहों की चारदीवारी बनवाई और दंगों के मामलों में अदालती कार्यवाही को फास्ट ट्रैक पर डाला। इस प्रक्रिया में उन्होंने अल्पसंख्यकों की सद्भावना अर्जित की और अल्पसंख्यकों ने बीजेपी के साथ गठबंधन के बावजूद उन्हें वोट देकर उन पर अपना भरोसा जताया। बिहार के अल्पसंख्यकों को बीजेपी और नीतीश के साथ से कोई समस्या नहीं थी।

विडंबना यह है कि जब तक मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (यूपीए) सत्ता में थी, तब तक नीतीश अपनी वैचारिक साख को बनाए रखने में सक्षम रहे। बिहार में अपने धुर विरोधी लालू प्रसाद के यूपीए का हिस्सा होने (लालू 2004-09 के बीच रेल मंत्री थे) के बावजूद तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह नीतीश के प्रति बड़े उदार थे। मनमोहन सरकार ने नीतीश की कई मांगों को बिना यह सोचे मंजूर किया कि वह बीजेपी के साथ हैं।

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उदाहरण के लिए, केंद्र सरकार ने 2000 के बाद से सालाना 1,000 करोड़ रुपया पिछड़ा क्षेत्र अनुदान निधि के रूप में जारी किए जो वाजपेयी सरकार के समय से ही लंबित था। गरीबी खत्म करने की यूपीए सरकार की महत्वाकांक्षी योजना का बिहार सबसे बड़ा लाभग्राही था। तब केंद्र में ग्रामीण विकास मंत्री रघुवंश प्रसाद सिंह थे। यूपीए सरकार बिहार में सड़क, बिजली और शिक्षा के बुनियादी ढांचे के निर्माण के लिए फंड जारी करने में मुस्तैद रही। केंद्र ने बिहार को विशेष दर्जा देने की नीतीश की मांग पर विचार करने के लिए रघुराम राजन समिति को नियुक्त किया और इस समिति ने अनुकूल रिपोर्ट भी दी।

डॉ. मनमोहन सिंह ने 2008 में सीमांचल और कोसी के बाढ़ प्रभावित क्षेत्रों का दौरा किया और 1000 करोड़ रुपये की राहत राशि जारी की, जबकि राहत कार्यों को प्रभावी तरीके से पूरा करने की तारीफ नीतीश के हिस्से आई। तत्कालीन केंद्रीय मंत्रियों, विशेष रूप से पी चिदंबरम और जयराम रमेश ने नीतीश के “अच्छे काम” की प्रशंसा की और सोनिया गांधी तथा राहुल गांधी ने भी कभी नीतीश पर सीधे प्रहार नहीं किया।

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लेकिन नीतीश बड़े चतुर और नाप-तौलकर चाल चलने वाले नेता हैं। उन्होंने एक विश्वसनीय धर्मनिरपेक्ष और समावेशी नेता के रूप में अपनी छवि बनाने में यूपीए का भरपूर इस्तेमाल किया। उन्होंने नरेंद्र मोदी के खिलाफ अभियान चलाया, जो 2008-09 में भगवा खेमे के शीर्ष से लालकृष्ण आडवाणी को हटाने की जुगत में थे। उन्होंने बीजेपी में सिर उठाने की कोशिश कर रहे “अतिवादी तत्वों” पर खुलकर हमला किया। 2009 में पटना में बीजेपी कार्यकारिणी की बैठक में हिस्सा लेने आए नरेंद्र मोदी को उन्होंने रात्रि भोज देने से इनकार कर दिया। इसके साथ ही गुजरात की ओर से पांच करोड़ रुपये की राहत की पेशकश को भी ठुकरा दिया।

ऐसा माना जाता है कि खुद को धर्मनिरपेक्ष और समावेशी मूल्यों वाला दिखाने के लिए नीतीश मौका पाते नरेंद्र मोदी के खिलाफ खड़े हो जाते थे। 2013 में नीतीश ने बीजेपी से दूरी बना ली और 2014 का लोकसभा चुनाव उन्होंने सीपीएम के साथ गठजोड़ करके लड़ा। नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में बीजेपी को जबर्दस्त जीत मिली और बिहार में नीतीश के साथ-साथ आरजेडी और कांग्रेस को बुरी पराजय देखनी पड़ी।

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फिर 2015 में बिहार विधानसभा का चुनाव होना था और नीतीश ने लालू प्रसाद के साथ अपनी 20 साल पुरानी अदावत को किनारे करते हुए आरजेडी और कांग्रेस के साथ गठजोड़ कर लिया। शुरू में नीतीश को गठबंधन की ओर से मुख्यमंत्री का दावेदार घोषित करने में लालू आनाकानी कर रहे थे, लेकिन बाद में सोनिया गांधी के बीच-बचाव पर लालू यह कहते हुए झुक गए कि ‘सांप्रदायिक ताकतों को हराने के लिए मैंने यह जहर पी लिया है।’

जनाधार के मामले में आरजेडी सबसे मजबूत पार्टी थी और यह चुनाव नतीजों से भी साबित हुआ। 243 सीटों वाली विधानसभा में आरजेडी और जेडीयू 101- 101 सीटों पर लड़े और इनमें लालू की पार्टी 80 सीटें जीतकर सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी, जबकि जेडीयू के हिस्से 70 सीटें आईं। तब कांग्रेस का भी प्रदर्शन अच्छा रहा और उसने 40 में से 27 सीटों पर जीत दर्ज की।

