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कोरोना महामारी मध्यम वर्ग पर काल बनकर टूटी! नौकरियां गईं, सेविंग खत्म, आकांक्षाएं डूबीं और गरीब रसातल में चले गए

वेतन भोगी वर्ग की नौकरी जाने का एक मतलब यह होता है कि उन्हें अपने परिवार का सारा खर्च अपनी बचत से पूरा करना होता है। प्यूरिसर्च सेंटर के अनुसार, कोरोना की वजह से दुनिया भर में 5 करोड़ 40 लाख लोग मध्य वर्ग से नीचे खिसक गए हैं।

फोटो: नवजीवन ग्राफिक्स
फोटो: नवजीवन ग्राफिक्स 

श्याम किशोर होर्डिंग वाले विज्ञापन का व्यवसाय करने वाली दिल्ली की एक कंपनी में काम करते थे। पिछले साल लॉकडाउन के समय सितंबर माह में उनकी कंपनी के कई लोगों को निकाल दिया गया। इससे आहत श्याम ने पिछले साल सितंबर में इस्तीफा दे दिया और पुरानी कंपनी के 20-25 लोगों ने मिलकर नई कंपनी बनाकर काम शुरू करने का फैसला किया। कंपनी रजिस्टर हुई और बड़ी मशक्कत से 25 करोड़ का लोन भी पास हो गया। लेकिन अब कोरोना की दूसरी लहर ने सब चौपट कर दिया है। जब चाहें, बैंक से पैसे ले सकते हैं, लेकिन लेने की हिम्मत नहीं।

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यह श्याम और उनकी पुरानी कंपनी के साथी ही जानते हैं कि कितनी मेहनत के बाद बैंक का लोन पास हुआ। नई कंपनी को लोन देने को कोई बैंक तैयार नहीं था। इन लोगों ने कई निवेशकों से बात की। बड़ी मशक्कत के बाद एक व्यक्ति ऐसे मिले जो गारंटर बनने को राजी हो गए। आखिरकार बैंक से 25 करोड़ का लोन सैंक्शन हो गया। तीन महीने हो गए हैं, पर कंपनी ने उसे उठाया नहीं है। कारण, उन्हें पता है कि लोन उठा लिया, तो अभी से ब्याज चढ़ना शुरू हो जाएगा। इसलिए इन लोगों ने फैसला किया है कि जब तक काम-धंधा शुरू करने की स्थिति न आए, लोन नहीं लिया जाए और इस दौरान वैसे ही जीते रहें जैसे अब तक गुजारा करते आए हैं। उन्हें इस साल सितंबर तक काम शुरू करने की स्थिति आने की उम्मीद है। तब तक ये सभी लोग हाथ पर हाथ धरे बैठे रहेंगे। इनकी कहीं से हायरिंग की कोई उम्मीद भी नहीं है।

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यह अकेले किसी श्याम किशोर की कथा नहीं है। सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी (सीएमआई) के आंकड़े के अनुसार, मार्च में बेरोजगारी दर 6.5 प्रतिशत थी जो अप्रैल में बढ़कर 8 प्रतिशत हो गई। इसके आंकड़े बताते हैं कि अप्रैल में 73.5 लाख लोगों की नौकरियां छूट गई हैं। कोरोना की पहली लहर के बाद स्थितियां थोड़ी सुधरी थीं और पिछले साल दिसंबर में नियोजित और अनियोजित क्षेत्रों में 38.877 करोड़ लोग नौकरी में थे जबकि जनवरी में 40.07 करोड़ लोग। लेकिन फरवरी में यह संख्या घटकर फिर 39.821 करोड़ हो गई। तब से दो माह के दौरान यह और गिरती गई- मार्च में 39.814 करोड़ और अप्रैल में 39.079 करोड़।

