हालात

नफरती रंग देकर बिना हिंसा के ही मौजूदा शासन में बना दिए गए हैं 2002 जैसे हालात

क्या बीजेपी की मंशा देश में 2002 जैसे हालात पैदा करने की है? उस वक्त जिस तरह प्रायोजित हिंसा से सांप्रदायिक ध्रुवीकरण हुआ था, इस बार बिना हिंसा के ही उस जैसे हालात बन गए हैं। केंद्रीय मंत्रियों, बीजेपी सांसदों-विधायकों के बयान एक बड़े खतरे का संकेत दे रहे हैं।

फाइल फोटो : सोशल मीडिया
फाइल फोटो : सोशल मीडिया 

हालात बिल्कुल कश्मीर-जैसे बना दिए गए हैं। शाहीन बाग में सीएए का विरोध कर रहे लोग आपके घरों में घुस आएंगे, आपकी माताओं और बहनों के साथ रेप करेंगे।

- दिल्ली के बीजेपी सांसद प्रवेश वर्मा

देश के गद्दारों को, गोली मारो....को...

- दिल्ली में केंद्रीय वित्त राज्यमंत्री अनुराग ठाकुर

दिल्ली का चुनाव भारत-पाकिस्तान के बीच चुनाव है

- बीजेपी उम्मीदवार कपिल मिश्रा

कमल का बटन इतनी जोर से दबाओं की करंट शाहीन बाग को लगे

- गृहमंत्री अमित शाह, दिल्ली में

मैं अपने क्षेत्र में मुसलमानों को मिलने वाली विशेष सुविधाएं रोक दूंगा। उन्होंने 2018 में हमें वोट नहीं दिया था। कुछ ऐसे गद्दार हैं जो मस्जिदों में बैठते हैं और फतवा देते हैं।

- कर्नाटक के बीजेपी विधायक और पूर्व मंत्री और मुख्यमंत्री येदुरप्पा के राजनीतिक सचिव एम पी रेणुकाचार्य

ये बयान जनवरी के बिल्कुल आखिरी दिनों के हैं। एक क्षण को मान भी लें कि दिल्ली के मुख्यमंत्री रहे साहिब सिंह वर्मा के बेटे बीजेपी सांसद प्रवेश वर्मा का बयान दिल्ली के विधानसभा चुनावों को लेकर हो, लेकिन कर्नाटक समेत देश के विभिन्न राज्यों में बीजेपी नेता जिस तरह के प्रलाप कर रहे हैं, उनका मकसद क्या है? दरअसल, बीजेपी नेतृत्व की मंशा सन 2002 को रिपीट करना रहा है। 2002 में गुजरात में नरेंद्र मोदी मुख्यमंत्री थे और उस वक्त प्रायोजित हिंसा के जरिये सांप्रदायिक विभाजन कर दिया गया था। इस बार, संघ नेतृत्व ने बिना हिंसा ही वह स्थिति पैदा कर दी है। संशोधित नागरिकता कानून (सीएए) का यही मकसद भी था। राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर (एनआरसी) और राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर (एनपीआर) का शोर पिछले एक-डेढ़ महीने में केंद्रीय मंत्रियों से लेकर बीजेपी के हर छोटे- बड़े नेता ने जोर-शोर से इसीलिए उठाया भी।

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सीएए के खतरे का अल्पसंख्यकों के साथ कमजोर वर्गों के लोगों ने ठीक ही आकलन किया। देशभर में प्रदर्शन इसी वजह से हो भी रहे हैं। शुरू में बीजेपी ने इसे हलके में लिया कि थोड़े दिनों बाद ये अपने आप खत्म हो जाएंगे। लेकिन जैसे-जैसे दिन बीते, यह आग बढ़ती गई और इसने बीजेपी की पेशानी पर सचमुच बल ला दिए। इसके बाद बीजेपी ने पैंतरा बदला और उसने इसे ही सांप्रदायिक ध्रुवीकरण करने का हथियार बना लिया।

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सीएए के समर्थन में निकलने वाली कथित रैलियों, सोशल मीडिया के जरिये फैलाए झूठे अभियानों से जब बात बनती नहीं दिखी, तो केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह के नेतृत्व में पूरी बीजेपी मंडली इस काम में लग गई। दिल्ली विधानसभा चुनाव की वजह से इन्हें मौका भी मिल गया। इनके बयान बिल्कुल जहर बुझे हैं। शाह ने कहाः वोट के लिए बटन इतनी जोर से दबाओ कि करंट से शाहीन बाग के प्रदर्शनकारी वहां से उठकर चले जाने को मजबूर हो जाएं। इतना ही नहीं।

