हालात

हिंदी पट्टी की सत्ता-राजनीति में गैंगस्टरों का बोलबाला

हाल के दिनों में मिर्जापुर, भौकाल, पाताललोक, रक्तांचल जैसी कई ऐसी रोमांचक वेबसीरीज आई हैं, जिनमें माफिया डॉन और गैंगस्टरों के कारनामे और खूनी खेल दिखाए गए हैं.

Photo by Sunil Ghosh/Hindustan Times via Getty Images
Photo by Sunil Ghosh/Hindustan Times via Getty Images 

हिंदी पट्टी खासकर उत्तर प्रदेश के विशाल भूभाग में 1960 का दशक दस्यु और डकैतों के आतंक का दौर था लेकिन धीरे धीरे उनकी जगह गैंगस्टरों और दबंगों ने ले ली. 70 का दशक खत्म होते होते राजनीति का अपराधीकरण शुरू हो चुका था. 90 के दशक में अर्थव्यवस्था के दरवाजे खुल रहे थे और राजनीतिक और सामाजिक मुक्ति के रास्ते एक ओर बहुसंख्यकवाद से, तो दूसरी ओर नए माफिया के विशाल बाड़ों से बंद हो रहे थे.

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80 लोकसभा सीटों और 403 विधानसभा सीटों वाले राज्य उत्तर प्रदेश में सवर्ण जातियों से ताल्लुक रखने वाले गैंगस्टर बहुतायत में आए और अपराध और दहशत के नए अंधकार के बीच नेताओं, राजनीतिक दलों और पुलिस व्यवस्था पर भी सवाल उठने लगे. आजादी के पहले से ही चले आ रहे सामंतवाद, सांप्रदायिक विभाजन, छुआछूत और जातीय शोषण के बीच राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं, वर्चस्व की लड़ाइयों को जीतने और तात्कालिक और दूरगामी स्वार्थों को हासिल करते रहने के लिए नेताओं ने अपने अपने प्रभाव क्षेत्रों और जातीय गुटबंदियों में दबंगों और शोहदों को प्रश्रय दिया.

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यही दबंग एक समय के बाद अपनी ताकत का दायरा फैलाते हुए गैंगस्टर के रूप में स्थापित होते हैं. उन पर कई संगीन अपराधों के मुकदमे चलते हैं, वे हिस्ट्रीशीटर होते जाते हैं, लेकिन जुर्म की उनकी फाइलें उनके सामाजिक और राजनीतिक दबदबे को और ऊपर उठा देती हैं. इसका सबसे ताजा उदाहरण कानपुर के गैंगस्टर विकास दुबे का है, जो जमानत पर रिहा था और नाटकीय ढंग से गिरफ्तार होने और कथित मुठभेड़ में मारे जाने से पहले, यूपी पुलिस टुकड़ी का सफाया करने का दुस्साहस कर चुका था.

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दुबे मुठभेड़ की जांच सुप्रीम कोर्ट के रिटायर्ड जज की अगुवाई वाली कमेटी करेगी. मीडिया रिपोर्टो के मुताबिक सुप्रीम कोर्ट में हुई सुनवाई के दौरान चीफ जस्टिस ने कहा कि इस जांच से कानून का शासन मजबूत ही होगा और पुलिस का मनोबल नहीं टूटेगा. आखिर ऐसी नौबतें क्यों आ रही हैं जिनसे ड्यूटी पर मुस्तैद पुलिस का ही नहीं, रोजमर्रा के जीवन में जूझते आम नागरिक का भी मनोबल टूटता है, कानून का शासन हिलने लगता है और लोकतांत्रिक व्यवस्था ही दांव पर लगी नजर आने लगती हैं? क्या आज की राजनीति को इस गैंगस्टर और माफिया संस्कृति से निजात दिलाई जा सकती है? अगर हां, तो कैसे? ये सवाल आज जितने सार्थक और मौजूं दिखते हैं, उतने ही लाचार और निरुपाय भी.

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दरअसल, श्रीप्रकाश शुक्ल से लेकर विकास दुबे तक ये लोग न सिर्फ राजनीतिक व्यवस्था से प्रश्रय पाते हैं, बल्कि वे उसके प्रतीक भी बन चुके हैं. देश के अधिकांश हिस्सों पर इसकी छाप दिखती है. राजनीति के अपराधीकरण के मुद्दे पर बहुत लिखा बोला और अध्ययन किया जा चुका है. आंकड़े तथ्य और मिसालें सब हैं. चुनाव आयोग से लेकर जांच एजेंसियों तक कोई संस्था ऐसी नहीं, जो इस बात से अनभिज्ञ हो और इसके खतरों के बारे में न जानती हों. लेकिन इसे खत्म करना तो दूर, इस पर अंकुश लगाने की कोशिशें भी कामयाब नहीं हो पाईं. वरना क्या कारण है कि विकास दुबे की हरकतों की जानकारी होने के बावजूद उसके खिलाफ ठोस कार्रवाई कभी नहीं हुई. बताया जाता है कि दुबे पर 60 से ज्यादा संगीन मामले दर्ज थे. यह भी कहा जाता है कि कुख्याति के दम पर लेकिन उसके निशान पौंछते हुए, दुबे राजनीति की सीढ़ियां चढ़ते हुए सफेदपोश के खोल में घुस जाने का इंतजार कर रहा था. उसे शायद अंदाजा नहीं था कि उसकी राजनीतिक लालसा और नए वजूद की कामना के ऊपर भी और बड़ी लालसाएं मंडरा रही थीं.

