अंधी गली में अर्थव्यवस्था, भारी मानवीय कीमत चुकानी पड़ सकती है

बड़ी समस्या यह है कि अर्थव्यवस्था फिर से बेहतर करने के लिए सरकार के पास पर्याप्त धन नहीं है। यह पतले से धागे पर टिकी हुई है। थोड़ी-सी मंदी बहुत जल्दी विकराल हो सकती है। अगर ऐसा होता है, तो यह हम सब के लिए डरावनी खबर होगी। लाखों लोगों को नौकरी से हाथ धोना होगा।

फाइल फोटो
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राहुल पांडे

यह मंदी है या हम मंदी के शुरुआती लक्षण देख रहे हैं? केंद्र की बीजेपी सरकार भले ही इनकार करती रहे, लाखों कर्मचारी बेरोजगार हो चुके हैं और उससे भी अधिक लोग अपनी नौकरी जाने की आशंका में जी रहे हैं।

हम पिछले कई साल से ग्रामीण इलाकों में परेशानियों के बारे में सुन और बातें कर रहे हैं लेकिन अब आए आंकड़े संकेत देते हैं कि हम शहरी खपत में मंदी का सामना कर रहे हैं। एक घटना का उल्लेख जरूरी है। अभी 16 अगस्त को जमशेदपुर में एक स्थानीय बीजेपी नेता के बेटे 25 साल के आशीष कुमार ने आत्महत्या कर ली। वह एक ऐसी फर्म में कम्प्यूटर ऑपरेटर था जो टाटा मोटर्स के कुछ पार्ट्स का उत्पादन करती थी। उस फर्म ने अपने एक हिस्से की बंदी की घोषणा कर दी थी। आशीष को भय था कि जिस तरह ऑटोमोबाइल सेक्टर गंभीर संकट में है, उसे भी अपनी नौकरी खोनी पड़ सकती है।

इस घटना का जिक्र इसलिए नहीं है कि किसी पार्टी विशेष का उल्लेख कर कोई राजनीतिक बात कही जाए, यह सिर्फ इसलिए उल्लेखनीय है कि यह कोई राजनीतिक या आर्थिक समस्या नहीं है। भारतीय अर्थव्यवस्था में मंदी जिस तरह बढ़ रही है, वह मुख्यतः मानवीय समस्या है। इसकी भारी मानवीय कीमत चुकानी पड़ सकती है और ऐसा होना आरंभ भी हो चुका है।

पिछले 9 माह में ऑटोमोबाइल की बिक्री की बहुत चर्चा हुई है। जून, 2019 तक करीब 5 लाख वाहन बिक्री के इंतजार में हैं। इनकी कीमत लगभग 37,000 करोड़ रुपये है। करीब 30 लाख टू-व्हीलर्स बनकर तैयार हैं और उनकी बिक्री नहीं हो रही है। इनकी कीमत करीब 17,000 करोड़ रुपये हैं। साढ़े तीन लाख लोगों की नौकरी जा चुकी है। इस सेक्टर में 3.5 करोड़ लोगों को सीधे या परोक्ष ढंग से रोजगार मिला हुआ है। इस हिसाब से, जितने लोगों को नौकरी से हाथ धोना पड़ा है, वह सिर्फ 1 प्रतिशत ही है।

लेकिन इस सेक्टर के लोगों का कहना है कि जिस तरह वाहन बनकर बिक्री के इंतजार में हैं, काफी सारी और नौकरियां जाती हुई दिख रही हैं। तमाम कंपनियों ने अपने अस्थायी कर्मचारियों की बड़ी संख्या को मुक्त कर दिया है और स्थायी कर्मचारियों के साथ भी ऐसा होना अब कुछ समय की बात भर है। किसी सरकारी नीति में बदलाव के कारण अगर आने वाले त्योहारों के सीजन में भी बिक्री का यही हाल रहा, तो और लोगों की नौकरियां भी नहीं बचने वाली हैं।

लेकिन यह सब अचानक नहीं हुआ है। सोसाइटी ऑफ इंडियन ऑटोमोबाइल मैन्यूफैक्चरर्स (सिआम) ने शहरी मांग में कमी की ओर 2018-19 में ही इशारा किया था। उस साल कार की बिक्री में सिर्फ 2.7 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई थी। यह पिछले पांच वित्त वर्ष में सबसे खराब स्थिति थी।

