Chandrayaan-3 ने चांद की सतह पर सफल लैंडिंग कर ली है। इसी के साथ भारत ने इतिहास रच दिया है। यह सफलता हासिल करने वाला भारत दुनिया का चौथा देश बन चुका है। आपको बता दें, ISRO का ये मिशन 23 अगस्त (बुधवार) को शाम 6.04 बजे चांद पर उतरा। इसी के साथ चंद्रमा पर उतरने वाला भारत दुनिया का चौथा देश बन गया।
इससे पहले अमेरिका, USSR (पूर्व सोवियत संघ) और चीन ये कारनामा कर चुके हैं। भारत के चंद्रयान-3 की सबसे खास बात ये है कि वह साउथ पोल (दक्षिणी ध्रुवीय क्षेत्र) पर उतरा, जो अब तक कोई भी देश नहीं कर पाया था।
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विक्रम लैंडर 25 किलोमीटर की ऊंचाई से चांद पर उतरने की यात्रा शुरू की। अगले स्टेज तक पहुंचने में उसे करीब 11.5 मिनट लगे। यानी 7.4 किलोमीटर की ऊंचाई तक। 7.4 km की ऊंचाई पर पहुंचने तक इसकी गति 358 मीटर प्रति सेकेंड थी। अगला पड़ाव 6.8 किलोमीटर था।
इसके बाद 68 km की ऊंचाई पर गति कम करके 336 मीटर प्रति सेकेंड हो गई। अगला लेवल 800 मीटर था। 800 मीटर की ऊंचाई पर लैंडर के सेंसर्स चांद की सतह पर लेजर किरणें डालकर लैंडिंग के लिए सही जगह खोजने लगे।
150 मीटर की ऊंचाई पर लैंडर की गति 60 मीटर प्रति सेकेंड थी। यानी 800 से 150 मीटर की ऊंचाई के बीच। 60 मीटर की ऊंचाई पर लैंडर की स्पीड 40 मीटर प्रति सेकेंड थी। यानी 150 से 60 मीटर की ऊंचाई के बीच। 10 मीटर की ऊंचाई पर लैंडर की स्पीड 10 मीटर प्रति सेकेंड थी। चंद्रमा की सतह पर उतरते समय यानी सॉफ्ट लैंडिंग के लिए लैंडर की स्पीड 1.68 मीटर प्रति सेकेंड थी।
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ISRO के चेयरमेन एस सोमनाथ ने इस मिशन की सफलता को लेकर कहा कि माननीय प्रधानमंत्री जी ने मुझे बुलाया।उन्होंने मुझे और पूरे इसरो परिवार को बधाई दी है।मैं सभी भारतीयों और उन सभी को धन्यवाद देना चाहता हूं जिन्होंने हमारे लिए प्रार्थना की।मैं किरण कुमार सर, श्री कमलाधर, कोटेश्वर राव को धन्यवाद देना चाहता हूं, वे बहुत मदद कर रहे हैं और टीम का भी हिस्सा हैं।हमें टीम के सभी साथियों से विश्वास मिला।यह कार्य या पीढ़ी नेतृत्व और इसरो वैज्ञानिक हैं।चंद्रयान 3 के साथ खूब संचार हो रहा है।
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आपको बता दें, चंद्रयान-2 के बाद का मिशन है चंद्रयान-3। इसका उद्देश्य चांद पर विचरण करना और यथास्थान वैज्ञानिक प्रयोग करना है। चंद्रयान-3 14 जुलाई को लॉन्च व्हीकल मार्क-3 (एलवीएम3) रॉकेट के जरिए प्रक्षेपण किया गया था। इसकी कुल लागत 600 करोड़ रुपये है।
चंद्रयान-3 ने 14 जुलाई को प्रक्षेपण के बाद 5 अगस्त को चंद्रमा की कक्षा में प्रवेश किया था। प्रोपल्शन और लैंडर मॉड्यूल को अलग करने से पहले इसे 6, 9, 14 और 16 अगस्त को चंद्रमा की कक्षा में नीचे लाने की कवायद की गई, ताकि यह चंद्रमा की सतह के नजदीक आ सके।
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साउथ पोल पर लैंडिंग मुश्किल इसलिए होती है क्योंकि ये बेहद रहस्मयी जगह है। यहां सूरज हमेशा क्षितिज पर होता है। परछाई बेहद लंबी बनती है। रोशनी में भी सतह पर साफ नहीं दिखाई देता। लैंडिंग के दौरान बेहद धूल उड़ती है। सेंसर और थ्रस्टर खराब होने का डर रहता है। कैमरे के लेंस पर धूल जलमने से मुश्किल आ जाती है। सही दूरी का पता लगाने में भी कठिनाई संभव होती है।
जबकि लैंडिंग मुश्किल होने की दूसरी वजह है चांद पर वायुमंडल न होना। इस वजह से पैराशूट लेकर उतर नहीं सकते। नीचे उतरने के लिए थ्रस्टर्स की ज़रूर पड़ती है। थ्रस्टर्स के लिए भारी मात्रा में ईंधन जरूरी होता है। सीमित ईंधन होने से गलती की गुंजाइश नहीं होती। इसके अलावा चांद पर कोई GPS भी नहीं होता। जिसके चलते लोकेशन बताने वाला सैटेलाइट काम नहीं करता। ऐसे में लैंडिंग की सटीक पोजिशन पता लगाना मुश्किल हो जाता है।
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