सिनेमा

सरकार की बैसाखी हर बार सफलता की गारंटी नहीं, ‘सम्राट पृथ्वीराज’ और ‘धाकड़’ के हश्र से साफ

कश्मीर फाइल्स निश्चित तौर पर एक अनुकरणीय मॉडल नहीं है। सरकारी समर्थन हर बार किसी फिल्म की सफलता का आश्वासन नहीं हो सकता। तो यहां से राजनीति और चलचित्र (फिल्मी दुनिया) की साझेदारी अब किस ओर जाएगी? राष्ट्र निश्चित तौर पर यह जानना चाहता है!

फोटोः सोशल मीडिया
फोटोः सोशल मीडिया 

साल 2008 में ‘सिंह इज किंग’ की रिलीज के वक्त एक पत्रिका में मैंने अक्षय कुमार को ‘क्राउन प्रिन्स’ कहा था। डेढ़ दशक हो गए, सबने देखा कि अक्षय किस तरह प्रिन्स से आगे जाकर बॉलीवुड के किंग बने। हर बड़़ी थाली सबसे पहले उन्हीं के सामने से गुजरी। कुछ ऐसा जिसकी सहज कल्पना नहीं थी। एक सेलेब्रेटी पत्रकार की भूमिका तैयार हुई तो अक्षय कुमार दिखे। पहली बार किसी फिल्मी शख्सियत को प्रधानमंत्री का इंटरव्यू करने का अवसर मिला जहां वे आम खाने के तरीकों पर बात करते दिखे!

अभी अपनी फिल्म के प्रोमोशन में अक्षय इतना उत्साहित हो गए कि अंतिम हिन्दू सम्राट पृथ्वी राज चौहान को इतिहास के पन्नों पर कम जगह मिलने के दर्द के साथ इतिहास फिर से लिखने की जरूरत बता डाली जिसके बाद उन्हें ‘हिन्दुत्व की वाट्सएप यूनिवर्सिटी’ के प्रोफेसर की उपाधि तक से नवाजा गया। अक्षय का इतिहास बोध यहीं तक रुकता तब भी ठीक था, उन्होंने तो वाराणसी के ज्ञानवापी मसले में भी ज्ञान दे डाला कि ‘देखने में तो यह शिवलिंग ही लगता है’, गोया कोई पुरातत्वविद हों।

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कहने में गुरेज नहीं कि अक्षय स्टारडम का इस्तेमाल करते हुए, बहुसंख्यकवाद के एजेंडे को आगे बढ़ाने की ऐसी बेशर्मी पर न उतरते, तो शायद उनकी फिल्म का इतना बुरा हश्र न होता। अक्षय अपनी फिल्म के खुद ‘भस्मासुर’ साबित हुए। जिस पृथ्वीराज की टीम के हवन का खूब हल्ला मचा, बॉलीवुड के तीनों खान को निशाने पर लिया गया, कहा गया कि उनका नायक (अक्षय) आखिरकार ‘वीर हिन्दू राजा’ को उसका हक दिलाने जा रहा है। लेकिन समझ में नहीं आया कि फिल्म रिलीज होने के नाजुक अवसर पर चहेतों की यह विशाल सेना कहां गायब थी?

कुछ सप्ताह पूर्व ‘सत्ता प्रतिष्ठान की मल्लिका’ के साथ भी ऐसा ही हुआ था। कंगना रनौत की ‘धाकड़’ अपने धाकड़ नाम के बावजूद कुछ न कर सकी। रिलीज के आठवें दिन पूरे देश में हास्यास्पद रूप से इसकी महज बीस टिकटें बिकीं और उस दिन की पूरी कमाई महज साढ़े चार हजार रुपये पर अटक गई। यह संभवतः किसी फिल्म को महाफ्लॉप के तमगे के साथ सबसे कम कमाई का भी रिकार्ड होगा।

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कुमार की तरह ही कंगना की दुनिया भी 2015 तक अलग थी। ‘तनु वेड्स मनु रिटर्न्स’ की सफलता से तरोताजा कंगना से खार वाले उनके पेंटहाउस में मिलना जड़ों से जुड़़ी, आजाद खयाल किसी अति उत्साही लड़की से मिलने जैसा था। तब हमने उन्हें ‘बर्र के छत्ते में लात मारने वाली लड़की’ कहा था। वास्तव में यह सही भविष्यवाणी थी! भाजपा का ‘शुभंकर’ बनकर वह यही तो कर रही हैं। धर्म, लिंग, मानसिक स्वास्थ्य या किसी भी मुद्दे पर सोशल मीडिया पर उनका इस्लामोफोबिया, कट्टरता और नफरती अभियान ऐसा चला कि ट्विटर को उनका अकाउंट सस्पेंड करना पड़़ा। बड़बोलेपन में यहां तक लिख गईं कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को अब ‘2000 की शुरुआत वाला विराट रूप’ दिखाना चाहिए।

इन दोनों सितारों के जीवन में बीते आठ साल के दौरान आए बदलावों पर किसी को भी आश्चर्य होगा! क्या यह सब आनायास हो गया? इसके लिए 2014 में झांकना पड़़ेगा। जनता का लोकप्रिय कॉमेडी किंग और एक्शन हीरो सत्ता की छत्रछाया में भारत के एक ‘नव देशभक्त’ के रूप में परिवर्तित होने लगा। कभी जिसे सड़क छाप मनोरंजन कहकर खारिज किया जाता था, अचानक ‘सोना’ दिखने लगा। अक्षय ने वास्तव में दिल्ली के चांदनी चौक- 1180, छत्ता मदनगोपाल, पराठे वाली गली से लेकर सीधे-सीधे कहें तो रायसीना रोड तक एक लंबा सफर तय किया है।

