देश

मानव मल उठाने से मुक्ति चाहते हैं वाल्मीकि समाज के लोग

कहने को तो कानूनी रूप से इस पेशे को खत्म कर दिया गया है लेकिन इसे मजबूरी कहें या फिर समाज की बनायी व्यवस्था, आज भी बहुत से लोग मानव मल साफ कर रहे हैं। समाज में अलग-थलग ये वर्ग कहने को तो दलित समुदाय में आता है, लेकिन इनकी हालत बदतर होती जा रही है।

फोटोः आस मोहम्मद कैफ
फोटोः आस मोहम्मद कैफ वाल्मीकि समाज के लोग मानव मल उठाने से मुक्ति चाहते हैं

मौजूदा दौर में मानव मल को अपने हाथों से साफ करने वाली महिलाओं के लिए आज कल शर्मनाक हालात हैं। इसे मजबूरी कहें या फिर समाज की बनायी हुई व्यवस्था, आज भी बहुत से लोग मानव मल साफ कर रहे हैं। समाज में अलग-थलग ये वर्ग कहने को तो दलित समुदाय में आता है, लेकिन इनकी हालत बदतर होती जा रही है।

कहने को तो कानूनी रूप से इस पेशे को खत्म कर दिया गया है, लेकिन यह आज भी जारी है। पिछले महीने केंद्रीय सामाजिक न्याय एवं सशक्तिकरण मंत्रालय की ओर से प्रकाशित एक सर्वेक्षण के अनुसार देश में मैला उठाने वाली आधी से ज्यादा आबादी सिर्फ उत्तर प्रदेश में है। सर्वे में यह बताया गया था कि उत्तर प्रदेश में आज भी 28,796 लोग मैला उठाते हैं। वाल्मीकि समुदाय के बीच सामाजिक गतिविधियों में सक्रिय स्थानीय वकील मनोज सौदाई के अनुसार, यह आंकड़ा अधूरा है। क्योंकि इससे लगभग दो गुनी संख्या उन लोगों की है जो पंजीकरण कराने ही नहीं पहुंचे। ये आंकड़े सिर्फ घरों से मैला (मानव मल) उठाने वालों के हैं।

यह सर्वेक्षण कुल 18 राज्यो में किया गया था, मगर आंकड़े सिर्फ 12 राज्यों के ही जारी किए गए। पहले चरण के 600 जिलों में से 121 जिलों की रिपोर्ट में मध्यप्रदेश में 8016 और राजस्थान में 6643 लोग चिन्हित किये गए है। सर्वे के मुताबिक सबसे कम संख्या गुजरात की है, जहां सिर्फ 146 लोगों ने ही अपना पंजीकरण कराया है। इस सर्वे में उत्तर प्रदेश में 28,796 लोग ऐसे हैं जो मैला उठाने के काम में लगे हैं।

इस पेशे में लगे लोगो के घर और मोहल्ले मुख्यधारा से अलग-थलग होते हैं, लोग उनके यहां जाने और खाने-पीने से परहेज करते हैं और उनके बच्चे भी इसी दंश को झेल रहे हैं। आइए एक नजर ऐसे समाज के रहन-सहन पर डालते हैं, जो अभी भी मुख्यधारा से कटे हुए हैं। देश की राजधानी दिल्ली से 165 किलोमीटर दूर मुजफ्फरनगर में गंदगी के पहाड़, गली में घूमते सुअरों, बदबूदार गली-मुहल्लों से वाल्मीकि समाज के इलाके की पहचान हो जाती है।

मुजफ्फरनगर के मीरापुर की वाल्मीकि बस्ती में आधा दर्जन से अधिक महिलाएं भी मैला ढोने का काम करती हैं। 56 वर्षीय कमलेश कहती हैं, “बुरा लगता है, मगर और क्या करें, इसमें रोटी मिल जाती है और 10-20 रुपए भी। बहुतों ने छोड़ दिया है, हम भी छोड़ना चाहते है।”

Published: undefined

अपने मिट्टी के कच्चे घर के बाहर बैठे 71 साल के वृद्ध भूषण के बेटे की एक सड़क दुर्घटना में मौत हो चुकी है और उनकी पत्नी भी मर चुकी है। भूषण कहते हैं, “यहां नेता सिर्फ चुनाव में आते हैं। हमारे ही समाज के 'ठेकेदार उन्हें पक्का आश्वासन दे देते हैं। हमारी बस्ती में तो उन्हें बदबू आती है। मेरा हाल देख लीजिए किसी को भी हमारी परवाह नही है। सब बातें किताबी होती हैं।” 20 साल से सर पर रखकर मैला ढो रही बालेश (43) कहती हैं, "हमें बहुत बुरा लगता है। लोग हमें छोटा समझते हैं। अगर कोई दूसरा रोजगार मिले तो हम इसे छोड़ देंगे। मैं सिलाई कर सकती हूं, दूसरे काम भी कर लूंगी। मैला उठाना बहुत बुरा लगता है, सिर्फ 20-30 रुपए ही मिलते हैं।"

