दुनिया ऐसा भारत चाहती है जो भयमुक्त हो

जापान के 60 साल बाद बुलेट ट्रेन चला लेने से दुनिया को प्रभावित नहीं किया जा सकता, इसके लिए जरूरी है कि भारत में निर्दोष लोगों पर हमला करने वालों को सजा मिले।

प्रो एमएम कलबुर्गी की हत्या का विरोध करते नागरिक/ फोटो: Getty Images
प्रो एमएम कलबुर्गी की हत्या का विरोध करते नागरिक/ फोटो: Getty Images
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राजमोहन गांधी

नेशनल हेराल्ड का कई वर्षों तक संपादन करने वाले आंध्र प्रदेश के जाने-माने पत्रकार एम चलपती राव (1910-83) को जानने का मुझे सौभाग्य मिला था। उन्हें याद करते हुए मैं यह उम्मीद करता हूं कि गांधी और नेहरू पर जो एक पतली सी अद्भुत किताब 'एमसी' ने आधी सदी पहले लिखी थी, वह फिर से प्रकाशित होगी। यह किताब हमारे आज के समय को लेकर भी प्रासंगिक है।

आज के चिंताजनक हालात को हमें कैसे देखना चाहिए? लोकतांत्रिक और मानव अधिकार (जीवन जीने का अधिकार भी) खतरे में हैं और इन अधिकारों के उल्लंघन के कई उदाहरण हैं। हमारे स्कूलों, कॉलेजों, विश्वविद्यालयों और मीडिया की स्वायत्तता को खत्म किया जा रहा है। भारतीय होने के नाते यह हमारे सरोकार का हिस्सा होना चाहिए।

पाकिस्तान और बांग्लादेश में कमजोर अल्पसंख्यकों और असहमत बुद्धिजीवीयों के ऐसे ही या इससे भी बुरे हालात का सामना करना पड़ रहा है। ऐसे में भारत के लिए जरूरी है कि वह अपने बुनियादी सिद्धांतों को नहीं छोड़े।

मेरे जैसे कई लोग जो आज जिंदगी के आठवें दशक में हैं, वे उन प्रभावशाली शब्दों से अच्छी तरह से परिचित हैं जो 70 साल पहले बीच अगस्त की एक मध्य रात्रि को जवाहर लाल नेहरू ने कहे थे:

हमें आजाद भारत का निर्माण एक ऐसे उत्कृष्ट घर के रूप में करना होगा जहां हमारे सभी बच्चे इत्मिनान से रह सकें। हवा चाहे जितनी तेज हो या आंधी कितनी भी तूफानी हो, हम इस स्वतंत्रता की मशाल को कभी बुझने नहीं देंगे। हम सभी समान अधिकारों, विशेषाधिकारों और दायित्वों के साथ समान रूप से भारत के बच्चे हैं, चाहे हम किसी भी धर्म से ताल्लुक रखते हों।

दो साल बाद 1949 में हमारे संविधान में इस पवित्र प्रतिज्ञा को स्थापित कर दिया गया। भारत बांग्लादेश और पाकिस्तान के लोगों के लिए भारतीय राज्य और भारतीय समाज को उस प्रतिज्ञा को फिर से दोहराना चाहिए।

एक वास्तविकता और है जो कई लोगों को नापसंद होगी। वर्तमान में नई दिल्ली में नरेंद्र मोदी की अगुवाई वाली सरकार न सिर्फ जनता के एक बड़े हिस्से में लोकप्रिय है, बल्कि उनकी पार्टी को बड़े पैमाने पर वित्तीय सहयोग मिल रहा है। इस बीच विपक्षी पार्टियां बिखरी हुई नजर आ रही है। ऐसी स्थिति में सिर्फ मोदी और भाजपा पर हमला करने की रणनीति उन्हें और मजबूत कर सकती है।

हर हमले की निंदा हो

भारत में किसी निर्दोष व्यक्ति पर हमले की जल्द से जल्द और बिना शर्त निंदा और उस पर कार्रवाई की मांग हमें करनी चाहिए। विपक्षी राजनीति का सारा ध्यान असहिष्णुता फैलाने वाले और डराने वाले समूहों को ध्वस्त करने की बजाय लोकतंत्र और सहिष्णुता के पुनर्निर्माण पर होना चाहिए। भीतर से कमजोर यह समूह एक दिन खुद ही ढह जाएगा।

साथ ही हमें आजादी के बाद बने लोकतंत्र के अधूरे पर अनमोल भवन के टूटने को स्पष्ट रूप से स्वीकार करना चाहिए। यह भवन खुद से अपना पुनर्निर्माण नहीं कर सकता। कड़ी मेहनत और धैर्य के साथ एक नए सिरे से इसका निर्माण करना होगा।

स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व पर आधारित लोकतंत्र और मानवाधिकारों में विश्वास रखने वाले सभी दलों और व्यक्तियों को इस कोशिश में अपना योगदान करना होगा। इसके लिए सबसे महत्वपूर्ण योगदान यह होगा कि वे अपने अहंकार का त्याग करें और भारत के लोगों को सुनें।

