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काशी विश्वनाथ मंदिर के बारे में यह तथ्य जानते हैं आप...

कहते हैं काशी के कण-कण में विश्वनाथ हैं, कहां से निकला यह मुहावरा, और क्या मौजूदा काशी विश्वनाथ मंदिर वहीं हैं जहां किंवदंतियों के मुताबिक भोलेनाथ प्रकट हुए थे। ऐसे ही कुछ रोचक और ऐतिहासिक तथ्य बता रही हैं मृणाल पांडे

फोटो : Getty Images
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  • बारहवीं सदी में गाहडवाल राजाओं के वक्त में पंडित लक्ष्मीधर के लिखे ‘नाना तीर्थ महात्म्य’ में कहा गया है कि शुरू में काशी को अविमुक्त क्षेत्र और शिव को अविमुक्तेश्वर नाम से पुकारा जाता था।
  • 16वीं सदी तक आते-आते पंडे-पुजारियों ने शिव का यह नाम बदल कर विश्वनाथ कर दिया। इससे पहले काशी में अविमुक्तेश्वर के स्वयंभू (स्वयं प्रकट हुए) लिंग की ही पूजा होती थी, जिसे आदिलिंग कहा गया है। यह मंदिर ज्ञानवापी के उत्तर में स्थित था, जबकि विश्वनाथ मंदिर ज्ञानवापी की जगह पर होता था। 16वीं सदी के लगभग लिखा गया पद्मपुराण भी अविमुक्तेश्वर के खुद-ब-खुद उपजे शिवलिंग को शिवपूजकों द्वारा बनाये और स्थापित किये विश्वेश्वर के लिंग से अलग मंदिरों में होने की तसदीक करता है। ज्ञानवापी अविमुक्तेश्वर के दक्षिण में थी। आजकल पंडों द्वारा अविमुक्तेश्वर के दो शिवलिंग बताये जाते हैं, एक विश्वनाथ मंदिर के आग्नेय कोण के छोटे मंदिर में, दूसरे मस्जिद के सामने की धर्मशाला में।

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  • 14वीं सदी में शर्की सुल्तानों की फौजों ने पहली बार विश्वनाथ मंदिर को तुड़वाया था। विश्वनाथ मंदिर अकबर के समय, 16वीं सदी में दक्षिण के विद्वान नारायण भट्ट और अकबर के वित्तमंत्री टोडरमल ने दोबारा विधिपूर्वक विश्वनाथ मंदिर की स्थापना ज्ञानवापी क्षेत्र में की।
  • मुगलकाल तक काशी बड़ा धार्मिक तीर्थ बन गया था और अकबर के समय टोडरमल के किये जीर्णोद्धार के अलावा जयपुर के राजा मानसिंह ने भी यहाँ एक लाख शिव मंदिर बनवाने का संकल्प लिया था। इतने मंदिर तो कहां बनते, इसलिये कई पत्थरों पर मंदिर की तस्वीर खोद कर संख्या पूरी की गई। तब से काशी के कंकड़ (या कण-कण) में शंकर विराजने का मुहावरा चल निकला।

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  • अंग्रेज़ी शासन के दौरान काशी के रसूखदार लोगों ने नगर पर शासकों की कृपादृष्टि बनाये रखने को वॉरेन हेस्टिंग्स को शिष्टाचार और साफ सुथरे शासन के लिये एक ज़रूरी सर्टिफिकेट दिया, जबकि साहब पर विलायत में घूसखोरी का मुकदमा चल रहा था। इसमें काशी में उनके करवाए सत्कार्यों में विश्वेश्वर मंदिर में नौबतखाना बनवाना भी दर्ज किया गया था।
  • 18वीं सदी के दौरान काशी को अपने नियंत्रण में लेने के इच्छुक महादाजी सिंधिया जैसे मराठों ने बहुत कोशिश की, कि ज्ञानवापी मस्जिद की जगह वाजिब मुआवज़ा मुसलमानों को देकर वे वहाँ विश्वनाथ मंदिर दोबारा बनवा दें। पर अंग्रेज़ मस्जिद तोड़ कर मुस्लिम जनता का गुस्सा मोल नहीं लेना चाहते थे और खुद काशी के पंचद्राविड ब्राह्मण भी 1742 में मराठा सरदार मल्हारराव के ज्ञानवापी मस्जिद तोड़ कर उस जगह विश्वेश्वर मंदिर बनवाने के प्रस्ताव के पक्ष में नहीं खड़े हुए।

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  • आखिरकार 1775 में औरंगज़ेब की मंदिर तुड़वाई के 125 साल बाद इंदौर की रानी अहिल्याबाई ने ज्ञानवापी के बगल में दोबारा विश्वनाथ मंदिर बनवाया। 1828 में चिमणाजी अप्पा ने ज्ञानवापी मंडप और लगभग उसी समय नेपाल के राजा ने परिसर में नंदी की स्थापना की। महाराजा रंजीत सिंह ने मंदिर के शिखर को सोने से मढ़वाया था।
  • 1857 के गदर में नाना फडनवीस कहीं बनारस के मराठों की मदद से पुन: पेशवाई हासिल न कर लें, इस डर से बनारस के बजाय बिठूर भेजा गया। इससे अंग्रेज़ों के खिलाफ पनप रहा जनाक्रोश फिर गहरा गया। 1857 के गदर में बनारस छावनी से गोलियाँ चलने पर गड़बड़ी मचती देख अंग्रेज़ मिंट हाउस में जमा हो गये, तो उनको जनता के व्यापक गुस्से की अनुभूति हुई। नतीजतन दंगों की आशंका से ग्रस्त काशी में रातों-रात विश्वनाथ मंदिर की सुरक्षा में स्थानीय मदद ली गई और सांप्रदायिक दंगे नहीं हुए।

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  • विद्वान डा मोतीचंद्र के अनुसार ज्ञानवापी के पास का विश्वनाथ मंदिर उस जगह पर नहीं था जहाँ स्वयंभू लिंगवाला अविमुक्तेश्वर का मंदिर हुआ करता था। प्राचीन मंदिर ज्ञानवापी के उत्तर में देव वाराणसी क्षेत्र में था। 1830 के दशक में सरकारी टकसाल के प्रमुख इंजीनियर जेम्स प्रिंसेप ने जनगणना करवाई जिसके हिसाब से वाराणसी नगर में तब 1454 मंदिर और 272 मस्जिदें थीं।

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