बीजेपी की जीत का सिलसिला केंद्र और राज्यों में 2014 के बाद शुरू हुआ। मार्च, 2018 में बीजेपी और उसके सहयोगी दलों की सरकारें देश के 71 प्रतिशत हिस्से में थीं। लेकिनअ ब यह सिर्फ 40 फीसदी हिस्से में है। महाराष्ट्र में हुई फजीहत बीजेपी के लिए दोहरी चोट है क्योंकि हाल के विधानसभा चुनावों में सबसे बड़ी पार्टी के तौर पर उभरने के बावजूद सरकार बनाने की सारी तिकड़में न केवल उसके हाथ से निकल गईं बल्कि उसने अपने सबसे पुराने सहयोगी शिवसेना को खो दिया।
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जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय के प्रोफेसर कमल मित्र चिनॉय कहते हैं, “संघ परिवार को चिंतित होने का समय आ गया है क्योंकि बीजेपी के पतन का सिलसिला झारखंड और दिल्ली में भी देखने को मिलेगा। झारखंड में अगले ही महीने चुनाव परिणाम आने हैं। दिल्ली में भी अगले साल चुनाव हैं। महाराष्ट्र के घटनाक्रम से यह तो साफ है कि केंद्र में सरकार की हनक के साथ राज्यपाल की मदद के बल पर सत्ता में बने रहने की बीजेपी की चालें कामयाब नहीं हुईं। इससे यह भी साफ हो गया है कि मोदी और अमित शाह की जोड़ी की पकड़ न केवल एनडीए बल्कि राज्यों की सियासत पर भी ठंडी पड़ती जाएगी।’’
क्या इससे देश में एक नए तरह के सियासी ध्रुवीकरण की संभावना भी है? चौधरी चरण सिंह विश्वविद्यालय के राजनीतिक विज्ञान विभाग के पूर्व प्रोफेसर डॉ. के सी शर्मा कहते हैं कि “यह तो साफ दिख रहा है कि बीजेपी विरोधी पार्टियां आने वाले समय में अपने मतभेद भुलाकर एकसाथ आएंगी और राष्ट्रीय विकल्प खड़ा होने की ओर बढ़ सकती हैं। इससे कांग्रेस की भूमिका आने वाले दौर में एक बार फिर से अहम होने वाली है।’
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दरअसल, राज्यों में किसी भी तरह सत्ता बनाए रखने की हठधर्मिता भी बीजेपी को अलग-थलग कर रही है। शिवसेना के साथ बर्ताव तो एक उदाहरण है ही, महाराष्ट्र में बिना संवैधानिक प्रक्रिया के राष्ट्रपति शासन समाप्त करना और सरकार बनाने की प्रक्रिया शुरू करने की हड़बड़ी भी लोगों के गले नहीं उतर रही। अटल बिहारी वाजपेयी के साथ काम कर चुके लेखक सुधींद्र कुलकर्णी याद दिलाते हैं कि संयुक्त मोर्चा सरकार के दौरान कल्याण सिंह सरकार को लगभग इन्हीं तरह के हथकंडों के जरिये हटाया गया था और तब पार्टी के शीर्ष नेता अटल बिहारी वाजपेयी को दिल्ली में आमरण अनशन पर बैठना पड़ा था। कुलकर्णी कहते हैं कि पार्टी के वर्तमान कर्ताधर्ताओं ने उस घटनाक्रम से जरा भी सबक लिया होता तो महाराष्ट्र में वे वह सब नहीं करते जो उन्होंने किया।
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सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ वकील और संवैधानिक मामलों के जानकार संजय हेगड़े भी कहते हैं कि “इसमें कोई शक नहीं कि समर्थन के पत्रों का सत्यापन किए बगैर ही राज्यपाल भगत सिंह कोश्यारी ने देवेंद्र फडणवीस को सरकार बनाने का हड़बड़ी में मौका दे दे दिया।’ हेगड़े का पुख्ता यकीन है कि अगर राज्यपाल समझदारी और विवेक का जरा भी इस्तेमाल करते तो सुप्रीम कोर्ट के हस्तक्षेप के बाद राज्यपाल और केंद्र सरकार के लिए जो अप्रिय स्थिति बनी, उससे बचा जा सकता था।
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