अर्थतंत्र

तेल के खेल में परदे के पीछे अमेरिका-रूस के बीच तकरार, तेज हुई वर्चस्व की लड़ाई

कोरोनावायरस के प्रकोप के चलते वैश्विक अर्थव्यवस्था पर मंदी के खतरे की आशंकाओं के कारण कच्चे तेल की घटती मांग के बीच तेल बाजार पर वर्चस्व की लड़ाई एक बार फिर तेज हो गई है। जानकार बताते हैं कि तेल के इस खेल में असल किरदार अमेरिका और रूस हैं।

फोटो: IANS
फोटो: IANS 

कोरोनावायरस के प्रकोप के चलते वैश्विक अर्थव्यवस्था पर मंदी के खतरे की आशंकाओं के कारण कच्चे तेल की घटती मांग के बीच तेल बाजार पर वर्चस्व की लड़ाई एक बार फिर तेज हो गई है। तेल निर्यातक देशों के समूह ओपेक द्वारा कच्चे तेल के उत्पादन में कटौती कर बाजार में संतुलन बनाने के लिए रूस को मनाने में विफल रहने के बाद ओपेक के प्रमुख सदस्य सऊदी अरब ने सस्ते दाम पर तेल बेचने का फैसला लिया, जिसके कारण दाम सोमवार को टूटकर फरवरी 2016 के निचले स्तर पर आ गया। हालांकि जानकार बताते हैं कि तेल के इस खेल में असल किरदार अमेरिका और रूस हैं।

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ऊर्जा विशेषज्ञ नरेंद्र तनेजा ने आईएएनएस को बताया कि तेल के दाम में गिरावट का सबसे ज्यादा असर अमेरिका पर होगा, जिसके शेल से तेल का उत्पादन महंगा होता है। उन्होंने कहा कि तेल बाजार पर वर्चस्व की लड़ाई असल में अमेरिका और रूस के बीच है, क्योंकि रूस में तेल की औसत उत्पादन लागत कम है, जबकि अमेरिका की औसत उत्पादन लागत अधिक है और अमेरिका दुनिया का सबसे बड़ा तेल उत्पादक बनकर उभरा है।

उन्होंने बताया कि अमेरिका में शेल से तेल उत्पादन की औसत लागत करीब 40 डॉलर प्रति बैरल है, जबकि रूस में उत्पादन लागत इससे काफी कम है। उन्होंने बताया कि दुनिया में तेल की उत्पादन लागत सबसे कम है, लेकिन अमेरिका में तेल की उत्पादन लागत अधिक होने से वहां के उत्पादकों को तेल के दाम में गिरावट से नुकसान होगा।

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तनेजा ने कहा, "रूस में तेल के कुंए जमीन और समुद्र दोनों में हैं, जबकि सऊदी अरब में ज्यादातर तेल जमीन से आता है। समुद्र से तेल का उत्पादन महंगा होता है, जबकि जमीन से उत्पादन सस्ता होता है।"

केडिया एडवायजरी के डायरेक्टर अजय केडिया ने बताया कि तेल बाजार पर वर्चस्व की लड़ाई में असल तकरार अमेरिका और रूस के बीच है, क्योंकि दाम घटने का सबसे बड़ा नुकसान अमेरिका को ही होने वाला है।

ऊर्जा विशेषज्ञ बताते हैं कि सऊदी अरब द्वारा तेल की कीमतों को लेकर छेड़ी गई जंग में ओपेक के अन्य सदस्य देशों को भी भारी नुकसान का सामना करना पड़ेगा, जहां तेल की उत्पादन लागत अधिक है।

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कोरोनावायरस का प्रकोप चीन के बाहर दुनिया के अन्य देशों में फैलने से वैश्विक अर्थव्यवस्था पर मंदी का खतरा बना हुआ है। चीन तेल का एक बड़ा उपभोक्ता है, जहां कोरोनावायरस ने इस कदर कहर बरपाया है कि वहां के उद्योग-धंधे और परिवहन व्यवस्था बुरी तरह प्रभावित हुई है। लिहाजा तेल की मांग घटने और कीमत जंग छिड़ने के कारण सोमवार को अंतर्राष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल के दाम में पिछले सत्र के मुकाबले 30 फीसदी से ज्यादा की गिरावट दर्ज की गई, जोकि 1991 के खाड़ी युद्ध के बाद की सबसे बड़ी गिरावट है।

इंटरकांटिनेंटल एक्सचेंज (आईसीई) ब्रेंट क्रूड के मई अनुबंध में पिछले सत्र से 21.69 फीसदी की गिरावट के साथ 35.45 डॉलर पर कारोबार चल रहा था, जबकि इससे पहले ब्रेंट क्रूड का दाम 31.27 डॉलर प्रति बैरल तक गिरा, जोकि 12 फरवरी, 2016 के बाद का सबसे निचला स्तर है जब भाव 30.85 डॉलर प्रति बैरल पर आ गया था। बता दें कि 11 फरवरी, 2016 को ब्रेंट क्रूड का भाव 29.92 डॉलर प्रति बैरल तक टूटा था।

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न्यूयॉर्क मर्के टाइल एक्सचेंज यानी नायमैक्स पर अप्रैल डिलीवरी अमेरिकी लाइट क्रूड वेस्ट टेक्सास इंटरमीडिएट (डब्ल्यूटीआई) के अनुबंध में 22.65 फीसदी की गिरावट के साथ 31.93 डॉलर प्रति बैरल पर कारोबार चल रहा था, जबकि इससे पहले डब्ल्यूटीआई का भाव 27.34 डॉलर प्रति बैरल तक गिरा। बता दें कि 11 फरवरी, 2016 को डब्ल्यूटीआई का दाम 26.05 डॉलर प्रति बैरल तक गिरा था।

एंजेल ब्रोकिंग के (एनर्जी और करेंसी रिसर्च) के डिप्टी वाइस प्रेसीडेंट अनुज गुप्ता ने बताया कि तेल के उत्पादन में कटौती को लेकर ओपेक और रूस के बीच सहमति नहीं बनने के बाद सऊदी ने प्राइस वार छेड़ दिया है। उन्होंने बताया कि मौजूदा परिस्थिति में कच्चे तेल के दाम में और गिरावट देखने को मिल सकती है।

अंतर्राष्ट्रीय बाजार में तेल के दाम में आई इस गिरावट के कारण भारतीय वायदा बाजार मल्टी कमोडिटी एक्सचेंज (एमसीएक्स) पर कच्चे तेल के मार्च अनुबंध में पिछले सत्र के मुकाबले 762 रुपए यानी 24.12 फीसदी की गिरावट के साथ 2397 डॉलर प्रति बैरल पर कारोबार चल रहा था, जबकि इससे पहले एमसीएक्स पर कच्चे तेल का दाम 2,151 रुपये प्रति बैरल तक गिरा।

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