बॉलीवुड में भी गोरे रंग के कलाकारों को मिलता रहा है बढ़ावा, सांवले रंग में दब जाता था सारा 'टैलेंट'!

भारतीय फिल्म उद्योग (जो समाज की अच्छाइयों और बुराइयों को दर्पण की तरह दिखाता रहा है) ने हमेशा से ही त्वचा के रंग से संबंधित 'फोबिया' को बढ़ावा दिया है। पहले केवल गोरे रंग-रूप वाले कलाकारों को ही बॉलीवुड की हाइरार्की में महत्व मिला करता था। हालांकि अब हल्का सा परिवर्तन जरूर आया है।

फोटो: सोशल मीडिया
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सुभाष के झा

अमेरिका के मिनेसोटा में 25 मई को अश्वेत व्यक्ति जॉर्ज फ्लॉयड की एक श्वेत पुलिसवाले द्वारा की गई हत्या के बाद से पूरी दुनिया में नस्लभेद और रंगभेद के खिलाफ आक्रोश उमड़ पड़ा। फ्लॉयड की हत्या के ठीक एक माह बाद 25 जून को भारत की एक प्रमुख सौंदर्य प्रसाधन कंपनी हिंदुस्तान यूनीलीवर ने एक प्रकार का इतिहास रच दिया जब उसने अपने सबसे मुख्य उत्पाद फेयर एंड लवली के नाम से ‘फेयर’ शब्द को हटा दिया। एक ऐसे देश में जहां व्यक्ति के रंग से समाज में उसकी हैसियत परिभाषित होती है, फेयरनेस क्रीम उन सभी चीजों का प्रतिनिधित्व करती है जो सामाजिक हाइरार्की (श्रेणी क्रम) में गलत हैं और प्रकट रूप से असमाधानीय हैं। भारतीय फिल्म उद्योग जो समाज की अच्छाइयों और बुराइयों को दर्पण की तरह दिखाता है, ने हमेशा से ही त्वचा के रंग से संबंधित ‘फोबिया’ को बढ़ावा दिया है। पहले केवल गोरे रंग-रूप वाले कलाकारों को ही बॉलीवुड की हाइरार्की में महत्व मिला करता था।

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जाहिर है कि कुछ अपवाद थे जैसे कि स्मिता पाटिल जिनके सांवले-सलोने रंग ने ‘भूमिका’ और ‘चक्र’ जैसी फिल्मों में पर्दे पर आग लगा दी थी। लेकिन उनके प्रभाव के असर की उम्र बहुत कम थी क्योंकि 1986 में बच्चे को जन्म देने के बाद आई स्वास्थ्य संबंधी जटिलताओं के चलते 36 वर्ष की उम्र में ही उनकी मृत्यु हो गई। उनके बाद अपना दबदबा बना सकने वाली सांवले रंग की ऐसी कोई प्रमुख अदाकारा बॉलीवुड में कई वर्षों तक नजर नहीं आई, सिवाय शायद बांग्ला सुंदरी बिपाशा बसु के, जिन्होंने अपने सांवले रंग-रूप के बावजूद ‘जिस्म’ और ‘राज’ जैसी फिल्मों के जरिये काफी सुर्खियां बटोरी थीं। बाद में दो प्रमुख अभिनेत्रियों- दीपिका पादुकोण और प्रियंका चोपड़ा जिनकी त्वचाका रंग थोड़ा गहरा है, ने ‘क्लास’ की उस दीवार को सफलता से तोड़ा है जहां हिंदी सिनेमा हमेशा से इस मिथ का प्रचारक था कि वे स्त्री-पुरुष जो सामाजिक और आर्थिक संकटों से घिरे रहते हैं, वे ही सांवले रंग के होते हैं।

अंतरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त अभिनेत्रीत निष्ठा चटर्जी ‘ब्रिक लेन’, साथ ही ‘पार्च्ड’, ‘एंग्रीइंडियन गोडेसेस’ और ‘लॉयन’ जैसी फिल्मों में अपने बेहतरीन अभिनय के लिए जानी जाती हैं। वह कहती हैं कि उन्हें भारतीय फिल्मों में गांव की गरीब महिला की भूमिकाएं मिल रही थीं क्योंकि उनका रंग गहरा है। वह कहती हैं, “और जब मैंने शहरी किरदार निभाया तो मुझे एक मदद के रूप में बताया गया कि शहरी दिखने के लिए मुझे रंग को गोरा करने वाला मेकअप लगाना चाहिए। आकर्षक का अर्थ है गोरा। और यह पूर्वाग्रह हमारे देश में हर जगर फैला हुआ है। आप देख सकते हैं कि हमारे देश में अफ्रीकियों के साथ कितनी बुरी तरह से व्यवहार किया जाता है। हम भारतीयों में से 90 फीसदी लोगों की त्वचा गहरे रंग की होती है। हमारे समाज में शरीर के आधार पर और भी कई तरह के बहुत पक्षपात होते हैं लेकिन रंग को लेकर पूर्वाग्रह व्यक्ति के आत्म सम्मान पर ही चोट कर देता है। इसकी जड़ें हमारी जाति व्यवस्था तक पहुंचती हैं।”