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वेतन भोगी वर्ग की नौकरी जाने का एक मतलब यह होता है कि उन्हें अपने परिवार का सारा खर्च अपनी बचत से पूरा करना होता है। प्यूरिसर्च सेंटर के अनुसार, कोरोना की वजह से दुनिया भर में 5 करोड़ 40 लाख लोग मध्य वर्ग से नीचे खिसक गए हैं। भारत में स्थिति ज्यादा खराब है। अजीम प्रेमजी यूनिवर्सिटी की हाल की एक रिपोर्ट में बताया गया है कि भारत में 23 करोड़ से भी अधिक लोग गरीबी में चले गए हैं। इनमें वैसे लोग भी शामिल हैं जो बहुत मुश्किल से विभिन्न सरकारी योजनाओं की वजह से पिछले वर्षों में गरीबी रेखा से ऊपर आए थे। गरीबी में जाने का मतलब यह है कि किसी व्यक्ति की आमदनी राष्ट्रीय न्यूनतम मजदूरी- 375 रुपये से भी कम है। इस रिपोर्ट में पुरुषों से अधिक महिलाओं पर यह मार पड़ने की बात कही गई है। स्टेट ऑफ वर्किंग इंडिया की रिपोर्ट भी करीब 23 करोड़ लोगों के परिवारों के गरीबी में धकेल दिए जाने की बात कहती है। डॉ. मनमोहन सिंह के प्रधानमंत्री रहते हुए रिजर्व बैंक के गवर्नर रहे डी. सुब्बाराव का तो मानना है कि महामारी की वजह से अनौपचारिक क्षेत्र को जिस तरह का धक्का लगा है, वह दीर्घकालीन विकास संभावनाओं को कमजोर करेगा और ‘असमानताएं बढ़ती ही जाएंगी।’

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जिन लोगों की नौकरी चली गई है, वे अपनी बचत के पैसे से ही इन दिनों काम चला रहे हैं। यह मध्य वर्ग का वही हिस्सा है जो आर्थिक उदारीकरण की वजह से किसी प्रकार नव धनाढ्य वर्ग में धीरे-धीरे शामिल हो रहा था या क्रेडिट कार्ड लहराकर इस वर्ग में शामिल होने का दिखावा कर रहा था। अभी कल तक हमारे छोटे शहरों-कस्बों की गरीबी सतह से उठकर ऊंची उड़ानें भरने को पर तौल रहे इस नव मध्यवर्ग की तादाद और अरमान भारत के लिए गर्व का विषय थे। सेवा क्षेत्र हो या आईटी- हर कहीं देश-विदेश में चमकीले भारतीय सपने फल फूल रहे थे। आज वही नवोदित मध्यवर्ग अपने नए डैने खोकर फिर से धूलधूसरित है। हालात कैसे हैं, इसे मुंबई के मोतीलाल ओसवाल फिनांशिएल सर्विसेस लिमिटेड के अर्थशास्त्री निखिल गुप्ता ने अभी हाल में आंकड़ों के आधार पर बताया। उनके अनुसार, दिसंबर में भारतीय परिवारों की सेविंग 22.1 प्रतिशत तक गिर गई थी जबकि यह पिछले साल जून में 28.1 प्रतिशत थी। गुप्ता ने कहा भी कि सेविंग तो कम ही हो रही, उसी तुलना में सामानों का उपभोग भी कम हो रहा है। वैसे, यह सब वैसा ही है जैसे एक ऋषि के वरदान से चूहा राजा बन गया लेकिन उसे बहुत महत्वाकांक्षी बनता देखकर गुस्साए ऋषि ने शाप दिया ‘पुनर्मूषको भव!’, यानी फिर चूहा बन जा! क्रेडिट कार्ड और बैंक लोन के बल पर इधर अचानक फलने फूलने लगा हमारा मध्यवर्ग भी अपने अति महत्वाकांक्षी और शाह खर्च बनने का वैसा ही मोल चुका रहा है।