सिर्फ इसी सेक्टर में मंदी नहीं है। रीयल एस्टेट का भी यही हाल है। करीब 13 लाख मकान बने पड़े हैं और उनके खरीदार नहीं मिल रहे। इस सेक्टर में 8 प्रतिशत वार्षिक की दर से यह संख्या बढ़ रही है। बिजनेस टुडे की एक रिपोर्ट समस्या की गंभीरता के बारे में बताती हैः मकान बनने के बाद न बिक पाने की दर हर शहर में अलग-अलग है। जैसे, कोच्चि में 80 महीने, जयपुर में 59 महीने, लखनऊ में 55 महीने और चेन्नई में 72 महीने लग रहे हैं। मतलब, इन शहरों में अभी बन चुके मकानों को बिकने में 5 से 7 साल लगेंगे और तब जाकर डेवलपर्स को इनसे छुटकारा मिलेगा।

इस तरह मकान बिक न पाने का असर बिल्डरों और इस सेक्टर में नौकरी कर रहे लोगों से आगे भी है। आपके पास घर है या आपने इन्वेस्टमेंट के खयाल से इस सेक्टर में निवेश कर रखा है, तो आपने अपने घर की कीमत में गिरावट का अनुभव किया होगा। इस सेक्टर में आम भावना यह है कि हम लोगों को अभी हाल के दिनों में अपने सेक्टर में बढ़ोतरी की उम्मीद नहीं पालनी चाहिए। इसका मतलब है, कई शहरी परिवारों को बड़ा और ठीक-ठाक वित्तीय झटका लगने वाला है। आंकड़े बताते हैं कि इस सेक्टर में जुलाई 2018 से ही भारी गिरावट रही है और आने वाले कुछ दिनों तक यही स्थिति बनी रहने वाली है।

अन्य सेक्टरों में भी यही हाल है। कंज्यूमर इलेक्ट्रॉनिक्स एंड अप्लायेंसेस मैन्युफैक्चरर्स एसोसिएशन के अनुसार, टीवी पैनलों की बिक्री फिर गिर गई है। उपभोक्ताओं में सामान्य भाव की वजह से वाशिंग मशीन और रेफ्रिजरेटर जैसी घरेलू उपयोग की चीजों में जुलाई में सामान्य वृद्धि रही है। कार, रीयल एस्टेट और उपभोक्ताओं के टिकाऊ सामान ज्यादा कीमत वाले होते हैं और इन्हें विशिष्ट खर्च माना जाता है लेकिन ब्रिटेनिया के मैनेजिंग डायरेक्टर ने संकेत दिया कि एफएमसीजी सामान की बिक्री में बढ़ोतरी भी घटी है और लोग इन पर खर्च में भी सतर्क हैं। उन्हें यह कहते हुए मीडिया में उद्धृत किया गया है किः हम सिर्फ 6 फीसदी की बढ़ोतरी कर पाए और बाजार धीरे-धीरे बढ़ रहा है। और यह थोड़ी चिंता की बात है क्योंकि अगर 5 रुपये के सामान को खरीदने से पहले उपभोक्ता दो बार सोचने लगा है, तो अर्थव्यवस्था में कोई गंभीर लोचा है।

एफएमसीजी कंपनियां संघर्ष कर रही हैं और इनमें योग गुरु रामदेव की पतंजलि भी शामिल है जिसकी शहरी बिक्री में करीब तीन फीसदी की गिरावट आई है। इसकी बिक्री में सकल गिरावट लगभग 10 प्रतिशत है। 2012 में इस कंपनी का 500 करोड़ का कारोबार था जो 2017 में लगभग 10,000 करोड़ रुपये हो गया था। मीडिया रिपोर्टों में बताया गया कि गिरावट मुख्य कारणों में है विज्ञापन, जिससे इसने इस पर अपने खर्चे कम कर दिए हैं। यह पिछले वर्षों में विज्ञापनों के खयाल से टाॅप 10 कंपनियों में थी।

