बाीजेपी बिहार चुनाव के लिए सीट-बंटवारे की जटिल बातचीत में उलझी है। ऐसे में वह जाति आधारित आक्रोश को झेलने की स्थिति में नहीं, लेकिन उसमें यह माद्दा भी नहीं कि 6 अक्टूबर को जूता फेंके जाने की घटना को मुद्दा बनने से रोक सके। आखिर, यह कोई मामूली अपमान नहीं था। देश के चीफ जस्टिस पर जूता फेंका गया था, और वह भी तब, जब वह अदालत पर बैठे थे। न्यायमूर्ति बी आर गवई दलित हैं और अपराधी ऊंची जाति का ‘सनातन धर्म’ का एक स्वयंभू रक्षक। इस बीच, गवई पर हुए इस अपमानजनक हमले को ऑनलाइन हिन्दुत्व ट्रोल्स का भरपूर समर्थन मिला।
इस हमले का जातिवादी कोण बिल्कुल साफ है, और जैसा कि अंदाजा था, इस घटना ने दलितों को आक्रोशित कर दिया है। वैसे, यह प्रकरण एक दशक पहले की घटना की याद दिलाता है। बात 2015 की है, बिहार विधानसभा चुनाव में कुछ ही हफ्ते बचे थे। आरएसएस के मुखपत्र ‘पाञ्चजन्य’ के साथ बातचीत में मोहन भागवत ने कहा था कि अब समय आ गया है कि भारत अपनी आरक्षण नीति की समीक्षा करे।
उस समय आरजेडी-जेडीयू गठबंधन में थे और उन्होंने मौके का फायदा उठाया और बीजेपी-आरएसएस पर आरोप लगाया कि वे ‘अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति/अन्य पिछड़ा वर्ग की हकमारी’ की फिराक में हैं। असर यह रहा कि 243 सीटों वाली विधानसभा में आरजेडी को 80 सीटें मिलीं और जेडीयू के हिस्से में 71 सीटें आईं और इस तरह वे बड़े आराम से सरकार बनाने की स्थिति में आ गए, जबकि महज एक साल पहले 2014 के लोकसभा चुनाव में शानदार जीत हासिल करने वाली बीजेपी 53 सीटों पर सिमट गई। जाहिर तौर पर अपने वैचारिक मार्गदर्शक की एक चूक के कारण बीजेपी का अभियान पटरी से उतर गया था।
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जूता फेंके जाने की घटना से पहले बीजेपी समर्थकों ने कई हफ्तों से मुख्य न्यायाधीश के खिलाफ सुनियोजित ऑनलाइन अभियान चला रखा था, जिसमें उन्हें ‘हिन्दू विरोधी’ बताया जा रहा था, उनके खिलाफ महाभियोग चलाने की मांग की जा रही थी। जब मुख्य न्यायाधीश ने खजुराहो में क्षतिग्रस्त विष्णु की मूर्ति को पुनर्स्थापित करने के लिए केंद्र सरकार को निर्देश देने की मांग वाली याचिका खारिज कर दी, तो इन ट्रोल ने एक्स (पहले ट्विटर) पर #ImpeachCJI और #GavaiMustResign जैसे हैशटैग चलाए।
न्यायमूर्ति गवई ने याचिकाकर्ता के अधिकार क्षेत्र पर सवाल उठाया और जनहित याचिका को ‘प्रचार हित याचिका’ करार देते हुए तीखी टिप्पणी की। इस बात पर जोर देते हुए कि आस्था और विरासत के मामले न्यायिक दायरे से बाहर हैं, उन्होंने कथित तौर पर कहा था: ‘अगर आप भगवान विष्णु के कट्टर भक्त होने का दावा करते हैं, तो प्रार्थना और ध्यान के जरिये भगवान से ही हस्तक्षेप के लिए कहें।’
बीजेपी से जुड़े इन्फ्लूएंसरों ने न्यायमूर्ति गवई पर हिन्दू भावनाओं का मजाक उड़ाने और उनकी दलित-बौद्ध पृष्ठभूमि तथा आम्बेडकरवादी झुकाव के कारण पक्षपात करने का आरोप लगाया। @PMOIndia जैसे सरकारी हैंडलों को कार्रवाई के लिए टैग करते हुए उनके भड़काऊ पोस्टों को काफी प्रतिक्रिया मिली।
