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बिहार वोटर लिस्ट के लिए आधार, वोटर आईडी और राशन कार्ड को शामिल करने से चुनाव आयोग का इनकार

बिहार एसआईआर पर अपना जवाबी हलफनामा दायर करते हुए चुनाव आयोग ने सुप्रीम कोर्ट के उस सुझाव को मानने से इनकार कर दिया है जिसमें आधार, वोटर कार्ड और राशन कार्ड को पात्रता के लिए शामिल करने को कहा गया था।

दिल्ली स्थित चुनाव आयोग का मुख्यालय
दिल्ली स्थित चुनाव आयोग का मुख्यालय 

बिहार में मतदाता सूची के चल रहे विशेष गहन पुनरीक्षण (एसआईआर) के लिए आधार, मतदाता पहचान पत्र (वोटर आईडी) और राशन कार्ड को सबूत के तौर पर मानने के सुप्रीम कोर्ट के सुझाव को चुनाव आयोग ने खारिज कर दिया है। सोमवार को सुप्रीम कोर्ट में  दायर एक जवाबी हलफनामे में चुनाव आयोग ने कहा कि यह निर्धारित करना उसका "संवैधानिक अधिकार" है कि मतदाताओं द्वारा नागरिकता की आवश्यकता पूरी की गई है या नहीं, लेकिन मतदाता के रूप में अयोग्य ठहराए जाने के कारण किसी व्यक्ति की नागरिकता "समाप्त नहीं" होगी।

ध्यान रहे कि बिहार में एसआईआर पर चिंता जाहिर करने वाली याचिकाओं पर सुनवाई करते हुए, सुप्रीम कोर्ट ने चुनाव आयोग को एसआईआर पर आगे बढ़ने से रोकने से तो इनकार कर दिया था, लेकिन सुझाव दिया था कि चुनाव आयोग मतदाता सूची को अपडेट करने के लिए आधार, मतदाता पहचान पत्र (वोटर आईडी) और राशन कार्ड पर भी विचार करे। कोर्ट ने चुनाव आयोग को 21 जुलाई तक जवाबी हलफनामा दाखिल करने को कहा था। मामले की अगली सुनवाई 28 जुलाई को होगी।

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इंडियन एक्सप्रेस और लाइव लॉ की खबर के मुताबिक अपने जवाबी हलफनामे में, चुनाव आयोग ने कहा है कि आधार नागरिकता का प्रमाण नहीं है, और विभिन्न उच्च न्यायालयों ने भी इस बात को माना है। आयोग ने कहा, "आधार को गणना फॉर्म में दिए गए 11 दस्तावेज़ों की सूची में शामिल नहीं किया गया है, क्योंकि यह अनुच्छेद 326 के तहत पात्रता की जांच में मदद नहीं करता है। हालांकि, इसका मतलब यह नहीं है कि पात्रता साबित करने के लिए आधार को अन्य दस्तावेज़ों के पूरक के रूप में इस्तेमाल नहीं किया जा सकता।"

बता दें कि चुनाव आयोग ने जो फॉर्म वोटर लिस्ट रिवीजन के लिए जारी किए हैं उसमें वोटर आईडी कार्ड के नंबर और वैकल्पिक आधार नंबर का हवाला दिया गया है।

चुनाव आयोग ने अपने हलफनामें में यह भी कहा कि "बड़े पैमाने पर फ़र्ज़ी राशन कार्ड जारी किए गए हैं", और हालांकि आधार-सीडिंग से मदद मिली है, फिर भी समस्याएं अभी भी बनी हुई हैं। चुनाव आयोग ने 7 मार्च को सरकार द्वारा जारी एक प्रेस रिलीज का भी हवाला दिया है जिसमें कहा गया था कि केंद्र ने 5 करोड़ से ज़्यादा फ़र्ज़ी राशन कार्ड धारकों को हटाया है।

