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2024 में भारत के लिए विचार-5: अपने दुश्मन से लड़ने के लिए उसे जानो - कुमार केतकर 

नया वर्ष शुरु हो गया है। लेकिन बीते वर्षों में देश को एक सूत्र में पिरोए रखने वाला 'आइडिया ऑफ इंडिया' लुप्त प्राय हो गया है। ऐसे में इस आडिया के प्रति देश के कुछ प्रतिबद्ध चिंतित नागरिक नए साल में आशा के संकेत तलाश रहे हैं। पढ़िए पांचवी कड़ी...

भारत के नए और पुराने संसद भवन (फोटो : Getty Images)
भारत के नए और पुराने संसद भवन (फोटो : Getty Images) Hindustan Times

विपक्षी पार्टियों का ‘इंडिया’ गठबंधन वस्तुतः भारतीय राजनीति का सैद्धांतिक निर्माण है। उसी तरह ‘हिन्दुत्व’ एक सैद्धांतिक निर्माण है, सिवाय इसके कि इसने भारत में एक वर्ग की कल्पना को जकड़ लिया है। हालांकि भाजपा की जड़ें आरएसएस और कुछ हद तक हिन्दू महासभा में है, इसका आज के दिन का अवतार हिन्दुत्व की शुरुआती परिभाषाओं या परंपराओं से जन्म नहीं ले पाया है। वे शुरुआती विचार करीब सत्तर साल तक लोगों की कल्पना को प्रभावित नहीं कर पाए। 

हिन्दू महासभा 1915 में बनी, आरएसएस 1925 में। आठ साल पहले हिन्दू महासभा का शताब्दी वर्ष बिना किसी प्रचार-प्रसार गुजर गया और किसी का ध्यान इस ओर नहीं गया। लेकिन आपने आने वाले संघ शताब्दी वर्ष की तैयारियों को अनदेखा नहीं किया होगा, मानो यह भारत के लिए सभ्यतागत ऐतिहासिक घटना हो।

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कॉरपोरेट फैशन में, संघ ने महासभा का भार ग्रहण कर लिया है और उसने भाजपा को इसके कार्यों को सौंप दिया है जो संघ की ही शाखा है। लगभग पचास साल तक संघ और महासभा एक-दूसरे के प्रति बहुत ही वैरी रहे; जनसंघ और महासभा ने एक-दूसरे के खिलाफ चुनाव तक लड़े। 

6 दिसंबर, 1992 तक जब उग्र हिन्दुत्व झुंड बाबरी मस्जिद पर चढ़ गए और उसने उसे ध्वस्त कर दिया, आप देखेंगे कि यह पूरा हिन्दुत्व गिरोह जनता की कल्पना को भड़काने में विफल रहा था। लेकिन बाबरी मस्जिद को शहीद किए जाने के छह साल में भाजपा चौबीस पार्टियों को एकसाथ लाने और अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में सत्ता हथियाने में सक्षम हो गई। अपनी यात्रा के इस बिंदु पर संघ की वैश्विक दृष्टि पार्टी के वैचारिक हृदयस्थल तक बनी हुई थी। 2014 में नरेन्द्र मोदी के सत्ता में आने के बाद से यह बदलने लगी। संघ और जनसंघ आंदोलनों की तरह थे जो परंपरावादी मूल्यगत व्यवस्था और दक्षिणपंथी अर्थव्यस्थाओं का प्रतिनिधित्व करते थे लेकिन मोदी की भाजपा नाजी जर्मनी की शैली में पावर मशीन की तरह अधिक हो गई है। 

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‘इंडिया’ को समझना होगा कि यह सिर्फ दक्षिणपंथी राजनीतिक पार्टी से नहीं बल्कि ऐसे वैश्विक नव-उदारवादी चालबाज से लड़ रहा है जो माफिया की तरह काम और कार्रवाई करता है जिसे अंतरराष्ट्रीय कॉरपोरेट सैन्य-औद्योगिक गठबंधन का समर्थन हासिल है। 

यह मुश्किल लग सकता है, पर ‘इंडिया’ इसे कर सकता है। चुनावी अर्थों में, भाजपा के पास अब भी 31-37 प्रतिशत वोट ही हैं और वह भी हिन्दी पट्टी में केन्द्रित। दूसरे शब्दों में, 63-69 प्रतिशत मतदाता उनकी राजनीति का समर्थन नहीं करते। भाजपा उत्तर हिन्दीभाषी राज्यों की क्षेत्रीय पार्टी की तरह है, सच्चे अर्थ में राष्ट्रीय पार्टी नहीं है। दूसरी तरफ, ‘इंडिया’ ऐसा मोर्चा है जिसमें एक-दूसरे के खिलाफ रही विभिन्नताओं के लिए भी जगह है। अगर ‘इंडिया’ गठबंधन उस राष्ट्रीय चरित्र के संरक्षण के लिए विश्वसनीय रास्ता बनाता है, तो आशा बनी हुई है। 

(कुमार केतकर वरिष्ठ पत्रकार और राज्यसभा सदस्य हैं।)

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