बतौर निर्देशक श्याम बेनेगल के पहली फिल्म थी 'अंकुर', परंपरागत फिल्मों से थी बिल्कुल अलग

सन 1974 में बनी फिल्म 'अंकुर' ग्रामीण क्षेत्र में मौजूद सामंती व्यवस्था और सोच का बहुत ही साहस के साथ यथार्थवादी चित्रण करती है। बाहरी तौर पर देखने में 'अंकुर' शांत फिल्म है। लेकिन जमीन का वह हरा-भरा हिस्सा असमानता और अन्याय पर आधारित समाज के मीलों तक फैले दुख और गुस्से को छिपा नहीं पाता है।

फोटो: सोशल मीडिया
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सुभाष के झा

जब क्रूर उत्पीड़न जीने का तरीका बन जाता है, जब सड़क पर लड़की के साथ भीड़ द्वारा यौन हिंसा की जाती है और सभ्य समाज खामोश होकर उसे देखता रहता है, ऐसे समय में 'अंकुर' फिल्म के उस अंतिम दृश्य को याद करना उचित ही होगा जब जमींदार का क्रूर बेटा एक मूक-बधिर किसान को चाबुक से बुरी तरह पीटते हुए उसे अधमरा कर देता है तो एक छोटा बच्चा पत्थर उठाता है और दमनकारी के घर की कांच की खिड़की पर दे मारता है। यह एक निर्णायक क्षण था जब हिंदी सिनेमा ने क्रांतिकारी बनने का संकल्प लिया। शबाना आजमी, साधु मेहर और अनंत नाग- ये सभी उस समय सिनेमा के कैमरे के लिए बिल्कुल नए थे। उन्होंने एक त्रिकोणीय गाथा में काम किया जिसमें किसान के मसले को दिल को छूने वाली बहुत ही संवेदनशीलता के साथ उसी तरह से प्रस्तुत किया गया था जिस तरह का प्रयास इससे पहले सत्यजीत रे और बिमल रॉय ने 'पथेर पांचाली' और 'दो बीघा जमीन' में करने की कोशिश की थी।

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हिंदी सिनेमा की यह नई धारा अपने साथ नई उम्मीद की हवा भी लाई थी। 1970 के दशक में श्याम बेनेगल को न्यू वेब सिनेमा का जनक कहना उचित ही होगा। प्यार से श्याम बाबू के नाम से बुलाए जाने वाले श्याम बेनेगल अपने उत्कृष्ट सिनेमा के लिए विख्यात हैं। उन्होंने मनुष्य के हृदय को बहुत गहरे तक छू जाने वाली सामाजिक प्रासंगिकता वाली फिल्में बनाना बंद नहीं किया है। बतौर निर्देशक 'अंकुर' उनकी पहली फिल्म थी। सन 1974 की यह फिल्म आज भी उतनी ही प्रासंगिक है। यह आंध्र प्रदेश की ग्रामीण पृष्ठभूमि पर थी जहां जमींदारी प्रथा के समाप्त होने के बाद भी विस्तारित सामंती व्यवस्था के भीतर मौजूद दमन के कलंक को उन्होंने तीखे तरीके से सामने रखा। जमींदार अब नहीं रहे। यद्यपि जमींदारी प्रथा का भी उन्मूलन हो चुका है लेकिन जो सामंती सोच है वह अभी भी जीवित है।

हैदराबाद के एक गांव में वासना, ईर्ष्या, असुरक्षा और क्रूरता के यौन संबंधी आवेग से भरी हुई इस कहानी में बेनेगल ने गरीबी और अधीनता को दृष्टांत में बदल दिया। फिल्म में गोविंद निहलानी का कैमरा गांव के रीति-रिवाजों को बहुत ही करीब से कैद करता है। 'अंकुर' की कहानी की जड़ें आंध्र की मिट्टी में गहरे धसी हुई हैं। इसीलिए बेनेगल शुरू में चाहते थे कि इस फिल्म में लक्ष्मी का किरदार वहीदा रहमान निभाएं। लेकिन आखिर में यह भूमिका शबाना आजमी को मिली। लक्ष्मी (शबाना आजमी) की कहानी अपने मूक-बधिर पति किश्त्या (साधु मेहर) की देखभाल करने और अपने मालिक, जमींदार के पढ़े-लिखे बेटे सूर्या (अनंत नाग) के साथ उसके अंतरंग संबंध तथा छोटे से गांव के रीति-रिवाजों एवं गलतियों को देखने का आश्चर्यजनक रूप से एक साहसिक प्रयास है। इस फिल्म की मौलिक कहानी है।

