विष्णु नागर का व्यंग्य: सत्ता की जैली फिश, सभी प्रकार की आपदाओं-विपदाओं से मुक्त!

ऐसी मछली हो या आदमी, बेहद सुखी होते हैं। सभी प्रकार की आपदाओं-विपदाओं से मुक्त होते हैं। इन्हें कष्ट केवल इतना होता है कि शिकार सामने आ जाए तो उसे जहरीला डंक मार कर गपागप निगल जाना होता है। पढ़ें विष्णु नागर का व्यंग्य।

प्रतीकात्मक तस्वीर
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विष्णु नागर

आपने शायद कभी जैली फिश देखी हो, उसके बारे में कुछ जानते हों। गूगल ज्ञान के अनुसार वह भारत सहित दुनिया में सब जगह पाई जाती है। कोई सब जगह पाया जाए, अपनी ईश्वरीयता का बोध कराए तो उससे सावधान हो जाना चाहिए। कुछ तो बड़ी गड़बड़ी है उसमें। इस मछली ने युगों-युगों से जो अब हमारे शासकों की भी विशेषता बन चुकी है- न कभी दिल का झंझट पाला, न दिमाग का। न आंखों से वास्ता रखा, न रीढ़ की हड्डी से। और तो और, उसका वास्ता तो शरीर में अमूमन पाए जानेवाले खून से भी नहीं रहा। वह 95 प्रतिशत तक पानी और केवल पानी है, महज़ पांच प्रतिशत शेष जो भी है, इसलिए मछली है।

ऐसी मछली हो या आदमी, बेहद सुखी होते हैं। सभी प्रकार की आपदाओं-विपदाओं से मुक्त होते हैं। इन्हें कष्ट केवल इतना होता है कि शिकार सामने आ जाए तो उसे जहरीला डंक मार कर गपागप निगल जाना होता है। इतना कष्ट तो बड़े-बड़े सम्राटों को भी युगों-युगों तक करना पड़ा है। इक्कीसवीं सदी के दो दशक से अधिक बीत गए, तकनालाजी का इतना विकास हो चुका है मगर आजतक भी आज के सम्राटों को भी इससे मुक्ति नहीं मिली है! शिकार को डंक मार कर बेहोश करके ही आदिम पद्धति से खाना-निगलना पड़ता है। इससे उनका भी बचाव नहीं और उन्होंने इसकी कामना भी नहीं की! भगवान नामक कुछ होता है वह यह तकलीफ़ नहीं उठाते तो उनकी तरफ से हमें यह कष्ट करना पड़ता है। उन्हें चढ़ाया माल स्वयं ग्रहण करना पड़ता है! यह कष्ट मुझ जैसे नास्तिक को भी झेलना पड़ता है। इसके लिए मुंह को कष्ट देना पड़ता है। दांतों और आंतों को इसके लिए मनाना पड़ता है!


यह तकलीफ़ हमें इस कारण भोगनी पड़ती है कि हमारा दिल है और दिमाग भी। शरीर में खून भी है और अंततः दिल चाहे न चाहे, दिमाग माने न माने, हमें मरना भी पड़ता है जबकि बताते हैं कि जैली फिश की कुछ प्रजातियों को तो मरने का कष्ट भी नहीं उठाना पड़ता! यह शरीर में‌‍ 95 तक पानी होने का यह कमाल है!

ऐसा सुखी-संतुष्ट जीव ही अजर-अमर होने की सभी अहर्ताएं रखते हैं। पृथ्वी का सबसे पुराना जीव होने का गौरव पाते हैं। डायनोसर से भी पुराने माने जाते हैं ,सात- आठ करोड़ वर्ष पुराने! भारी-भरकम डायनोसर तो फिर भी विलुप्त हो गए मगर 95 फीसदी पानी वाली जैली फिश करोड़ों वर्षों से दनादना रही है। प्राचीनता का भार सहज ही उठा रही है और देखिए इस 'महानता'  पर वह जरा भी इतराती नहीं!

और हमारे जैसे संकीर्ण लोग यह निष्कर्ष निकालते हैं कि मनुष्य हो या कोई और जीव, अगर उसके पास दिमाग है , दिल है, रीढ़ की हड्डी है और आंखें  हैं तो  देश के सबसे बड़ी तोप को भी, जंगल की सारी जड़ी- बूटियां खाकर भी , समस्त योग-भोग करके भी, अपने को जवान समझकर भी, आज नहीं तो कल बुढ़ापे से तंग होना ही पड़ता है, बीमारियों से  मुठभेड़ करनी ही पड़ती है! वह कितना ही अपने को अजर-अमर समझे, इसके लिए कितना भी कुछ  करता रहे, मंदिर-मंदिर,जय श्री राम,जय श्री राम करता रहे, कैलाश पर्वत पर फोटो खिंचवाता रहे, तो भी एक न एक दिन, किसी न किसी बहाने उसका भी हमारी तरह आखिरी हिसाब होकर रहता है!


संभव है कि दुनिया के बाकी देशों में ऐसी केवल मछलियां पाई जाती हों। हमारे यहां ऐसे मनुष्य अधिक पाए जाते हैं। देश की राजधानी दिल्ली में तो एक्सपोर्ट क्वालिटी के बहुत ही ज्यादा हैं! कुछ तो डायनासोर हो चुके हैं मगर इनमें भी केवल पानी ही पानी है। खून का एक कतरा तक नहीं। चूंकि ये राक्षसाकार हैं, जैली फिश के आकार के नहीं, इसलिए झूठ भी खूब आराम से बोलते हैं। दिल की बात करके दिल न होने की गवाही देते रहते हैं। कदम-कदम पर बिन मांगे, दिमाग की अनुपस्थिति के प्रमाण देते रहते हैं। खून क्या होता है,वे यह जानकर भी नहीं जानते। केवल सत्ता के पानी को जानते हैं और उसी नशे में दिन- रात डूबे रहते हैं। आज का अखबार देखिए। आज भी इसका सबूत आपको मिलेगा।

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