भारतीय लोगों के दिल और दिमाग में मच रहे उथल-पुथल को धैर्यपूर्वक सुनने वाले यह जान पाएंगे कि जनता के विश्वास का कैसे निर्माण किया जा सकता है। चूंकि, दूसरे देशों के लोगों की तरह भारतीयों की भी परस्पर विरोधी इच्छाएं हैं, इसलिए नागरिकों को भी पड़ोसियों की बात सुनने की जरूरत है। आज पड़ोसियों के बारे में हमारे पास राय है, पर जानकारी नहीं है। इसलिए नागरिकों और राजनीतिक नेताओं को सामंजस्य बनाने की आवश्यकता है।

यहां हमें डॉ. बी. आर. अम्बेडकर के चुनौतीपूर्ण विचारों के बारे में सोचना चाहिए: 'सामाजिक अत्याचार की तुलना में राजनीतिक अत्याचार कुछ भी नहीं है और सरकार की अवज्ञा करने वाले राजनीतिक नेता से ज्यादा साहसी समाज की अवज्ञा करने वाला सुधारक होता है।'

असहिष्णुता के इस दौर में, हमें विभिन्न मतों के बीच साझेदारी बनानी चाहिए। 1930 के दशक में भारत की आजादी के लिए हिंदुओं से हाथ मिलाने पर पख्तूनों ने जब ‘सीमांत गांधी’ खान अब्दुल गफ्फार खान पर हमला किया तो उन्होंने कहा था:

जब मैं जानता हूं कि वे ईश्वर (हिंदू) में विश्वास करते हैं तो ईश्वर में उनकी भक्ति हमारी तुलना में कैसे कम है? और आप हिन्दू-मुस्लिम एकता से निराश क्यों हैं? वहां के खेतों को देखिए। वहां रोपी गई फसल को एक निश्चित समय तक जमीन के नीचे रहना होता है। फिर यह अंकुरित होता है और एक समय के बाद अपनी तरह की सैकड़ों फसलों को जन्म देता है। एक अच्छे काम के लिए किए गए हर प्रयास के साथ भी ऐसा ही है।

आज दुनिया भर में भारतीय कामयाबी हासिल कर रहे हैं। जहां भी भारतीय रहते हैं, वे दूसरे लोगों की बेहतरी के लिए भी अपना योगदान देते हैं। लेकिन, हमें यह ढोंग नहीं करना चाहिए कि भारत की एक चमचमाती वैश्विक छवि है। जापानियों द्वारा पहली बुलेट ट्रेन चलाने के 60 साल बाद अब भारत में इसे चलाकर दुनिया को प्रभावित नहीं किया जा सकता, जब दुनिया को भारतीय जमीन पर कमजोर और निर्दोष लोगों पर हो रहे हमलों की जानकारी है।

भारतीय राज्य और समाज में कमजोरियों के बावजूद दुनिया के लिए भारत एक जरूरी देश है। 75 वर्ष पहले जब गांधी ने भारत छोड़ो आंदोलन(अगस्त 1942) की शुरुआत की थी तो उन्होंने कहा था कि वह चाहते हैं कि भारत की विशाल मानव शक्ति विश्व मुक्ति में आहूति दे। जनवरी 1948 में अपनी हत्या से 18 दिन पहले गांधी ने कहा था: 'भारत की आत्मा के नष्ट होने का का अर्थ, दर्द में डूबी, मुसीबत की मारी और भूखी दुनिया की आशा का अंत होना है।'

भारत की आत्मा क्या है और हम इसे कैसे खो सकते हैं या फिर से हासिल कर सकते हैं? इसका जवाब टैगोर की कविता में है जिसमें वह ऐसी जगह की इच्छा व्यक्त करते हैं, जहां मन निर्भय हो
और सिर ऊंचा। भारत की आत्मा एक ऐसे राष्ट्र के विचार में भी दिख सकती है जहां हर भारतीय दूसरे भारतीय की परवाह करता हो, जहां कोई ऊंच-नीच न हो, और जहां लोगों के विचार जबरन दबाए नहीं जाते।

ऐसे भारत के लिए किसी भी ईमानदार प्रयास का दुनिया भर में स्वागत होगा। हमें चमत्कार करने वाले नेताओं का इंतजार करने की जरूरत नहीं है। इसके लिए लोकतंत्र और मानव अधिकारों से प्यार करने वाला कोई भी व्यक्ति कदम उठा सकता है, चाहे वह किसी राजनीतिक दल से हो या न हो।

हम व्यक्तियों के बजाय सिद्धांत और नीतियों को स्थापित कर सकते हैं। हम उन पुरुषों और महिलाओं को प्रोत्साहित कर सकते हैं जो अपने अहंकार को नहीं, बल्कि अपने साथियों को बढ़ावा देते हैं। हम विभिन्न राजनीतिक दलों के बीच एकता को प्रोत्साहित कर सकते हैं, बशर्ते वे स्वतंत्रता, समानता और भाईचारे के सिद्धांत का पालन करें।

और जब भी किसी की ज़िंदगी या मौलिक अधिकार को कुचला जाए तो हम आवाज उठा सकते हैं। अगर हम ये सब कर सके तो लोकतंत्र की उम्मीद जगाने वाला मंच बिना देरी के सामने नजर आने लगेगा।

(लेखक इतिहासकार और अमेरिका के यूनिवर्सिटी ऑफ इलिनोइस में रिसर्च प्रोफेसर हैं)

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Published: 17 Aug 2017, 2:13 PM