सिनेमा

‘मोहल्ला अस्सी’: देर से रिलीज हुई, लेकिन कहीं ज्यादा प्रासंगिक और शानदार फिल्म

भगवान शिव और गंगा नदी भी फिल्म के दो अहम् किरदार हैं, जिन पर लगातार बात होती है। इन दोनों पर हमारी आस्था, इनसे चलता हमारा कारोबार और राजनीति आपस में इतने गुंथे हुए हैं कि इन सबके बीच हमारे भीतर उस आस्था का जो संस्कार है, उसे बचाए रखना मुश्किल जान पड़ता है।

फोटोः सोशल मीडिया
फोटोः सोशल मीडिया देर से रिलीज हुई एक बेहद प्रासंगिक और शानदार फिल्म है ‘मोहल्ला अस्सी’

‘ठग्स ऑफ हिन्दुस्तान’ की ’भव्य’ असफलता के बाद आई ‘मोहल्ला अस्सी’ एक सीधी-सरल, लेकिन जमीन से जुडी बहुआयामी कहानी लिए एक बेहतरीन फिल्म है। हिंदी के प्रसिद्ध लेखक काशीनाथ सिंह के उपन्यास ‘काशी का अस्सी’ पर आधारित इस फिल्म की कहानी बनारस के अस्सी घाट के ब्राह्मण बहुल इलाके में रहने वाले एक पंडित के इर्द-गिर्द घूमती है, जो अपने परिवेश में समय के साथ-साथ आ रहे बदलाव को आत्मसात नहीं कर पाता। हालांकि ये फिल्म एक अरसे के बाद सेंसर बोर्ड से मंजूरी मिलने पर रिलीज हुई, लेकिन आज यह और भी प्रासंगिक दीख पड़ती है।

‘मोहल्ला अस्सी’ बनारस के एक पंडित धर्मनाथ पांडे (सन्नी देओल) की शख्सियत में बदलाव के सफर की कहानी है। किस तरह बाजार के बढ़ते असर से खुद को आस्था के नाम पर दूर रखने की कोशिश करने वाले व्यक्ति का सामना जीवन की मूल जरूरतों को पूरा करने की लड़ाई से होता है और वह कैसे अपनी आस्था को बरकरार रखते हुए इस बदलाव को आत्मसात करता है और आध्यात्मिक तौर पर एक बेहतर और उदार शख्स के तौर पर उभरता है।

इस सीधी-सादी कहानी का एक अहम हिस्सा है पप्पू की चाय की दूकान, जहां लेखकों, राजनीतिक-सामाजिक कार्यकर्ताओं, पंडितों और वकीलों जैसे शहर के तमाम लोगों का जमावड़ा लगता है। वहां उनके बीच देश के राजनीतिक-सामाजिक हालात पर गरमा-गर्म बहसें होती हैं। काशीनाथ सिंह का उपन्यास नुक्कड़ पर चाय और बहस की इस संस्कृति को बहुत जीवंत रूप से दिखलाता है। फिल्म में शायद इन चर्चाओं में उतनी जीवन्तता नहीं महसूस होती है। हालांकि, निर्देशक चंद्रप्रकाश द्विवेदी ने बनारसी भाषा की रग को बेहद अच्छी तरह समझा है और कुछ ऐसी गालियों का इस्तेमाल किया है जो एक ठेठ बनारसी के लिए गालियां नहीं, बल्कि बोलने का अंदाज है।

ये चर्चाएं दरअसल हमारे देश की आत्मा और लोगों की एक झलक दिखलाती हैं, जो धार्मिक आस्था पर आधारित बहुत सारी भावनाओं में बह तो जाते हैं, लेकिन अमूमन स्वभाव में बहुत सहनशील और मिलजुल कर रहने वाले हैं।

फिल्म 90 के दशक की बात करती है, जब देश मंडल कमीशन, अयोध्या के बाबरी मस्जिद-राम मंदिर विवाद, वी पी सिंह की सरकार और चंद्रशेखर के प्रधानमंत्री बनने के बीच तमाम तरह की डांवाडोल परिस्थितियों से गुजर रहा था। देश में धार्मिक उन्माद जोरों पर था।

इस बीच पांडे जी फैसला करते हैं कि वो कार सेवकों के साथ अयोध्या जाएंगे राम मंदिर के निर्माण के लिए। उनकी पत्नी आगाह करती है कि इस झमेले में उनकी जान को भी खतरा हो सकता है। लेकिन पांडे जी तैश में जवाब देते हैं कि ये उनकी आस्था और देश के सम्मान की बात है।

उधर, चाय की दूकान पर चर्चा के दौरान ये बात भी उठाई जाती है कि राम अयोध्या में ही जन्मे थे, इसका तो कोई प्रमाण नहीं है और फिर जब राम हमारे देश ही नहीं, इस पूरी धरती के कण-कण में मौजूद हैं तो फिर अयोध्या में ही मंदिर बनाने की बात पर क्यों अड़ा जाए?

