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मोदी सरकार का आयुष्मान भारत साबित हुआ छलावा, निजी कंपनियों को लाभ पहुंचाने के खेल में पीछे छूटे गरीब

पीएम मोदी के सत्ता संभालने के बाद जर्मन कंसल्टेंसी फर्म जीआईजेड नीतिगत मामलों में सक्रिय भूमिका निभा रही है। जीआईजेड पर सरकार की नीतियों को प्रभावित करने और नियमों में फेरबदल के जरिए भ्रष्टाचार को बढ़ावा देने के आरोप लगे हैं।

फोटोः सोशल मीडिया
फोटोः सोशल मीडिया 

आयुष्मान भारत योजना जब लॉंच की गई, तो इसे ‘मोदी केयर’ कहा गया। दरअसल, योजना की शुरुआत करते समय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा था, “देश के 50 करोड़ से ज्यादा भाई-बहनों को 5 लाख रुपये तक का हेल्थ इन्श्योरेंस देने वाली यह दुनिया की सबसे बड़ी योजना है। पूरी दुनिया में सरकारी पैसे से इतनी बड़ी योजना किसी और देश में नहीं चल रही है। इस योजना के लाभार्थियों की संख्या पूरे यूरोपियन यूनियन की कुल आबादी के बराबर है।” सुनने में तो यह सब बहुत अच्छा लगता है, लेकिन इस योजना में निजी कंपनियों को फायदा पहुंचाने के लिए नियमों में जिस तरह हेरफेर किया गया, उससे मकसद ही विफल हो गया।

सूत्रों के अनुसार, निजी कंपनियों को फायदा पहुंचाने की योजना आयुष्मान की लॉन्चिंग से पहले ही तैयार कर ली गई थी। योजना के ऐलान से छह महीने पहले 7 मई, 2018 को प्रधानमंत्री कार्यालय में आयुष्मान भारत को अंतिम रूप देने के मकसद से बैठक बुलाई गई। इसमें प्रधानमंत्री मोदी के अलावा उनके प्रमुख सचिव नृपेन्द्र मिश्रा, नीति आयोग के सीईओ अमिताभ कांत, केंद्र सरकार की स्वास्थ्य सचिव प्रीति सुदान, आयुष्मान भारत के सीईओ इंदु भूषण और डिप्टी सीईओ दिनेश अरोरा शामिल थे। एक उच्चस्तरीय सूत्र ने नाम नहीं छापने की शर्त पर नवजीवन को बताया कि बैठक में प्रेजेंटेशन में तथ्यों को तोड़-मरोड़कर पेश किया गया, जानकारी छिपाई गई और सरकारी हेल्थ इंश्योरेंस कंपनियों की नकारात्मक छवि पेश की गई, ताकि इस विशाल योजना में निजी कंपनियों की भागीदारी सुनिश्चित की जा सके।

उदाहरण के लिए, डिप्टी सीईओ दिनेश अरोरा के प्रेजेंटेशन में उत्तराखंड का हवाला देते हुए कहा गया कि सरकारी क्षेत्र की बीमा कंपनियों ने वहां लागू मुख्यमंत्री स्वास्थ्य योजना के लिए 1,197 रुपये प्रति वर्ष का प्रीमियम कोट किया है। जबकि सच्चाई यह है कि बोली में शामिल सरकारी क्षेत्र की कंपनी नेशनल इन्श्योरेंस ने केवल 399 रुपये का प्रीमियम कोट किया था। इसी तरह महाराष्ट्र के बारे में अरोरा ने बताया कि वहां सरकारी क्षेत्र की कंपनियों ने प्रीमियम की लागत 760 से बढ़ाकर 1570 रुपये कर दी है। यह आंशिक सच है क्योंकि हेल्थ पैकेज में कई और सुविधाएं जोड़ने पर राशि में बढ़ोतरी की गई थी। लेकिन सुविधाओं की बात अरोरा ने प्रेजेंटेशन के दौरान छिपा ली।

