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सरकार ने संसद में ही सुन ली होती विपक्ष की बात आज सड़कों पर नहीं होते देश के लाखों किसान

केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार ने देश के उस तबके को सर्दी की ठिठुरन और कोरोना के खतरे के बीच खुलेआम आसमान के नीचे सोने को मजबूर कर दिया है जो देश का पेट पालता है। लेकिन अगर सरकार ने कृषि बिलों पर विपक्ष के एतराज को अनदेखा नहीं किया होता, तो आज सड़कों पर नहीं होते लाखों किसान।

फोटो : सोशल मीडिया
फोटो : सोशल मीडिया 

तारीख पे तारीख, तारीख पे तारीख...फिल्म अभिनेता सनी देओल का यह फिल्मी डायलॉग खूब मशहूर है और अदालती मुकदमों में होने वाली देरी पर खूब इस्तेमाल भी होता है। लेकिन विडंबना देखिए कि सनी देओल आज जिस राजनीतिक दल बीजेपी के सांसद हैं, उसी बीजेपी की सरकार किसानों को उनकी जायज मांगों के लिए सिर्फ तारीख पे तारीख ही दे रही है। किसान दिसंबर की सर्दी और कोरोना के खतरे के बीच अपने खेल-खलिहान और घर-परिवार छोड़कर राजधानी दिल्ली में खुले आसमान के नीचे आंदोलन कर रहे हैं, लेकिन सरकार जिस बेदिली से उनके साथ कई दौर की बातचीत कर चुकी है, उससे सरकारी नीयत धीरे-धीरे सामने आने लगी है।

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सरकार की नीयत तो हालांकि उसी वक्त साफ हो गई थी जब उसने अपने ही देश के अन्नदाता के लिए दिल्ली दरबार के दरवाजों पर पहरे बैठा दिए। सरकार के कानों तक अपनी बात पहुंचाने आए किसानों के साथ दुश्मनों जैसा बरताव किया गया, उनके रास्ते में खाइयां खोदी गईं, कंटीले तार बिछाए गए, आंसू गैस के गोले फेंके और जल तोपों से हमले किए। लेकिन जमीन का सीना चीरकर देश का पेट पालने वाले कहां डरने वाले थे। उन्होंने हाथ नहीं उठाया, पलटकर हमला नहीं किया, कहा सिर्फ इतना कि हमारी इतनी बात तो सुन लोग कि हमारे ही बारे में बनाए गए कानून में हमारी राय क्यों नहीं लगी गई? हमारी फसलों की कीमत तय करने का अधिकार क्यों बड़े-बड़े कार्पोरेट को दिया जा रहा है? हमारे साथ कोई धोखाधड़ी हो जाए तो हमसे अदालत जाने का संवैधानिक अधिकार क्यों छीना जा रहा है?

लेकिन अपने ही इको चैम्बर में बैठी केंद्र की मोदी सरकार के कान पर जूं नहीं रेंगी। नतीजा क्या हुआ, दिल्ली की घेराबंदी कर किसान ने ऐलान कर दिया कि अब आर-पार की बात होगी।

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लेकिन यह सब अचानक नहीं हुआ...

दिल्ली के विज्ञान भवन में अब अगर मोदी सरकार किसानों से बात कर रही है और किसान वही मुद्दे उठा रहे हैं जो विपक्ष ने इन कानूनों को संसद में पेश करते हुए उठाए थे, और सरकार ने तानाशाही करते हुए उन्हें अनदेखा कर दिया था, तो इसके लिए मोदी सरकार खुद ही तो जिम्मेदार है।

विपक्ष ने सरकार से यही आग्रह किया था इन कृषि बिलों को जल्दबादी में पास न किया जाए, बल्कि संसदीय समिति के पास भेज दिया जाए ताकि इसके नफे-नुकसान पर चर्चा हो और इसकी खामियों को दूर कर खूबियों को देश के सामने रखा जा सके। विपक्ष ने एमएसपी, एपीएमसी यानी मंडी व्यवस्था, कांट्रेक्ट फार्मिंग यानी ठेके पर खेती और उसके विवाद निवारण की प्रक्रिया आदि पर सवाल उठाए थे। किसान भी तो आज यही मुद्दे सरकार के सामने उठा रहे हैं।

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और हां ध्यान रहे इन मुद्दों को सिर्फ विपक्षी दलों ने ही नहीं बल्कि सरकार के समर्थक माने जाने वाले बीजेडी और एआईएडीएमके ने भी संसद में उठाया था। लेकिन बहुमत के अहंकार में डूबी मोदी सरकार के कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर ने 17 सितंबर को लेकसभा में कहा, “मैं किसानों से अपील करूंगा कि वे राजनीतिक दृष्टि से किए गए किसी भी दुष्प्रचार से प्रभावित न हों...”

अगर सिलसिलेवार देखें कि इन कानूनों को लेकर संसद में किस दल ने क्या कहा तो आइने की तरह साफ हो जाएगा कि खामी इन कानूनों में है, मोदी सरकार की दृष्टि में है न कि विपक्ष के नजरिए या किसानों की मांगों में।

लोकसभा में जब सरकार ने कृषि कानून पेश किए तो इस पर चर्चा की शुरुआत में लुधियाना से कांग्रेस सांसद रवनीत सिंह ने कहा था, “अगर आप पंजाब के किसानों को मुसीबत में डालेंगे, तो ध्यान रखना पूरा देश इसका खामियाजा भुगतेगा, अगर आप किसानों पर त्याचार करेंगे तो देश कैसे काम करेगा। पंजाब और हरियाणा से हमारे देस के जवान भी आते हैं, इसका असर हो सकता है...”