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मतदाता पहचान पत्रों के बारे में, चुनाव आयोग ने कहा: "...ईपीआईसी (मतदाता फोटो पहचान पत्र), अपनी प्रकृति से, केवल मतदाता सूची की वर्तमान स्थिति को दर्शाता है और अपने आप में, मतदाता सूची में शामिल होने के लिए पूर्व-निर्धारित पात्रता स्थापित नहीं कर सकता।" चुनाव आयोग ने दोहराया कि 11 दस्तावेजों की सूची सांकेतिक है, संपूर्ण नहीं, इसलिए निर्वाचन पंजीकरण अधिकारी मतदाताओं द्वारा दिए जाने वाले सभी दस्तावेजों पर विचार कर सकते हैं।

ध्यान रहे कि चुनाव आयोग के 24 जून के आदेश के अनुसार, बिहार के सभी मौजूदा लगभग 7.89 करोड़ मतदाताओं को मतदाता सूची में बने रहने के लिए 25 जुलाई तक गणना फॉर्म भरना जरूरी है।

चुनाव आयोग की इस प्रक्रिया से राजनीतिक दलों और नागरिक समाज समूहों में यह चिंता पैदा हो गई है कि वास्तविक मतदाता चुनाव आयोग द्वारा निर्धारित 11 दस्तावेज़ों में से एक भी प्रस्तुत न कर पाने के कारण मताधिकार से वंचित हो सकते हैं। एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स और विपक्षी नेताओं सहित कई लोगों ने सुप्रीम कोर्ट में इस संबंध में याचिकाएं दायर की हैं।

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पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी समेत विपक्षी नेताओं ने चिंता जताई है कि यह प्रक्रिया चुपके से राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (एनआरसी) तैयार करने के समान होगी। 10 जुलाई को सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि नागरिकता का निर्धारण गृह मंत्रालय का अधिकार क्षेत्र है।

चुनाव आयोग ने कहा कि उसे अनुच्छेद 324 और 326 के तहत वोटर की योग्यता की जांच करने का अधिकार है। लेकिन आयोग ने यह भी कहा है कि अनुच्छेद 326 के तहत किसी का नाम अगर वोटर लिस्ट में नहीं आता है तो यह उस व्यक्ति की नागरिकता रद्द करने का कारण नहीं बनेगा। याचिकाकर्ताओं की इस दलील पर कि नागरिकता निर्धारित करने का अधिकार केंद्र सरकार को है, न कि चुनाव आयोग को, इस पर आयोग ने कहा कि जब मतदाता सूची में नाम शामिल करने की बात आती है तो सबूत मांगना उसके अधिकार में है।

चुनाव आयोग ने कहा कि अधिनियम की धारा 3 (जन्म से नागरिकता) के अंतर्गत आने वाले लोगों पर धारा 9 (नागरिकता का त्याग) और धारा 10 (नागरिकता की समाप्ति) लागू नहीं होती। आयोग ने कहा, "इसलिए, चुनाव आयोग जन्म से नागरिकता का दावा करने वाले व्यक्ति से मतदाता सूची में नाम दर्ज कराने के लिए प्रासंगिक दस्तावेज़ प्रस्तुत करने की मांग करने का पूर्ण अधिकार रखता है।"

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बता दें कि अपने आदेश के अनुसार, चुनाव आयोग ने उन सभी लोगों से, जिनका नाम 2003 की मतदाता सूची में नहीं है, अपनी आयु के अनुसार दस्तावेज़ जमा करने को कहा है। 1 जुलाई, 1987 से पहले जन्मे व्यक्तियों के लिए, उनकी जन्मतिथि और/या जन्मस्थान के दस्तावेज़ आवश्यक हैं; 1 जुलाई, 1987 और 2 दिसंबर, 2004 के बीच जन्मे व्यक्तियों के लिए, स्वयं और माता-पिता में से एक के दस्तावेज़ आवश्यक हैं; और 2 दिसंबर, 2004 के बाद जन्मे व्यक्तियों के लिए, स्वयं और माता-पिता दोनों के दस्तावेज़ आवश्यक हैं। हालांकि चुनाव आयोग ने इस भेद का कारण नहीं बताया।