इतना ही नहीं अरोरा ने राज्य सरकारों पर ट्रस्ट मॉडल के जरिये योजना के क्रियान्वयन करने और थर्ड पार्टी एडमिनिस्ट्रेशन (टीपीए) की नियुक्ति का भी दबाव बनाया। हालांकि इसका सीधा संबंध निजी कंपनियों को फायदा पहुंचाने से नहीं है। लेकिन इसका अंत भी भ्रष्टाचार में हुआ है। खेल यह हुआ कि राज्य सरकारों ने थर्ड पार्टी एडमिनिस्ट्रेशन का ज्यादातर काम बीजेपी सरकारों के करीबी लोगों को दे दिया। विशेषज्ञों के मुताबिक, सरकारी-निजी क्षेत्र की इन्श्योरेंस कंपनियां पूरी तरह से जांच-पड़ताल के बाद ही बीमा दावों का भुगतान करती हैं, जबकि ट्रस्ट मॉडल के तहत ऐसा मुमकिन नहीं। वजह ये है कि आमतौर पर राज्य सरकारों के पास ऐसी कोई व्यवस्था ही नहीं होती है, जिससे वो हर दावे की जांच पड़ताल कर सकें। ऐसा पाया गया है कि ट्रस्ट मॉडल के तहत फर्जी क्लेम भारी संख्या में किए जाते हैं और उनका भुगतान भी करवा लिया जाता है।

स्वास्थ्य के क्षेत्र में काम करने वाले एक संगठन के कार्यकर्ता ने बताया कि ट्रस्ट मॉडल के तहत फर्जी क्लेम भारी संख्यामें किए जाते हैं और उनका भुगतान भी आमतौर पर राज्य सरकारों की ओर से बिना किसी पड़ताल के किया जाता है। ट्रस्ट मॉडल के तहत राज्य सरकारें एक ट्रस्ट का गठन करती हैं और बीमा के लिए बजट आवंटित करती हैं। इंश्योरेंस मॉडल के विपरीत राज्य सरकारें खुद इंश्योरेंस कंपनी की भूमिका का निर्वहन करती हैं। व्यवहार में आमतौर पर यह पाया गया है कि बिना किसी जांच-पड़ताल के मनमानी तरीके से ट्रस्ट मॉडल के तहत क्लेम का भुगतान किया जाता है।

7 मई, 2018 की बैठक इसलिए भी महत्वपूर्ण थी कि इसमें ही सब कुछ तय किया जाना था। हुआ भी यही। प्रधानमंत्री कार्यालय के निर्देश पर बनाई गई चार वरिष्ठ केंद्रीय मंत्रियों वाली कमेटी की सिफारिशों को दरकिनार कर दिया गया। नितिन गडकरी के नेतृत्व वाली इस कमेटी में जेपी नड्डा, पीयूष गोयल और राधामोहन सिंह शामिल थे। वैसे, इस कमेटी ने भी तय किया था कि पहली प्राथमिकता ट्रस्ट मॉडल को दी जाएगी। लेकिन दूसरी प्राथमिकता सरकारी क्षेत्र की कंपनियों को देने और अंतिम प्राथमिकता ओपन टेंडरिंग को देने की बात थी जिसके तहत निजी क्षेत्र की कंपनियां भी इस योजना में शामिल हो सकेंगी। लेकिन राज्य सरकारों से जानबूझकर दूसरी प्राथमिकता को छिपाया गया। नतीजतन, निजी कंपनियों को घुसपैठ का पूरा मौका मिला। एक जरूरी बात ये है कि नियमों के अनुसार केंद्रीय मंत्रियों की कमेटी की सिफारिशें सार्वजनिक की जानी चाहिए थीं। लेकिन ऐसा नहीं किया गया।

यह सब क्यों किया गया, इस बात की तहकीकात में उभरा एक तथ्य महत्वपूर्ण है। मोदी के सत्ता संभालने के बाद जर्मन कंसल्टेंसी फर्म जीआईजेड नीतिगत मामलों में सक्रिय भूमिका निभा रही है। जीआईजेड पर सरकार की नीतियों को प्रभावित करने और नियमों में फेरबदल के जरिए भ्रष्टाचार को बढ़ावा देने के आरोप पहले भी लगते रहे हैं। जीआईजेड से कर्मचारी हर राज्य में तैनात किए गए हैं जो अस्पतालों के साथ पैसे के लेनदेन की जिम्मेदारी निभाते हैं।

Published: 10 Jan 2019, 7:23 PM IST

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Published: 10 Jan 2019, 7:23 PM IST