राज्यसभा सदस्य कपिल सिब्बल ने राज्य विधानसभाओं द्वारा पारित विधेयकों पर राज्यपालों के निर्णय लेने के लिए एक समयसीमा निर्धारित करने को लेकर उच्चतम न्यायालय की शनिवार को सराहना की और कहा कि यह एक ‘‘ऐतिहासिक’’ फैसला है जो ‘संघवाद के लिए अच्छा’ है क्योंकि यह राज्यपालों की भूमिका को परिभाषित करता है।
द्रविड़ मुनेत्र कषगम (डीएमके) नीत तमिलनाडु सरकार को बीते मंगलवार को बड़ी जीत हासिल हुई, जब उच्चतम न्यायालय ने 10 विधेयकों को मंजूरी दे दी, जिन्हें राज्यपाल आर एन रवि ने राष्ट्रपति के विचारार्थ भेजने के लिए अपने पास रोक रखा था।
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अदालत ने राज्यपालों के लिए राज्य विधानसभाओं द्वारा पारित विधेयकों पर निर्णय लेने के लिए एक समयसीमा भी निर्धारित की।
न्यायालय के फैसले की सराहना करते हुए सिब्बल ने यहां संवाददाता सम्मेलन में कहा कि यह (निर्णय) सुनिश्चित करता है कि संघीय ढांचा संविधान के सिद्धांतों के तहत आगे बढ़ेगा। सिब्बल ने कहा कि फैसले में राज्यपाल की भूमिका को भी परिभाषित किया गया है।
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वरिष्ठ अधिवक्ता ने कहा, ‘‘उच्चतम न्यायालय ने हाल ही में एक ऐतिहासिक फैसला सुनाया है। यह चर्चा में है क्योंकि जब से (केंद्र की) सत्ता में भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) आई है, राज्यपालों ने मनमाने ढंग से काम करना शुरू कर दिया है। जब भी कोई विधेयक पारित होता है और राज्यपाल की मंजूरी की आवश्यकता होती है, वह (राज्यपाल) विधेयक को अपने पास सुरक्षित रख लेते हैं और उसमें देरी करते हैं। वे हस्ताक्षर नहीं करते, इसलिए अधिसूचना जारी नहीं होती। इससे लोगों को परेशानी होती है।’’
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सिब्बल ने कहा, ‘‘अब उच्चतम न्यायालय ने विधेयक को वापस भेजने के लिए तीन महीने की समयसीमा तय की है। जब विधेयक फिर से पारित होगा, तो राज्यपाल को एक महीने के भीतर उस पर हस्ताक्षर करना होगा। महान्यायवादी ने इसका विरोध करते हुए कहा था कि राज्यपालों के लिए समयसीमा अनिवार्य नहीं की जा सकती, लेकिन शीर्ष अदालत ने इससे इनकार कर दिया...।’’
सिब्बल ने कहा, ‘‘राज्यपाल के पास विधेयक को राष्ट्रपति के पास भेजने का विवेकाधिकार होगा, लेकिन राष्ट्रपति को भी समयसीमा का पालन करना होगा। यह संघवाद के लिए अच्छा है।’’
पीटीआई के इनपुट के साथ
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