बहरहाल, पांडे जी कार सेवकों के साथ जाते हैं, पुलिस की गोली खाते हैं और एक ‘हीरो’ बन कर वापस लौटते हैं। लेकिन वक्त के साथ-साथ पांडे जी को एहसास होता है कि अगर वे नहीं बदलेंगे और अपने मकान में विदेशी किरायदारों को रख कर पैसा नहीं कमाएंगे तो जीवन की जिम्मेदारियों को नहीं निभा पाएंगे। लिहाा एक दिन वह फैसला करते हैं कि अपने मकान में वह किसी विदेशी को किराये पर रखेंगे। अब समस्या आती है मंदिर की जगह पर विदेशी महिला किरायेदार के लिए कमरा बनाने की। ऐसे में उन्हें सपने में शिव जी के दर्शन होते हैं और वे कहते हैं, “मुझे तो खुली छत पर रहना बेहतर लगता है और फिर मैंने इंसान बनाए हैं हिन्दू, मुसलमान या ईसाई तो तुमने बनाए हैं, तो इंसानों में क्या फर्क करना?”

पांडे जी दिल पर पत्थर रख कर अपने मंदिर की जगह विदेशी किरायेदार के लिए कमरा बनाते हैं। लेकिन उनके इस फैसले से बस्ती के और ब्राह्मण जो उनके डर से विदेशी किरायेदारों को घर पर नहीं रख रहे थे, वे भी अपने-अपने सपनों का हवाला देकर घर में रखे शिव लिंग को उठा कर बाहर स्थापित कर देते हैं। इस पूरी विडंबनापूर्ण सिचुएशन को हास्य के पुट के साथ निर्देशक ने बेहद कुशलता से परदे पर उतारा है।

मामला इतना गर्म हो जाता है कि इस मुद्दे पर धर्म संसद बैठती है, जिसमें एक ब्राह्मण वर्ग घरों से शिव लिंग को बाहर स्थापित करने के खिलाफ है। लेकिन बात इस तथ्य पर आकर ठहर जाती है कि जब ईश्वर और भोले बाबा कण-कण में व्याप्त हैं तो उनके मंदिर को घर में ही सीमित करना कहां की धार्मिकता है? पांडे जी की मानसिकता में ये बदलाव दरअसल आम भारतीय की मानसिकता को प्रतिबिंबित करता है, जो हमेशा एक घिसी-पिटी संकीर्ण श्रद्धा और उदारतापूर्ण समावेशी आस्था के बीच डोलता रहता है।

पप्पू की चाय की दूकान पर भीड़ लगाने वाले कुछ और किरदार भी हैं, जिन्हें सिनेमा और थियेटर के वरिष्ठ अभिनेताओं ने निभाया है, लेकिन वे महज फिल्म के किरदारों के तौर पर ही हैं, अभिनय की दृष्टि से कुछ खास करने लायक उनकी भूमिकाओं में नहीं है। हालांकि इसके बावजूद फिल्म में उनके बोले कुछ संवाद काफी जोरदार हैं।

जब चाय की दूकान पर एक अमेरिकी महिला कहती है कि वाराणसी मर रहा है, तो वह बिलकुल गलत नहीं कहती है और उसकी बात से लोगों में जो गुस्सा उठता है, ये वही रोष है जो हम आज महसूस करते हैं। क्योंकि हम असलियत को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं हैं।

Published: 16 Nov 2018, 9:53 PM IST

साक्षी तंवर एक मंझी हुई अभिनेत्री हैं, इसमें कोई शक नहीं। लेकिन सनी देओल पांडे जी की भूमिका में अपने खालिस हिंदी और संस्कृत के उच्चारण से हैरान करते हैं, क्योंकि ये उनकी पहले से बनाई गई ‘पंजाबी जाट’ की इमेज से बिलकुल अलग है और बेशक उन्होंने इस किरदार के लिए काफी मेहनत भी की है।

भगवान शिव और गंगा नदी भी फिल्म के दो अहम् किरदार हैं, जिन पर लगातार बात होती रहती है। इन दोनों पर हमारी आस्था, इनसे चलता हमारा कारोबार और राजनीति एक-दूसरे से इतना गुंथे हुए हैं कि इन सबके बीच हमारे भीतर उस आस्था का जो संस्कार है, जो बहुत उदार, सर्व समावेशी और बहुत व्यक्तिगत भी है, उसे बचाए रखना मुश्किल जान पड़ता है। अब ये बात पहले से कहीं ज्यादा याद रखना जरूरी हो गया है।

Published: 16 Nov 2018, 9:53 PM IST

Google न्यूज़नवजीवन फेसबुक पेज और नवजीवन ट्विटर हैंडल पर जुड़ें

प्रिय पाठकों हमारे टेलीग्राम (Telegram) चैनल से जुड़िए और पल-पल की ताज़ा खबरें पाइए, यहां क्लिक करें @navjivanindia

Published: 16 Nov 2018, 9:53 PM IST