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गाजियाबाद के वैशाली में रहने वाले मुकेश कुमार की कहानी से स्थिति का अदाजा मिल सकता है। वह फूड्स एंड बेवरेजेस के एकस्टार्ट-अप में सुपरवाइजर और ट्रेनर थे। उनकी सैलरी कम थी, पर उन्हें भविष्य में बेहतरी की उम्मीद थी। कोरोना की पहली लहर में ही उनकी कंपनी बंद हो गई। मुकेश ने बेटे की स्कूल फीस और फ्लैट की ईएमआई देने के लिए अपनी जो कुछ भी बचत थी, उसका सहारा लिया। किसी तरह कुछ दोस्तों से उधार भी लिया। पत्नी एक छोटे से स्कूल में पढ़ाती है। किसी तरह उससे थोड़ा-बहुत घर का खर्च निकल जाता। नवंबर में स्थितियां कुछ सुधरीं तो मुकेश ने दूसरी जगह और कम पैसे में नौकरी शुरू की। पर दूसरी लहर ने फिर सब तबाह कर दिया। हालात इतने खराब हैं कि उसे यह नहीं सूझ रहा है कि वह आगे अपने परिवार को किस तरह से देखे। स्थितियों के जल्द ठीक होने की उन्हें अभी कोई उम्मीद नजर नहीं आती है।

इंदिरापुरम के उत्कर्षसेन के परिवार का हाल तो और भी खराब है। उसकी पत्नी एक निजी बैंक में नौकरी करती थी। पहली लहर में उसकी नौकरी चली गई। उसके थोड़े दिनों बाद खुद उसकी नौकरी चली गई। जो रिश्तेदार मदद कर रहा था, उसकी मृत्यु हो गई। इसी बीच उसकी पत्नी बीमार हुई और उसकी डायलिसिस शुरू हो गई। नवंबर में उसे नौकरी मिली। लेकिन उसे कोविड हो गया। वह ठीक हो रहा है, पर उसे पता नहीं कि उसकी नौकरी बची भी है या नहीं।

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पिछले दिनों यह हवा तो खूब बनाई गई कि सरकारी ही नहीं, निजी कंपनियों ने भी अपने यहां नौकरी करने वाले वेतनभोगी लोगों के हेल्थइंश्योरेंस कार्ड बनवाए हैं। लेकिन दो-तीन बातें समझने वाली हैं। इंटरनेशनल जर्नल ऑफ कंटेम्पररी रिसर्च एंडरिव्यू(आईजेसीआरआर) ने पिछले साल जून में अपनी एकरिपोर्ट में अप्रैल, 2017 में जारी राष्ट्रीय हेल्थ प्रोफाइल के आधार पर बताया कि ‘सिर्फ 27 प्रतिशत भारतीयों, अर्थात 35 करोड़ लोग हेल्थ कवर में आते हैं। इनमें से 77 प्रतिशत लोग सार्वजनिक बीमा कंपनियों द्वारा कवर किए जाते हैं।’ इसमें दो-तीन बातें समझने की जरूरत हैः इनमें से कितने लोगों को कोविड के इलाज की सुविधा मिल पा रही है, यह कहना मुश्किल है। अस्पताल का पूरा खर्च उनकी इंश्योरेंस कंपनी दे रही है, यह संदेहास्पद ही है क्योंकि निजी अस्पताल जितना भारी- भरकम बिल थमा रहे हैं, वे हर व्यक्ति के कवर के अनुरूप नहीं है- हर स्तर पर नौकरी करने वाले व्यक्ति का बीमा ज्यादा राशि का नहीं होता। जिन्होंने घर पर रहकर इलाज कराया, उन्हें बीमा कंपनियां अमूमन कोई भुगतान नहीं करतीं और जिनकी नौकरी इस महामारी में चली गई, उनमें से किसी को इस बीमा का कोई लाभ नहीं मिला। इसलिए भी आईजेसीआरआर की यह रिपोर्ट कोरोना में मध्य वर्गके ‘सबसे अधिक प्रभावित’ होने की बात कहती है। और सबसे अधिक प्रभावित वे लोग रहे होंगे जिनकी नौकरी चली गई।

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