आयोग ने कहा है कि, “नागरिकता अधिनियम, 1955 की धारा 9 और 10 की तरह, आयोग एक संवैधानिक निकाय होने के नाते, यह निर्धारित करने के लिए संवैधानिक अधिकार रखता है कि मतदाता सूची में शामिल होने के अधिकार का दावा करने वाले व्यक्ति द्वारा नागरिकता की संवैधानिक आवश्यकता पूरी की गई है या नहीं।

आयोग ने आगे कहा है कि, “... नागरिकता अधिनियम, 1955 को चुनाव आयोग के संवैधानिक अधिकार को छीनने के रूप में नहीं समझा जाना चाहिए, क्योंकि एक संसदीय कानून इस अधिकार को नहीं छीन सकता है। इसके अलावा, एक संसदीय कानून के तहत प्रत्यायोजित अधिकार का सम्मान भारत के संविधान द्वारा प्रदत्त ईसीएल के अधिकार से अलग नहीं हो सकता है। इस तरह के अधिकार से इनकार करने का परिणाम अवैध प्रवासियों और विदेशियों को मतदाता सूची में शामिल करना होगा।”

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चुनाव आयोग ने मतदाताओं पर सबूत पेश करने का भार डालने के तर्क को भी सही ठहराया है। उसने कहा है कि, "जहां तक नागरिकता साबित करने के भार का सवाल है, यह दलील दी जाती है कि नागरिकता साबित करने के लिए ज़रूरी दस्तावेज़ भारत का नागरिक होने का दावा करने वाले व्यक्ति के विशेष ज्ञान में हैं। इस साक्ष्य की प्रकृति और इस तथ्य को देखते हुए कि ऐसा साक्ष्य संबंधित व्यक्ति के व्यक्तिगत ज्ञान में होना चाहिए, न कि राज्य के अधिकारियों के, उक्त व्यक्ति के लिए ऐसा प्रमाण प्रस्तुत करना अनिवार्य है।"

आयोग ने मतदाता के रूप में पंजीकरण के लिए और नागरिकता की जांच के दौरान प्रमाण प्रस्तुत करने की ज़िम्मेदारी के बीच भी अंतर स्पष्ट किया। आयोग ने कहा कि "मतदाता सूची की एसआईआर करना उसके अधिकार क्षेत्र में है" और इस प्रक्रिया में कई स्तरों पर जांच की जाती है ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि किसी भी मतदाता का नाम बिना उचित प्रक्रिया के हटाया न जाए।

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एसआईआर की कवायद की ज़रूरत पर, चुनाव आयोग ने कहा कि चूंकि पिछले दो दशकों में कोई व्यापक संशोधन नहीं हुआ है, हालांकि सारांश संशोधन सालाना होते रहे हैं, इसलिए एक “ज़्यादा कठोर और बुनियादी कवायद” की ज़रूरत है। उसने कहा कि कई राजनीतिक दलों ने मतदाता सूचियों में अशुद्धियों को लेकर चिंता जताई है।

चुनाव आयोग ने कहा, "ये चिंताएं संक्षिप्त पुनरीक्षण (समरी रिवीज़न) प्रक्रिया की सीमाओं से सामने आती हैं, जिसमें मतदाता सूचियों को नए सिरे से तैयार करने की जरूरत नहीं होती। इसके जवाब में, और मतदाता सूची की विश्वसनीयता में जनता का विश्वास बहाल करने के लिए, आयोग ने एसआईआर शुरू किया है।“ आयोग ने दावा किया है कि, “एसआईआर में सटीकता, पारदर्शिता और समावेश सुनिश्चित करने के लिए मतदाता सूचियों की पूरी, जमीनी स्तर पर तैयारी शामिल है।"

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