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यूपी के आपराधिक भूगोल को पूर्वांचल धुरी माना जाता रहा है. खासकर गोरखपुर शहर गैंग और माफिया वर्चस्वों का हिंसक मैदान रहा है. एक वक्त था जब वाहनों के काफिले की लंबाई और हथियारों के जखीरे से वर्चस्व तय होता था. धीरे धीरे आपराधिक वारदात की गिनती और जघन्यता की मात्रा और स्तर से होने लगा. आगे चलकर राजनीतिक रसूख भी पैमाना बना. गोरखपुर न्यूजलाइन वेबसाइट के संपादक मनोज सिंह के द वायर पर प्रकाशित एक विश्लेषण के मुताबिक गोरखपुर को उस दौर में "दूसरा शिकागो” कहा जाने लगा था. जिसका जितना बड़ा ‘रसूख' वो उतना बड़ा डॉन. दहशत का दायरा प्रताप की तरह फैलाया गया. और इस तरह हिंदी पट्टी की सामाजिक और राजनीतिक व्यवस्था में गैंगस्टरों की जगह बनती गई. इसे चुनौती देना आसान नहीं था. अपराध और राजनीति के बीच पारस्परिक लाभ के संबंध की छानबीन की कोशिशें पुलिस आंकड़ों से लेकर अकादमिक अध्ययनों, फिल्मों और साहित्यिक रचनाओं में तो दिखीं लेकिन इसे दूर करने की राजनीतिक इच्छाशक्ति में नहीं ढल सकीं.

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हाल के दिनों में हिंदी पट्टी और खासकर पूर्वांचल की राजनीतिक सामाजिक सांस्कृतिक पृष्ठभूमि पर आधारित मिर्जापुर, भौकाल, पाताललोक, रक्तांचल जैसी कई ऐसी रोमांचक वेबसीरीज आई हैं, जिनमें माफिया डॉन और गैंगस्टरों के कारनामे और खूनी खेल दिखाए गए हैं. हिंदी के मुख्यधारा सिनेमा में भी ऐसे चित्रण बड़े पैमाने पर हुए हैं. कुछ चर्चित समकालीन फिल्मकारों ने पूर्वांचल के अंधेरों और रक्तपात को बॉलीवुडीय अंदाज में पेश किया है. अनुराग कश्यप की दो भागों में बनी गैंग्स ऑफ वासेपुर, विशाल भारद्वाज की मकबूल, अनुराग बसु की गैंगस्टर और तिग्मांशु धूलिया की बुलेट राजा, साहब बीबी और गैंगस्टर और मिलन टॉकीज जैसी फिल्मों में लोगों ने दिलचस्पी दिखाई. हिंसा के महिमामंडन के अलावा हिंसक शक्ति के प्रति अनुराग के मनोवैज्ञानिक कारणों की पूरी छानबीन अभी बाकी है.

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हिंदी साहित्य भी इन अंधेरों की शिनाख्त करता रहा है. श्रीलाल शुक्ल के मशहूर उपन्यास "राग दरबारी” से लेकर युवा कथाकार चंदन पांडेय के नए उपन्यास "वैधानिक गल्प” तक इस भयावह यथार्थ की छायाएं देखी जा सकती हैं. यूपी के राजनीतिक और आपराधिक माफिया के फैलाए अंधेरों के बारे में अदम गोंडवी की गजलें और नज्में भला कैसे भुलायी जा सकती हैं. जर्मन दार्शनिक और समाजशास्त्री माक्स वेबर ने 1919 में म्युनिख शहर में "पॉलिटिक आल्स बेगूफ” (पॉलिटिक्स इज द वोकेशन) शीर्षक वाले विख्यात व्याख्यान में कहा था कि राजनीति को पेशा बनाने के दो तरीके हैं: या तो राजनीति ‘के लिए' जिंदा रहा जाए या राजनीति ‘के सहारे.' वेबर का यह कथन भारत में और खासकर हिंदी पट्टी में अपराध और राजनीति के गठजोड़ और वहां पनप चुकी गैंगस्टर संस्कृति पर भी बखूबी लागू होता है.

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