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अस्मिता का सवालः पूर्वोत्तर में राख से फिर भड़की आग, छिड़ी आर-पार की लड़ाई

मोदी सरकार के नागरिकता कानून के चलते ऐतिहासिक असम समझौते की अहमियत रद्दी के टुकड़े से ज्यादा नहीं रह जाएगी। असम समझौते में धर्म का कोई पैमाना नहीं था, लेकिन नए कानून में धर्म का पैमाना रखा गया है, जिससे पूर्वोत्तर के लोग भाषायी रूप से अल्पसंख्यक बन जाएंगे।

फोटोः सोशल मीडिया
फोटोः सोशल मीडिया 

संशोधित नागरिकता कानून (सीएए) पर केंद्र सरकार की हालत सांप-छछुंदर वाली है। गृहमंत्री अमित शाह कह भले रहे हों कि इस कानून को लेकर सरकार एक इंच भी पीछे नहीं हटेगी लेकिन सच्चाई यह है कि वह पूर्वोत्तर की आग ठंडी करने के लिए एक उच्चस्तरीय समिति का गठन कर चुकी है। इस समिति को अपनी रिपोर्ट जनवरी के अंत तक देनी है। इस कमेटी में एक दर्जन से अधिक सदस्य हैं और इसका गठन 1985 के असम समझौते के खंड 6 के तहत किया गया है। पूर्व न्यायाधीश न्यायमूर्ति बिप्लब कुमार शर्मा के नेतृत्व वाली इस कमेटी की कई बैठकें हो चुकी हैं। न्यायमूर्ति शर्मा ने जनवरी के दूसरे हफ्ते में शाह से मिलकर कमेटी के सदस्यों की राय भी बताई है। वैसे, इस कमेटी का घोषित उद्देश्य असमिया लोगों की सांस्कृतिक, सामाजिक, भाषायी पहचान और विरासत की रक्षा और उन्हें समृद्ध करने के लिए उपाय सुझाना है।

दरअसल, जब नागरिकता संशोधन विधेयक (सीएबी) संसद में पेश किया गया, देश के अन्य हिस्सों की तरह पूरा पूर्वोत्तर भी भड़क उठा था। दिसंबर में सीएबी के खिलाफ असम समेत समूचे पूर्वोत्तर राज्यों में हिंसक प्रदर्शन हुए। असम में पुलिस की गोलीबारी में पांच लोगों की जान गई। गुवाहाटी और विभिन्न शहरों में कर्फ्यू लगाकर आंदोलन का दमन करने का प्रयास किया गया। दस दिनों तक इंटरनेट सेवा बंद रखी गई जिसे गुवाहाटी उच्च न्यायालय के हस्तक्षेप के बाद सरकार को बहाल करना पड़ा। लेकिन लोगों का गुस्सा कम नहीं हुआ था और इसीलिए खेलो इंडिया के कार्यक्रम में आना प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को रद्द करना पड़ा।

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लेकिन 10 जनवरी को जैसे ही केंद्र सरकार ने संशोधित नागरिकता कानून (सीएए) लागू करने की अधिसूचना जारी की, असम सहित समूचे पूर्वोत्तर में इस कानून के खिलाफ आंदोलन कर रहे विभिन्न नागरिक संगठनों ने अपने आंदोलन को और तेज करने का संकल्प व्यक्त किया और कहा कि आम लोगों की आवाज को दबाने के लिए बीजेपी सरकार की तरफ से ऐसा निरंकुश कदम उठाया गया है जो अन्यायपूर्ण है।

लेकिन पूर्वोत्तर की मांग देश के अन्य हिस्सों से अलग है और इसे ध्यान से समझने की जरूरत है। शेष भारत में नागरिकता कानून का विरोध इसलिए हो रहा है कि यह संविधान के धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांत का उल्लंघन करता है और धर्म के आधार पर तीन पड़ोसी देशों- पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान के गैरमुस्लिम शरणार्थियों को नागरिकता देने की बात करता है। इस कानून के साथ पूरे देश में एनआरसी लागू कर मुसलमानों और गरीबों को डिटेन्शन कैंपों में कैद करने और दस्तावेज के आधार पर नागरिकता से वंचित करने का भयावह भविष्य सामने देखकर लोग इसके खिलाफ सड़कों पर उतर आए हैं।