विभिन्न सेक्टरों में बिक्री में इस तरह की गिरावट के आंकड़ों के आधार पर किसी को भी अंदाजा हो सकता है कि वास्तविक शहरी आय में गिरावट है। एऑन के वार्षिक वेतन वृद्धि सर्वेक्षण ने मार्च, 2019 में वेतन में 9.7 प्रतिशत बढ़ोतरी बताई थी लेकिन तब से स्थितियां काफी बदल गई हैं। मध्यवर्ग ग्रामीण तंगी से अब तक आम तौर पर अप्रभावित रहा है लेकिन स्थितियां तेजी से बदल रही हैं और हर आदमी परेशानी महसूस करने लगा है। यह सिर्फ कुछ समय का मसला है जब ग्रामीण तंगी शहरी भारत में भी फैल जाएगी और यह अब होना शुरू हो गया है।

इंडिया टुडे ने कुछ चिंताजनक आंकड़े बताए हैंः मजदूरी विकास के आंकड़े स्तंभित करने वाले चित्र दिखाते हैं- 2008 से 2012 तक वास्तविक ग्रामीण मजदूरी 6 प्रतिशत वार्षिक की दर से बढ़ी। नवंबर, 2013 में वह दौर लड़खड़ा गया। मई, 2014 और दिसंबर, 2018 के बीच ग्रामीण मजदूरों के लिए वास्तविक मजदूरी सिर्फ 0.87 प्रतिशत बढ़ी जबकि गैर कृषि मजदूरों की मजदूरी 0.23 प्रतिशत वार्षिक की दर से बढ़ी। इससे भी दुखदायी यह है कि कृषि से बाहर सबसे बड़े श्रमिक समूहों में से एक- निर्माण मजदूरों ने वास्तविक गिरावट देखी। उनकी वास्तविक मजदूरी में 0.02 प्रतिशत वार्षिक की गिरावट रही।

ये आंकड़े बताते हैं कि आय उस तेजी से नहीं बढ़ रही जितनी तेजी से कीमतें बढ़ रही हैं। एक देश के तौर पर हमारे लिए सचमुच बड़ी समस्या यह है कि अर्थव्यवस्था फिर से बेहतर करने के लिए सरकार के पास पर्याप्त धन नहीं है। यह पतले-से धागे पर टिकी हुई है। थोड़ी-सी मंदी बहुत जल्दी बड़ी मंदी में बदल जाएगी। हमें आशा है और हम प्रार्थना ही कर सकते हैं कि ऐसा नहीं हो। अगर ऐसा हो ही जाता है, तो यह हम सब के लिए डरावनी खबर होगी। लाखों लोगों को नौकरी से हाथ धोना होगा।

इन सबके बीच यह सुखद है कि इस बार 1 फीसदी अधिक बारिश हुई है लेकिन इस वजह से देश के कई हिस्सों में बाढ़ भी आ गई है। इस बार कृषि उपज बेहतर होने की उम्मीद है लेकिन यह देखने की बात होगी कि किसानों को अपनी उपज के लिए उचित कीमत मिलती है या नहीं। सबसे बड़ा सवाल यह है कि सरकार इस दफा किसानों को न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) की गारंटी कर सकती है या नहीं, या इस बार भी उन्हें एमएसपी से नीचे की दर पर अपनी उपज बेचनी पड़ती है।

हर व्यक्ति चिंतित है कि इस साल दीपावली कैसी बीतेगी। ऑटोमोबाइल कंपनियों को उम्मीद है कि इस अवधि में उनकी बिक्री एक तिहाई तक तो ही जाएगी। लेकिन अगस्त में जिस तरह प्लांट्स में उत्पादन बंद हुए हैं, उससे लगता है कि कंपनियां अच्छे उत्सवी मौसम को लेकर बहुत आश्वस्त नहीं हैं, लेकिन भारत के लोगों को तो उसकी उम्मीद है। मध्यवर्ग के लोग अपने परिवार को सभी सुख-सुविधा देने-दिलाने और बच्चों की शिक्षा-दीक्षा के लिए कड़ी मेहनत करते हैं। हम प्रार्थना करते हैं कि चमत्कार हो और हम वित्तीय संकट से बचे रहें। हम शुभ दीपावली की प्रार्थना करें।

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