दरअसल बात सिर्फ इतनी ही नहीं है। मीरापुर के पड़ाव चौक से पूर्व की और जैसे ही सड़क पार करते हैं तो बदबू नाक सिकोड़ने को मजबूर कर देती है। गली में गंदगी, सुअर के दड़बे और कूड़ों के बजबजाते ढेर वाला यह मोहल्ला उन लोगों का है, जो दूसरों की गंदगी साफ करते हैं। इस मोहल्ले में पिछले 20 साल से चिकित्सा सेवा देने वाले साकिब कुरैशी कहते हैं, समझ में नहीं आता कि इस समाज ने अपनी हालत बदलने की कोशिश क्यों नही की। अगर लड़के पढ़ते भी हैं तो वो सफाई कर्मचारी की नौकरी से संतुष्ट हो जाते हैं। दुर्भाग्य से वो हीन भावना से ग्रसित हैं और इसमें एक दो मामलों को छोड़कर कोई सकारात्मक बदलाव नही आया है।”

लगभग 400 लोगों की आबादी वाली इस बस्ती में कोई स्कूल नहीं है और तमाम मेडिकल सुविधाएं निजी हैं, जिसके लिए उन्हें पैसे देने पड़ते हैं। बस एक अच्छी बात ये है कि यहां कुछ गलियां अब बन गई हैं। लड़कियां यहां कम ही पढ़ती हैं। ज्यादातर 10वीं के बाद पढ़ाई छोड़ देती हैं। सोनम (16) आठवीं के बाद ही पढ़ाई छोड़ चुकी है। बस्ती के एक युवा अमित हांडा (32) कहते हैं, “समाज में हीन भावना बहुत ज्यादा है और यह सामाजिक भेदभाव की वजह से पनपी है। लोग हमारी जाति जानने के बाद पहले जैसा व्यवहार नहीं करते हैं। ऐसा कोई नहीं है जो इस पहचान से बाहर नहीं निकलना चाहता है। स्कूल में भी बुरा बर्ताव होता है और कुछ विशेष समाज के बच्चे तो हमसे दोस्ती भी नहीं करते। हम एक मुश्किल पहचान के साथ जी रहे हैं।”

Published: undefined

कोढ़ में खाज यह है कि समाज के ज्यादातर पुरुष काम नहीं करते हैं। नाम ना छापने के भरोसे पर इस समुदाय की एक महिला ने बताया, “ज्यादातर लोग अनपढ़ हैं और शराब पीते हैं। उनकी औरतें काम करती हैं। अब आमदनी का अंदाजा आप लगा सकते हैं। अब बाकी सुविधाओं की बात छोड़िये, लोग हमें इंसान समझ लें यही सबसे बड़ी बात है। हम भी एक बेहतर जिंदगी जीना चाहते हैं।” एक दूसरी महिला शीला कहती हैं कि सारी जिंदगी गुजर गई इस गु में धंसते हुए, अब तो इससे मुक्ति मिल जानी चाहिए।

पिछले दिनों वाल्मीकि नेता और उत्तर प्रदेश सरकार में दर्जा प्राप्त राज्यमंत्री लाल जी निर्मल ने इस मामले को लेकर मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ से मुलाकात की थी। इसके बाद मैला ढोने के काम को छोड़ने वालों के परिवार से एक व्यक्ति को नौकरी देने की बात कही गई थी। लाल जी निर्मल के मीडिया में दिए गए बयान के मुताबिक मुख्यमंत्री ने ऐसा करने का भरोसा दिलाया था। लेकिन इस पर अब तक कोई काम नहीं हुआ है। वाल्मीकि समुदाय के स्थानीय नेता सुनील चंचल कहते हैं, "समाज में असमानता बहुत अधिक है, एक परिवार के तो चार लोग नौकरी कर रहे हैं, जबकि दूसरे में रोटी के भी लाले हैं। सभी का ख्याल रखा जाना चाहिए।" वहीं पूर्व सभासद सुनील भारती का कहना है कि बेरोजगारी इन्हें यह सब करने के लिए मजबूर कर रही है। उन्होंने कहा कि अगर इन्हें रोजगार दिया जाए या अपना अपना कारोबार करने के लिए आर्थिक सहायता दी जाए, तो उम्मीद है सरकार इसपर ध्यान देगी।"

Published: undefined

Google न्यूज़नवजीवन फेसबुक पेज और नवजीवन ट्विटर हैंडल पर जुड़ें

प्रिय पाठकों हमारे टेलीग्राम (Telegram) चैनल से जुड़िए और पल-पल की ताज़ा खबरें पाइए, यहां क्लिक करें @navjivanindia

Published: undefined