निर्णायक मोड़ तब आया मॉरीशस यात्रा के दौरान 3 अक्टूबर को सर मौरिस रॉल्ट मेमोरियल लेक्चर 2025 का उद्घाटन करते हुए उन्होंने कहा: ‘भारतीय न्याय व्यवस्था कानून के शासन से चलती है, बुलडोजर के शासन से नहीं।’ इसे भी ‘हिन्दू-विरोधी’ माना गया, शायद इसलिए क्योंकि एक हिन्दुत्ववादी शख्स (एक सूबे का मुख्यमंत्री) बुलडोजर न्याय का पोस्टर-बॉय है।
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गौर करने वाली बात है कि गवई पर इन हमलों की बीजेपी के किसी भी वरिष्ठ नेता ने निंदा नहीं की, बिल्कुल वैसी ही मौन स्वीकृति दी जो कुछ भी करके दंड नहीं मिलने के भरोसे को मजबूत करती है।
इस अपमान के बाद भी मुख्य न्यायाधीश ने मामले को ठंडा करने की कोशिश की। जबकि 71 वर्षीय वकील राकेश किशोर गवई के आचरण को बर्दाश्त नहीं कर सके और उन्होंने कहा कि ‘सनातन का अपमान नहीं सहेंगे’। राकेश किशोर को पुलिस ने हिरासत में ले लिया और कथित तौर पर उनसे पूछताछ की, लेकिन मुख्य न्यायाधीश के निर्देश का पालन करते हुए सुप्रीम कोर्ट के रजिस्ट्रार जनरल ने पुलिस को आरोप दाखिल नहीं करने का निर्देश दिया।
6 और 11 नवंबर को होने वाले चुनावों की तैयारी कर रहे बिहार में इस घटना का जातिगत आधार पर जमकर राजनीतिकरण हो गया है। बिहार की आबादी का लगभग पांचवां हिस्सा दलित हैं और वे एक अहम मतदाता वर्ग हैं। इस हमले ने बीजेपी और सत्तारूढ़ एनडीए के खिलाफ दलितों की भावनाओं को भड़का दिया है। विपक्षी दल बीजेपी के ‘व्यवस्थागत उच्च-जातीय अहंकार' को मुद्दा बनाने को कमर कसे दिख रहे हैं, जबकि बीजेपी अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति/अन्य पिछड़ा वर्ग के सशक्तिकरण का ढिंढोरा पीट रही है।
एनडीए नेताओं ने आगत भविष्य की दिक्कतों को भांपते हुए गवई पर हमले की रस्मी निंदा की है, जबकि इस बात को ध्यान में रखते हुए कि कहीं ऊंची जाति के मतदाता बिदक न जाएं, इस घटना के जातिगत कोण को हवा में उड़ाने की कोशिश कर रही है।
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बिहार से दो केंद्रीय मंत्री, चिराग पासवान और जीतन राम मांझी दलित हितों के स्वयंभू चैंपियन हैं और वे इस मामले में मौन ही रहे, रस्मी आलोचना भी नहीं की। बिहार कांग्रेस के सह-प्रभारी शाहनवाज आलम ने कहा, ‘एनडीए का हिस्सा होने के नाते, मांझी और पासवान ने आरएसएस और सनातन धर्म के आधिपत्य को स्वीकार कर लिया है, इसलिए वे चुप हैं।’ बिहार के मुख्यमंत्री और जेडीयू नेता नीतीश कुमार ने 7 अक्टूबर को एक संक्षिप्त बयान जारी कर इस हमले को ‘अस्वीकार्य’ बताया। पड़ोसी राज्य उत्तर प्रदेश में, बीएसपी प्रमुख मायावती ने वकील के कृत्य को ‘अशिष्ट’ करार देते हुए हल्के-फुल्के अंदाज में इसकी आलोचना की।
एनडीए की बेचैनी को दिखाने वाली इन दबी-दबी निंदाओं के ठीक उलट बिहार कांग्रेस के अध्यक्ष राजेश राम, जो खुद दलित हैं, एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में रो पड़े। उन्होंने सवाल किया कि अगर देश का मुख्य न्यायाधीश भी सुरक्षित नहीं हैं, तो आम दलित किस तरह की सुरक्षा की उम्मीद कर सकते हैं। उन्होंने कहा, ‘इसका दर्द सभी दलितों को महसूस होगा।’ उन्होंने इस हमले को संविधान के सामाजिक न्याय के सिद्धांतों का अपमान बताया।