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पूर्वोत्तर का मामला अलग है। असम में बांग्लादेशी घुसपैठियों के खिलाफ 1980 के दशक में छह सालों तक आंदोलन चलाया गया। 1985 में तत्कालीन राजीव गांधी सरकार के साथ छात्र नेताओं का असम समझौता हुआ। उस समझौते में 24 मार्च, 1971 को कट ऑफ डेट मानते हुए प्रावधान रखा गया कि उस तारीख से पहले आए सभी विदेशियों को नागरिकता मिल जाएगी और उस तारीख के बाद आए विदेशियों की शिनाख्त कर उनको बाहर निकाला जाएगा। इसी प्रावधान के आधार पर असम के 1953 के राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर(एनआरसी) को सुप्रीम कोर्ट की निगरानी में अपडेट कर 19 लाख लोगों को सूची से बाहर किया गया।

अब मोदी सरकार के नागरिकता कानून के चलते ऐतिहासिक असम समझौते की अहमियत रद्दी के टुकड़े से ज्यादा नहीं रह जाएगी। असम समझौते में धर्म का कोई पैमाना नहीं रखा गया था। नए कानून में धर्म का पैमाना रखा गया है, यानी हिंदू बांग्लादेशियों को आसानी से नागरिकता मिल जाएगी और असमिया और अन्य राज्यों के क्षेत्रीय लोग भाषायी रूप से अल्पसंख्यक बन जाएंगे।

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असम में कोने-कोने में इस कानून के खिलाफ आम लोगों का विरोध एक महीने से चल रहा है। प्रदर्शन, अनशन, रैली, मशाल जुलूस आदि में शामिल लोग गीतों और कविताओं के जरिये अपने आक्रोश को व्यक्त कर रहे हैं। भूपेन हजारिका के कालजयी गीतों के साथ ही ज्योति प्रसाद और विष्णु राभा के गीतों को भी गाकर लोग अपनी भावनाओं को उजागर कर रहे हैं। नए गीतों और कविताओं की भी रचना हो रही है। अस्सी के दशक के असम आंदोलन के विख्यात नारों को दोहराया जा रहा है। ऐसे नारों में प्रमुख है- जोय आई असम (असम माता की जय हो) और आह ओई आह, उलाइ आह (आओ, बाहर निकल आओ)।

गायक-संगीतकार बिपिन चाउदांग ने इस आंदोलन के खिलाफ गीत लिखे हैं और पूरे राज्य में घूम-घूमकर जनसभाओं में गाकर लोगों में जोश भर रहे हैं। उनका कहना है- “अवैध घुसपैठ के दर्द को सबसे ज्यादा असम ने झेला है इसीलिए हमलोग यह कानून नहीं चाहते। इस काले कानून का विरोध करने के लिए मैंने भी गीतों की रचना की है।” गुवाहाटी विश्वविद्यालय में असमिया विभाग की प्रोफेसर बनानी चक्रवर्ती का कहना हैः “असमिया लोगों की रचनात्मक क्षमता बहुत अधिक है। हमारे इतिहास की अनेक घटनाओं का वर्णन गीतों और कविताओं में मिलता है। असम आंदोलन के समय भी हमने देखा और अबके विरोधी आंदोलन में देख रहे हैं। स्वतःस्फूर्त रूप से गीतों और कविताओं की रचना हो रही है। इनका आम लोगों पर भाषण से ज्यादा असर होता है।”

प्रदर्शन के दौरान भी लोगों ने पढ़ाई करते हुए, रोजमर्रा के काम करते हुए और अपने उत्सव मनाते हुए भी आंदोलन को अनवरत जारी रखा है। शेष भारत में मकर संक्रांति मनाई जाती है, असम में उसी दिन माघ बिहू। इस मौके पर एक दिन पहले फूस का ढेर लगाकर अलाव जलाने की परंपरा है। इसे उरुका कहते हैं। इस बार इसमें नागरिकता कानून की प्रति जलाने का आह्वान किया गया। माघ बिहू से पहले लगने वाले पारंपरिक व्यंजनों के मेले- भोगाली मेला, में गुवाहाटी आए तमाम दुकानदारों ने सीएए विरोधी पोस्टर लगा रखे थे।

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