सूर्या द्वारा लक्ष्मी को शारीरिक रूप से अपनी ओर आकर्षित करना और अपने अधीन करना तथा उसका शोषण करना। लेकिन इसके साथ-साथ गांव में घटने वाली अन्य घटनाएं भी इसी से ही संबंधित हैं। उदाहरण के लिए, गांव की एक महिला को इसलिए पंचायत में घसीटा जाता है क्योंकि वह अपने पति के साथ नहीं रहना चाहती। जब पंचायत उसे याद दिलाती है कि उसके पति ने उसे हर प्रकार के आवश्यक साधन मुहैया करा रखे हैं तो भी वह ऐसा क्यों चाहती है। इसके जवाब में अपने पति की नपुंकसता को उजागर करते हुए वह कहती है, "भूख सिर्फ पेट की नहीं होती।"

इसके विपरीत लक्ष्मी का मूक-बधिर पति उसको हर तरह की खुशी देने में पूर्णतः समर्थ है। सूर्या द्वारा अपमानित किए जाने के बाद किश्त्या अपनी पत्नी और गांव को उसके हाल पर छोड़कर चला जाता है। इसके बाद लक्ष्मी और सूर्या के बीच अनुचित रिश्ते की जमीन तैयार हो जाती है। जमींदार के गांव के आरामदायक घर में स्थितियां उस वक्त तेजी से बदलने लगती हैं जब सूर्या की पत्नी जिसके साथ उसकी शादी बचपन में ही तय हो गई थी, सरू (प्रिया तेंदुलकर) का प्रवेश होता है और वह घर की सारी जिम्मेदारी अपने हाथ में ले लेती है। इसके बाद सबसे पहले लक्ष्मी हाशिये पर चली जाती है और फिर सूर्या की सहमति से उसे घर से ही निकाल दिया जाता है। सूर्या का चरित्र मर्दवादी अहंकार और वैवाहिक कायरता का विचित्र मिश्रण है।

जमींदार और पति के किरदार में अनंत नाग और साधु मेहर ने उम्दा अभिनय किया है। साधु मेहर को इस फिल्म के लिए सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिला था। लेकिन अंततः फिल्म शबाना आजमी के लिए ही जानी जाती है। आर्थिक और शारीरिक दृष्टि से कमजोर पति के बचाव में खड़ी रहने वाली पत्नी से लेकर अपने संरक्षण के लिए मालिक के साथ सोने वाली स्त्री के किरदार से गुजरते हुए लाचार, प्रताड़ित लक्ष्मी अंततः लैंगिक निरंकुशता और सामाजिक असमानता के खिलाफ आवाज उठाती है।

सत्यजीत रे ने कहा था कि दो जबरदस्त दृश्यों में वह (शबाना आजमी) सभी अवरोधों को हटा देती है और सिनेमा की बेहतरीन अभिनेत्रियों में खुद को दृढ़ता के साथ स्थापित करती है। रे ने जिन दो दृश्यों का जिक्र किया था, वे दोनों ही फिल्म के आखिरी हिस्सों में आते हैं जब लक्ष्मी का पति फिर से उसकी जिंदगी में वापस आता है। लक्ष्मी उसको देखकर फूट-फूट कर रोने लगती है। इस हृदयविदारक दृश्य में शबाना आजमी ने अप्रतिम अभिनय किया है। एक शक्तिशाली पुरुष जो उसके साथ सोया था और जिसने ग्लानी और डर की वजह से उसके पति को मारा था, अंत में लक्ष्मी उसके खिलाफ अपना विरोध दर्ज कराती है और उसे धिक्कारती है।

बाहरी तौर पर देखने में 'अंकुर' शांत फिल्म है। लेकिन जमीन का वह हरा-भरा हिस्सा असमानता और अन्याय पर आधारित समाज के मीलों तक फैले दुख और गुस्से को छिपा नहीं पाता है। वर्षों बाद भी कुछ नहीं बदला है। सामाजिक प्रतिकार को एक स्पष्ट-ठोस सामूहिक प्रतिरोध में बदलने के बीज के रूप में अभी अंकुरित होना बाकी है। सभी स्तर पर समानता अभी भी एक सपना है। लेकिन हां, श्याम बेनेगल ने सिनेमा की उत्कृष्टता का जो पौधा रोपा था, वह एक फलते-फूलते वृक्ष के रूप में हमारे सामने है।

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साक्षात्कार

सवाल: 'अंकुर' सत्यजित रे की 'पथेर पांचाली' और बिमल रॉय की 'दो बीघा जमीन' की उत्तराधिकारी प्रतीत होती है।

जवाब: हां, शायद। यह मेरे लिए कहना कठिन है। अगर आप ऐसा कहते हैं तो मैं विनम्रता से इसे स्वीकार करता हूं।

सवाल: क्या आप मानते हैं कि आपने जो अंकुर रोपा था, वह आज वृक्ष बन गया है जिस पर आप गर्व कर सकते हैं?