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बहरहाल, वापस नीतीश पर आते हैं। 2015 के दौरान नीतीश ने एक के बाद एक कई बयान दिए जिससे लोगों में यह संदेश गया कि धर्मनिरपेक्षता और भारत की अवधारणा के मामले में वह नरेंद्र मोदी के सामने सबसे मजबूत हैं। जब मोदी ने ‘कांग्रेस मुक्त भारत’ का नारा दिया तो नीतीश ने ‘संघ मुक्त भारत’ का नारा दिया। बिहार में जेडीयू-आरजेडी-कांग्रेस सत्ता में आई और 2015 में बीजेपी के विधायकों की संख्या घटकर 54 रह गई।

यहां बता दें कि लालू तब जमानत पर बाहर थे। लालू एक करिश्माई नेता हैं और उन्होंने खुलकर सभाएं की, जिनमें मोदी से ज्यादा लोग आए। लालू ने ज्यादा सीटें जीतने के बाद भी बिना किसी हीला-हवाली के नीतीश को मुख्यमंत्री के रूप में स्वीकार किया। लेकिन सरकार बनाने के कुछ महीने बाद ही नीतीश ने अपना रंग बदलना शुरू कर दिया।

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इसका पहला उदाहरण तब मिला जब उन्होंने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के अचानक नवाज शरीफ के एक निजी कार्यक्रम में शामिल होने की तारीफ की। कांग्रेस और आरजेडी की तो बात ही छोड़िए, पूर्व राजनयिक और उनकी पार्टी से सांसद पवन कुमार वर्मा ने भी मोदी की इस यात्रा की आलोचना की। इसके बाद भी नीतीश मोदी की तारीफ करते रहे। 2016 में जब कांग्रेस समेत पूरा विपक्ष नोटबंदी की बुराई कर रहा था और भारतीय अर्थव्यवस्था से लेकर आम लोगों पर इसके बुरे प्रभाव के कारण पार्टियां सड़क पर उतर आई थीं, तो नीतीश ने मोदी का समर्थन किया।

और फिर जुलाई, 2017 में सीबीआई ने रेलवे में धोखाधड़ी के एक पुराने मामले में लालू, उनके बेटे और उपमुख्यमंत्री तेजस्वी यादव और राबड़ी देवी के निवास 10, सर्कुलर रोड पर छापा मारा। गौरतलब है कि इसी सीबीआई की रिपोर्ट पर 2013 में अदालत ने मामले को खारिज कर दिया था। नीतीश की पार्टी ने तेजस्वी से उनकी भूमिका के बारे में स्थिति स्पष्ट करने को कहा। इसी दौरान नीतीश ने लालू को फोन किया और कहा कि वह महागठबंधन से अलग हो रहे हैं।

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मैंने जब लालू यादव से पूछा कि क्या उन्हें इसका अंदाजा नहीं था तो उन्होंने कहाः “मुझे आश्चर्य तो हुआ जब उन्होंने फोन किया। वह जिस तरह की बेईमान राजनीति करते हैं, उससे मुझे संदेह तो था, लेकिन मुझे इसका अंदाजा नहीं था कि वह मोदी के नेतृत्व वाली बीजेपी में लौट जाएंगे। जैसे ही मैंने उनका एक वाक्य सुना कि ‘बड़े भाई, अब हम साथ नहीं रह सकेंगे’, मैंने रिसीवर रख दिया और बुदबुदाया- पलटू राम पलट गया।”

अपनी अति महत्वाकांक्षा के लिए जाने जाने वाले नीतीश अब तो पूरी तरह मोदी की बीजेपी के पिछलग्गू हो गए हैं। संशोधित नागरिकता कानून का वह समर्थन करते हैं, जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद 370 हटाने संबंधी बिल पर वोटिंग से बाहर रहकर सरकार की मदद करते हैं, दिल्ली दंगों पर होंठ सिल लेते हैं। नीतीश ने पूरी तरह मोदी के आगे सरेंडर कर दिया है, इसका सबसे पहले अंदाजा तब हुआ जब 2019 के लोकसभा चुनाव में जेडीयू ने अपना अलग घोषणापत्र भी जारी नहीं किया। इसका साफ मतलब था कि नीतीश ने बीजेपी के घोषणापत्र को ही अपनी पार्टी का भी घोषणापत्र मान लिया था। लेकिन मोदी-केंद्रित आम चुनाव में लोगों का ध्यान इस ओर नहीं गया।

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इस पृष्ठभूमि में नवंबर में बिहार में होने वाला चुनाव इस बात का स्पष्ट ऐलान होगा कि मोदी-शाह के नेतृत्व वाली बीजेपी ने नीतीश को पूरी तरह घुटने पर ला दिया है और उन्हें अपने सिद्धांतों से अलग करने को मजबूर कर दिया है। इसका असर बिहार चुनाव के नतीजों पर न भी पड़े क्योंकि यह अन्य तमाम मुद्दों पर लड़ा जाएगा, लेकिन इतना तय है कि नीतीश का भगवा ब्रिगेड के आगे समर्पण पूर्ण और स्वयंसिद्ध है और जिन तीन ‘सी’ से परहेज उनकी राजनीति की बुनियाद थी, वह तो कब की हिल गई।

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