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पटना स्थित सूत्रों के मुताबिक, जूता मामले में पूरे बिहार में विरोध प्रदर्शन की योजना बनाई जा रही है। कांग्रेस ने अपनी दिल्ली इकाई और वकीलों के अपने मजबूत प्रकोष्ठ को कानूनी विकल्प तलाशने के लिए सक्रिय कर दिया है। पार्टी अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे और लोकसभा में विपक्ष के नेता राहुल गांधी ने एक संयुक्त बयान जारी कर दलितों पर अत्याचार की निंदा की है। उन्होंने हाल ही में उत्तर प्रदेश के रायबरेली में एक दलित युवक की पीट-पीटकर हत्या का भी जिक्र किया और इन हमलों को ‘संविधान के विरुद्ध अपराध’ और ‘सामूहिक नैतिकता का सवाल’ बताया।
टिप्पणीकारों का कहना है कि लालू प्रसाद यादव द्वारा गढ़ी गई मुस्लिम-यादव (एम-वाई) धुरी को बिहार में नए एम-वाई - ‘महिला-युवा’ गठबंधन - से परास्त किया जा सकता है। उनका मानना है कि चुनाव से ऐन पहले एनडीए द्वारा महिला मतदाताओं को सीधे नकद हस्तांतरण के जरिये लुभाना एक बड़ा बदलाव लाएगा (मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र के पहले के नतीजों को देखते हुए)। उनका तर्क है कि बिना किसी शर्त के 10,000 रुपये का नकद हस्तांतरण निष्ठाओं को बदल सकता है। इनके मुताबिक, अगर 2020 में पुरुषों की तुलना में ज्यादा महिलाओं के मतदान करने का रुझान 2025 में भी बना रहता है, तो एनडीए को बढ़त मिल सकती है।
हालांकि, यह धारणा कि महिलाओं को मतदाता वर्ग के रूप में विकसित करने वाले नीतीश कुमार को महिलाओं का सहज समर्थन प्राप्त है, आंकड़ों से पुष्ट नहीं होती। हालांकि 2020 में महिलाओं का कुल मतदान प्रतिशत (59.7) पुरुषों (54.5) से अधिक था, एनडीए को महागठबंधन (जैसा कि उस समय इंडिया ब्लॉक को जाना जाता था) की तुलना में महिलाओं का केवल 1 फीसद अधिक वोट मिला था।
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सीएसडीएस-लोकनीति द्वारा कराए गए चुनाव-बाद अध्ययन से पता चलता है कि बिहार में महिलाओं के वोटों के मामले में कितनी कड़ी टक्कर थीः 38 फीसद ने एनडीए को और 37 फीसद ने महागठबंधन को समर्थन दिया, जबकि 25 फीसद ने ‘अन्य दलों’ को चुना। दलित महिलाओं के मामले में यह आंकड़ा 43 फीसद था। बिहार की राजनीति पर गहरी नजर रखने वाले और लालू प्रसाद यादव के साथ उनकी जीवनी लिखने वाले लेखक और पत्रकार नलिन वर्मा कहते हैं कि यह स्थिति तब थी, जब एनडीए ने 2020 में भी अपनी जेब ढीली की थी। वर्मा का तर्क है कि यह मान लेना कि हाल में महिलाओं के खाते में पैसे डालना महिला मतदाताओं के भारी समर्थन में बदल जाएगा, सिर्फ भ्रांति है।
भागलपुर के सोशल ऐक्टिविस्ट राजेश कुमार, वर्मा की बात से सहमत हैं। हालांकि इसमें वह एक शर्त भी जोड़ते हैं। वह कहते हैं कि महिलाएं बेशक 10,000 रुपये की अप्रत्याशित धनराशि से खुश होंगी, लेकिन वे राज्य के बेरोजगारी संकट से अनजान नहीं हैं, और इसकी भी अनदेखी नहीं की जा सकती कि बिहार के ज्यादातर ग्रामीण परिवार इतने गरीब हैं कि उन्हें रोजमर्रा के खर्च के लिए कर्ज लेना पड़ता है। राजेश कहते हैं कि 2020 के चुनावों में भी बेरोजगारी एक बड़ा मुद्दा था और यह तेजस्वी यादव का सरकारी रिक्तियों को भरने का वादा था जिसने हवा का रुख उनके पक्ष में कर दिया था।
लब्बोलुआब यह है कि इतने सालों तक सत्ता में रहने के बाद 10 हजार की यह सौगात शायद नीतीश के काम न आए।
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