जवाब: हां बिल्कुल। बांग्ला, मलयालम और अन्य क्षेत्रीय भाषाओं में इस तरह के सिनेमा की परिघटना घट चुकी थी। सत्यजीत रे से पहले बंगाल में मुख्यधारा की फिल्में बन रही थीं। जब कोई एक क्रांतिकारी विचार के साथ सामने आता है तो उसे अपनी पहचान बनाने में समय लगता है। हिंदी सिनेमा में बहुत वर्षों से मरणासन्न-जैसी स्थिति थी। कोई भी जोखिम मोल नहीं लेना चाहता था। आप उन पर दोषारोपण नहीं कर सकते। अंततः यह एक बिजनेस है। जब मैंने 'अंकुर' बनाई, उस समय जोखिम बहुत बड़ा कारक था। सिनेमा को एक उद्योग के रूप में मान्यता नहीं मिली थी। जो लोग आपको पैसा देते थे, वे परंपरागत साहूकार थे। इसलिए हमने फिल्मों में जो भी बदलाव किए, वे उन्हीं स्थितियों में हुए। किसी को भी कमर्शियल सिनेमा के कठोर नियमों पर ही चलना होता था।

सवाल: तो आप यह कहेंगे कि 'अंकुर' लीक से हटकर बनी फिल्म थी?

जवाब: मेरे से बहुत पहले सत्यजीत रे की 'पंथेर पांचाली' ने शहरी मध्यवर्ग की सिनेमा में रुचि पैदा की थी। इससे पहले सिनेमा में इस वर्ग की बहुत कम रुचि हुआ करती थी। लेकिन रे ने यह दिखाया कि सिनेमा की भाषा का कोई एक खास तरीका नहीं होता है। मलयालम और कन्नड़ सिनेमा में भी परिवर्तन हुए। फिर हिंदी सिनेमा में फिल्म एंड टेलीविजन इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया से प्रतिभाएं उभरनी शुरू हुईं। सरकार ने भी फंडिंग में उत्सुकता दिखाई। उस समय फिल्म फाइनेंस कॉरपोरेशन (एफएफसी) था। सत्यजीत रे की प्रशंसक श्रीमती इंदिरा गांधी ने हमारे सिनेमा के उभार में गहरी दिलचस्पी दिखाई थी क्योंकि उनकी दिलचस्पी लीक से हटकर अलग तरह के सिनेमा में थी। बी.के.करंजिया उस समय एफएफसी के मुखिया थे। वह साहित्य पर आधारित सिनेमा को पंसद करते थे। यही उम्मीद की किरण थी।

सवाल: और आप?

जवाब: मैं मुंबई में विज्ञापन की दुनिया में था और अपनी फिल्म बनाने की इंतजार कर रहा था। मैं 'अंकुर' की पटकथा को 13 वर्षों से लिए घूम रहा था जिसे कोई नहीं सुनना चाहता था। आखिरकार, जिस व्यक्ति ने मेरी फिल्म को प्रोड्यूस करने का जुआ खेला, वह प्रमुख विज्ञापन डिस्ट्रीब्यूटर ललित एम. बिजलानी और उनके पार्टनर फ्रेनी वरियावा थे। ललित से मेरी मुलाकात होती रहती थी। एक पार्टी में शायद नशे में धुत्त ललित ने मुझसे से कहा, "सुनो, तुम कह रहे थे कि तुम बहुत लंबे से एक फिल्म बनाना चाहते हो। लेकिन तुम उसे क्यों नहीं बनाते?" मैंने उनसे पूछा, क्या वह उसमें पैसा लगाएंगे। उन्होंने कहा- हां। ललित कोई फिल्म निर्माता नहीं थे। मैंने 'अंकुर' उनके लिए बनाई। उन्होंने ब्लेज प्रोडक्शंस की स्थापना की और मेरी अगली चार फिल्मों भी प्रोड्यूस की।

(विख्यात निर्देशक श्याम बेनेगल से सुभाष के झा की बातचीत के अंश)

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