जब तनिष्ठा ने आस्ट्रेलियाई फिल्म‘अन-इंडियन’ की थी तो किसी आलोचक ने यह टिप्पणी की थी कि इतने गहरे रंग की लड़की को ऑस्ट्रेलिया में काम कर रही एक कुशल कामकाजी महिला के रूप में क्यों चुना गया। उन्होंने कहा, “किसी ने लिखा था कि उन्हें किसी आकर्षक महिला को लेना चाहिए था। आकर्षक गोरे रंग का समानांतर होता है!” वह कहती हैं, “मैंने कभी गोरा करने वाली किसी क्रीम का समर्थन नहीं किया। मैंने कभी किसी को यह इजाजत नहीं दी कि वह मुझे स्क्रीन पर गोरा दिखाए।” सच तो यह है कि एक बहुत बड़ी संख्या में गोरे रंग वाली भारतीय नायिकाओं ने भी ‘फेयरनेस’ क्रीमों के समर्थन से कदम पीछे खींचे हैं। उनमें से एक हैं दिया मिर्जा। वह ‘संजू’ और ‘थप्पड़’ जैसी फिल्मों में अपने काम के लिए जानी जाती हैं। वह यह मानती हैं कि उन्होंने एक बार फेयरनेस क्रीम के समर्थन की गलती की। वह बताती हैं, “एक मॉडल के रूप में मेरा पहला विज्ञापन एक फेयरनेस क्रीम का था। तब वह मेरे लिए काम और पैसा कमाने का एक अवसर था तो मैंने इस बारे में बहुत नहीं सोचा। पर समय के साथ मेरी जागरूकता बढ़ी और मैं व्यक्तिगत रूप से यह मानती हूं कि मुझे फेयरनेस उत्पादों के समर्थन की कोई आवश्यकता नहीं है। यह मेरा व्यक्तिगत चुनाव है जिसका आधार यह विश्वास है कि फेयरनेस का समर्थन हमारे सामाजिक ढांचे में कई तरह के विभाजन पैदा करता रहेगा क्योंकि यह सौंदर्य का एक झूठा बोध पैदा करता है और ऐसी घिसी-पिटी बातों को बल देता है जिन्हें जड़ से मिटा देना चाहिए।”

शाहरुख खान, ऋतिक रोशन और जॉन अब्राहम-जैसे बॉलीवुड कलाकार जिन्होंने गोरा करने वाली क्रीम का समर्थन किया है, इसे स्वीकार करने से शर्माते हैं। अभिनेता अर्जुन रामपाल ‘रॉक ऑन’, ‘राजनीति’ और ‘ओम शांति ओम’ में अपने अभिनय के लिए जाने जाते हैं। अर्जुन ने पुरुषों के लिए बनाई गई नीविया की गोरा करने वाली क्रीम का समर्थन किया है लेकिन वह इसे अस्वीकार करते हैं। वह कहते हैं, “मैंने कभी किसी गोरा करने वाली क्रीम का समर्थन नहीं किया। मैं इसमें विश्वास नहीं करता। अगर आप कमर्शियल (विज्ञापन) को देखेंगे तो स्वयं समझ जाएंगे। सच्चाई तो यह है कि वो क्रीम गोरा करने वाले उत्पादों के मुंह पर एक तमाचा है जहां मैं विशेष रूप से यह कहता हूं कि शेड कार्ड दीवारों के लिए होता है, चेहरों के लिए नहीं। जिस उत्पाद का मैंने समर्थन किया है, वह चेहरे पर काले धब्बों को कम करने के लिए है याफिर सूरज के कारण भारत में आम तौर से पड़ने वाली छाइयों के लिए है। मैं ऐसी किसी भी चीज का समर्थन कभी नहीं करूंगा जिसमें मैं विश्वास नहीं करता। मैं फेयरनेस क्रीम में बिल्कुल विश्वास नहीं करता और मुझे हमेशा से ही यह धारणा बहुत अजीब और रंगभेदी लगी है।”

अंतरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त अभिनेत्री नंदिता दास जो दीपा मेहता की ‘फायर’ और ‘अर्थ’ जैसी फिल्मों में अपने दमदार अभिनय के लिए जानी जाती हैं। उन्हें भी अपने गहरे रंग के लिए अनेक प्रकार के भेदभावों का सामना करना पड़ा है। वह कहती हैं, “हमारे चारों ओर पुरुषों और महिलाओं के जो चित्र होते हैं, वे गोरे रंग के होते हैं। चाहे फिल्मों में हों, टेलीविजन, पत्रिकाओं, होर्डिंग्स या विज्ञापनों में हों...सभी जगह ‘गोरे रंग’ का बोल बाला है, वह भी ऐसे देश में जिसके अधिकांश लोगों का रंग गहरा है!” नंदिता मानती हैं कि गहरे रंग के लोगों को अकसर औरों से कम महसूस कराया जाता है। वह कहती हैं, “बचपन से लेकर बड़े होने तक। हमने कुछ पहचान बनाई हैं जैसे राष्ट्रीयता, धर्म, जाति, त्वचा का रंग, लैंगिक पसंद- सभी पहचान हमें लोगों को ‘जज’ करने का कारण देती हैं। ये सारी पहचान (आइडेंटिटीज) वहां भी लगाई जाती हैं जहां इनकी कोई आवश्यकता नहीं होती। हम बस इनके साथ पैदा होते हैं। क्या हमारी पहचान हमारे विचारों और कर्मों से नहीं होनी चाहिए? भारत के मनोरंजन उद्योग में आकर्षक दिखने कामूल आधार है गोरा होना और आकर्षक होना स्वीकार्य किए जाने यह पहली कसौटी है।” त्वचा के रंग को लेकर बॉलीवुड हमेशा से ही विरोधाभासी तरीके से काम करता रहा है। न केवल गहरे रंग वाली अभिनेत्रियों को गरीब महिलाओं का किरदार निभाने के लिए बुलाया जाता है बल्कि ऐसे किरदारों के लिए गोरी महिलाओं को काले रंग से भी रंगा जाता है। बहुत पहले 1970 के दशक में भारत के महानतम फिल्मकार सत्यजीत रे ने एक बहुत ही गोरी अभिनेत्री सिमी ग्रेवाल को एक बांग्ला फिल्म‘अरण्यदिन रात्रि’ में आदिवासी औरत का किरदार निभाने के लिए साइन किया था। ग्रेवाल कहती हैं कि उन्हें इसके लिए शूटिंग के दौरान हर रोज सिर से पांव तक काले रंग से रंगा जाता था।

आज के समय में अभिनेत्री भूमि पेडणेकर को 2019 में फिल्म‘बाला’ के लिए एक गहरे रंग की त्वचा महिला का किरदार निभाने के लिए काले रंग से रंगा गया। सोशल मीडिया में इस बात को लेकर बहुत हंगामा हुआ कि गहरी त्वचा वाली अभिनेत्री को क्यों साइन नहीं किया गया। ‘मनमर्जियां’, ‘केदारनाथ’ और ‘जजमेंटल है क्या’ जैसी फिल्मों की पटकथा लेखिका कनिका ढिल्लों मानती हैं कि सिनेमा और समाज में रंग को लेकर पूर्वाग्रह में एक हल्का सा परिवर्तन आया है। वह कहती हैं, “मैं ऐसा मानती हूं कि बॉलीवुड में विशेषकर पॉप कल्चर रिवायत की जगह हमें सौंदर्य को लेकर एक ज्यादा समावेशी विचार को अपनाने की आवश्यकता है।” कनिका अखबारों के विवाह संबंधी विज्ञापनों से भी ‘फेयर’ शब्द को गायब होते देखना चाहती हैं। वह कहती हैं, “क्या कभी ऐसा दिन आ सकता है जब दुल्हे विवाह संबंधी विज्ञापनों द्वारा फेयर (गोरी) साथी ढूंढना बंद करेंगे। प्रियंका चोपड़ा ब्राउन स्किन वाली ग्लोबल आइकन हैं! भारतीय सौंदर्य की एक आइडिअल हैं! और दीपिका पादुकोण तो इस देश में भी सौंदर्य की पराकाष्ठा मानी जाती हैं। तो सुनिश्चित है कि ये अभिनेत्रियां वर्तमान आइकन हैं और केवल गोरी स्किन वाली महिला ही खूबसूरत होती है ऐसी धारणा के मुंह पर एक जोरदार थप्पड़ है। अब समय है कि हम हमारी अपनी त्वचा में ही खूबसूरत लगें।” कौतूहल का विषय है कि बॉलीवुड में पुरुष कलाकारों को रंग संबंधी पूर्वाग्रह का सामना नहीं करना पड़ता। नवाजुद्दीन सिद्दीकी कहते हैं कि उन्हें कभी उनके रंग को लेकर नहीं टोका गया।

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