वहीं चर्चा के अंत में लोकसभा में कांग्रेस संसदीय दल के नेता अधीर रंजन चौधरी ने कहा था, “आप कह रहे हैं कि इससे किसानों को फायदा होगा। आप दिखा दीजिए कि कौन सा किसान इससे खुश है। हरियाणा और पंजाब के किसान नाराज हैं, वहां अशांति बढ़ रही है...”

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इसी कानून पर राज्यसभा में 20 सितंबर को अकाली दल सांसद नरेश गुजराल का बयान था, “पंजाब के किसानों को कमजोर मत समझना मंत्री जी, मेरी सिर्फ एक दरख्वास्त है, पंजाब और हरियाणा में जो चिंगारी उठी है उसे आग मत बनने दीजिए...वरना देश के इतिहास में लिखा जाएगा कि लम्हों ने खता की थी, सदियों ने सजा पाई...”

पूर्व प्रधानमंत्री और जेडीएस नेता एच डी देवेगौड़ा का भी यही कहना था, “किसानों का एक डर यह भी है कि इन कानूनों से एमएसपी खत्म हो जाएगी, इससे वे प्राइवेट प्लेयर के रहमोकरम पर आश्रित हो जाएंगे...और जिस तरह जल्दबाजी में इन कानूनों को लाया जा रहा है इससे किसानों का शक गहरा गया है...” वहीं एआईएडीएमके नेता एस आर बालासुब्रहमण्यम ने कहा था कि कानून एमएसपी पर खामोश है जो कि किसानों के अस्तित्व का बड़ा आधार है। सरकार को एमएसपी को इस कानून का अभिन्न अंग बनाना चाहिए।

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कांग्रेस के प्रताप सिंह बाजवा का भी तर्क था कि, “कृषि और मंडी संविधान के सातवें अनुच्छेद के मुताबिक राज्यों का विषय है, लेकिन इन कानूनों में राज्यों को बाहर कर संघीय ढांचे से छेड़छाड़ की जा रही है, हम नहीं चाहते कि कृषि मंडियों और एमएसपी को छेड़ा जाए।” डीएमके सांसद के शनमुगसुंदरम ने भी एमएसपी का मुद्दा उठाया था को शिवसेना के अरविंद सावंत ने कहा था कि ऐसा प्रावधान किया जाना चाहिए कि कोई भी एमएसपी से कम पर फसल न खरीद सके ताकि किसान का नुकसान न हो।

इसके अलावा टीडीपी के राम मोहन नायडू और सीपीए के बिनॉय बिस्वास ने भी एमएसपी का मुद्दा उठाया था। सीपीआई ने कहा था कि अगर कृषि मंत्री एमएसपी को इस कानून में शामिल कर लेत हैं तो यकीन मानिए कि आपकी नीतियों केविरोध के बावजूद हम इस कानून का समर्थन करें। लेकिन इन सबके जवाब में कृषि मंत्री नरेंद्र सिंग तोमर ने सिर्फ इतना कहा था कि, “एमएसपी आधारित खरीद पहले भी होती रही है और आगे भी होती रहेगी।”

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इसी तरह विवाद की स्थिति में किसानों की परेशानियों को उजागर करते हुए टीडीपी ने कहा था कि, “आखिर विवाद की स्थिति में किसान को अदालत जाने की इजाजत क्यों नहीं है...यह तो पक्षपात हुआ...ऐसे में सरकार को एक एग्रीकल्चर ट्रिब्यूनल बनाने पर विचार करना चाहिए...”

इस कानून में विवादों के निपटारे की खामियों को उजागर करते हुए कांग्रेस के एस ज्योतिमनी ने तर्क दिया था, “कानून कहता है कि विवाद की स्थिति में किसान कंसीलिएशन बोर्ड के पास जाएगा, वहां 30 दिन तक कुछ नहीं हुआ तो एसडीएम के पास जाएगा और वहां भी कुछ नहीं हुआ तो डीएम के पास जाएगा..इस प्रक्रिया से गरीब किसान की तो जान निकल जाएगी...और फिर उसके सामने तो बड़े-बडे कार्पोरेट के महंगे वकीलों की फौज होगी..और फिर इस सारी मानसिक प्रताड़ना के बाद भी उसे इंसाफ मिलेगा इसकी क्या गारंटी है...”

लेकिन नरेंद्र सिंह तोमर ने इतना कहकर पल्ला झाड़ लिया कि विवादों के निपटारने समुचित व्यवस्था कानून में की गई है।

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सवाल है कि आखिर वह कौन सी हड़बड़ी थी कि सरकार इन कानूनों की खामियों को सुनने तक को तैयार नहीं थी। और राज्यसभा में जिस तरह संसदीय परंपराओं और संवैधानिक व्यवस्था की धज्जियां उड़ाते हुए इन कानूनों को पास कराया गया वह स्वतंत्र भारत के संसदीय इतिहास का काला अध्याय बन चुका है।

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