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हिमाचल के एक छोटे कस्बे से आईं, खराब लहजे वाली रनौत की विकास यात्रा भी इससे बहुत अलग नहीं है। हालांकि राजनीतिक चकाचौंध में डूबने से पहले वह भी स्टार तो बन ही चुकी थीं। बॉलीवुड, मीडिया, ट्रेंड और दर्शकों की इसमें बड़़ी भूमिका रही। वे हमेशा उसकी गाते रहे जो उठता है, उसकी बजाते हैं जो उतरता है।

कुमार और रनौत कब इस मामले में सत्ता के गलियारे में उतर एक नई दुनिया में प्रवेश कर गए, पता ही नहीं चला। खूबसरती के साथ अपार अभिनय संभावना वाली कंगना तो असल में ‘खतरनाक बरैया’ साबित हुईं। इनकी फिल्में सत्ता प्रतिष्ठान से गलबहियां करती नजर आईं। देश में चलाए जा रहे नैरेटिव के अनुरूप वे राज्य के टूलकिट साबित हुए। कुमार तो अपनी फिल्मों के जरिये इस्लामोफोबिया, हिन्दू बहुलवाद, अंधराष्ट्रीयता, अच्छा मुस्लिम-बुरा मुस्लिम जैसे विभाजन फैलाने में आगे रहे हैं। टॉयलेट-एक प्रेम कथा, मिशन मंगल जैसी फिल्में सरकारी प्रचार का नमूना मात्र हैं। मणिकर्णिका और थलाइवी को आप कहां रखेंगे! कंगना की हालिया रिलीज ये फिल्में पुनरुत्थानवाद की बासी चाशनी का बड़़ा प्रतीक हैं।

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दरअसल यह उस ‘बॉलीवुड की सफाई’ का इनका अपना अंदाज था जो देश में तेजी से बदलते परिदृश्य में भी अपनी उदार, धर्मनिरपेक्ष छवि और रचनात्मक आजादी के लिए ख्यात रहा है। तो ऐसे में इस बार अक्षय और कंगना के लिए ऐसा क्या गलत हो गया कि इतनी ‘सेवा’ करने के बावजूद उन्हें यह हश्र देखना पड़़ा। रनौत के बारे में मेरा मानना है कि वह अपने चरम पर पहुंच चुकी हैं। दर्शक उनके असल श्रीमुख से इतना कुछ जहर देख-सुन चुका है कि उसे उनकी फिल्मों में भी यही सब देखने की दरकार नहीं रही।

ऐसे में बड़़ा सवाल है कि ‘इस्तेमाल करो और फेंक दो’ वाली संस्कृति के मौजूदा दौर में कंगना रजनीतिक रूप से कितना महत्व हासिल कर पाएंगी क्योंकि यहां पतन भी उतनी ही तेजी से होता है जितना किसी उल्कापिंड जैसा उदय। अक्षय को अभी लंबा रास्ता तय करना है। कल की एक ब्लॉक बस्टर उनका ग्राफ फिर से संवार सकती है। लेकिन सुशांत सिंह राजपूत मामले से लेकर कोविड जनित मंदी, तमिल, तेलुगू-कन्नड़ ब्लॉक बस्टर फिल्मों के उदय के बीच बॉलीवुड का पूरा खेल जिस तरह बदला है, उसमें आसानी से बदलाव संभव नहीं है। फिल्म उद्योग सिर्फ पैसा देखता है और बिजनेस जानता है। अक्षय अब तक उसकी आंख का तारा रहे हैं तो अब उसने यश और अल्लू अर्जुन के लिए कसीदे पढ़ने शुरू कर दिए हैं, भूलना नहीं चाहिए।

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ऐसे में राजनीति की बैसाखी थाम किसी चमत्कारिक सुधार की सम्भावना तलाशने के बजाय अपने दो पैरों पर खड़े होकर आगे बढ़ने की जरूरत है। क्योंकि इनके व्यक्तिगत भविष्य के अलावा जो सबसे ज्यादा साफ दिखता है, वह यह कि अगर राजनीतिक भविष्य अनिश्चयपूर्ण है, तो फिल्म निर्माण उससे भी ज्यादा अस्थिरता वाला है। अमित शाह और योगी आदित्यनाथ के साथ हाथ जोड़ मुद्रा में अक्षय कुमार के फोटो बहुत कुछ कहते हैं। लेकिन यह मुद्रा आपकी फिल्म को टैक्स फ्री तो करा सकती है, निवेश पर रिटर्न की गारंटी नहीं दे सकती। दर्शक तो नहीं ही दे सकती है। कश्मीर फाइल्स निश्चित तौर पर एक अनुकरणीय मॉडल नहीं है। सरकारी समर्थन हर बार किसी फिल्म की सफलता का आश्वासन नहीं हो सकता। तो यहां से राजनीति और चलचित्र (फिल्मी दुनिया) की साझेदारी अब किस ओर जाएगी? राष्ट्र निश्चित तौर पर यह जानना चाहता है!

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