जब केंद्रीय बजट के लिए तैयारी चल रही हो, तब कमजोर होती जा रही अर्थव्यवस्था के प्रति आश्वस्त करने की जगह केंद्रीय वित्त राज्यमंत्री अनुराग ठाकुर ने गोली मारो देश के गद्दारों को-जैसे नारे लगाने के लिए लोगों को उकसाया। इसी तरह, केजरीवाल सरकार में मंत्री रह चुके बीजेपी उम्मीदवार कपिल मिश्रा ने दिल्ली चुनाव को भारत बनाम पाकिस्तान का मैच करार दे दिया। भले ही निर्वाचन आयोग ने ठाकुर से बयान पर सफाई मांगी और मिश्रा पर 48 घंटे तक प्रचार न करने का प्रतिबंध लगाया, लेकिन मिश्रा ने बाद में भी इस बयान पर सार्वजनिक तौर पर अफसोस जताने से मना कर साफ कर दिया कि उनकी और बीजेपी की असली मंशा क्या है।

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यह तो बिलकुल साफ है कि बीजेपी का मकसद इस तरह की भावना पैदा कर दिल्ली चुनावों में अधिक-से-अधिक सीटें हासिल करने का है। बीजेपी में पहले सक्रिय रहे लोगों तक को यह सब अजीब लग रहा है।

यूपी के एक वरिष्ठ कांग्रेस नेता की मानें, तो इससे ज्यादा बड़ा खतरा यह है कि बीजेपी इसे विभिन्न राज्यों में गांव-घर तक ले जाने की कोशिश कर रही है। बीजेपी के हाईटेक और सबसे ज्यादा कार्यकर्ता वगैरह की चर्चा मुख्यधारा की मीडिया में भले ही होती रहती हो, इस कांग्रेस नेता ने कहा कि अकेले यूपी में करीब एक लाख लोग ऐसे हैं जो हैं तो पार्टी कार्यकर्ता लेकिन उन्हें पार्टी इस या उस खर्च के नाम पर हर माह एक निश्चित रकम मुहैया कराती है, मतलब वे पेड कर्मचारी हैं।

ये लोग किस तरह से काम कर रहे हैं और उसका क्या असर है, इसका अंदाजा गोरखपुर यूनिवर्सिटी के इतिहास विभाग में प्रोफेसर चंद्रभूषण अंकुर की बात से समझ में आता है। अंकुर साफ शब्दों में कहते हैं कि बीजेपी समाज को बांटने में कामयाब हुई है। अब लोग मुखर होकर विरोध या समर्थन में अपना तर्क रख रहे हैं- इस मामले में कोई बैलेंस होकर बात करने को तैयार नहीं है। गोरखपुर यूनिवर्सिटी में सैन्य विज्ञान विभाग में प्रोफेसर हर्ष कुमार सिन्हा भी कहते हैं कि सीएए के मुद्दे पर समाज में बंटवारा साफ नजर आ रहा है- लोग या तो इसके समर्थन में हैं या फिर विरोध में।

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बीजेपी ने केंद्र में सत्ता के बल पर पैसे तो इतने जमा कर ही लिए हैं कि वह सब पर भारी है। एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (एडीआर) ने 15 जनवरी को जो रिपोर्ट जारी की है, उसके अनुसार, बीजेपी ने निर्वाचन आयोग को बताया है कि वित्त वर्ष 2018-19 के दौरान उसकी आय 2,410.08 करोड़ रही। यह इससे पिछले साल 2017-18 की तुलना में 134.59 फीसदी अधिक थी। दरअसल, 2017-18 के दौरान बीजेपी को 1027.34 करोड़ की ही आय हुई थी। यह जानना दिलचस्प है कि 2018-19 के दौरान बीजेपी को जितनी आय हुई, वह छह राष्ट्रीय दलों को हुई आमदनी का 65.16 प्रतिशत है।

दिल्ली में कांग्रेस की पुरानी पीढ़ी के नेता और कई बार चुनाव अभियान तथा रणनीति से जुड़े रहे धीरेंद्र त्यागी कहते हैं कि मोदी की दूसरी पारी ज्यादा निराशाजनक रही है। झारखंड की करारी हार के पहले महाराष्ट्र में सत्ता से बाहर होने और हरियाणा में निराशाजनक प्रदर्शन से साफ है कि मोदी का सिक्का कमजोर पड़ चुका है। इसीलिए अब बीजेपी वापस सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के जरिये दिल्ली में कुछेक सीटें लाने की कोशिश में लगी हुई है।

पटना के चाणक्य स्कूल ऑफ पॉलिटिकल राइट्स एंड रिसर्च के अध्यक्ष सुनील कुमार सिन्हा कहते भी हैं कि बीजेपी को चुनावों में हिंदू वोटों की गोलबंदी के रूप में लाभ मिले तो आश्चर्य नहीं होगा। फायदे का प्रतिशत तो वक्त बताएगा लेकिन यह तो साफ है कि सीएए विरोध के बाद बीजेपी की कोशिशों से सांप्रदायिक ध्रुवीकरण हो रहा है और राष्ट्रीय स्तर पर बीजेपी इसका लाभ उठाने की कोशिश में है।

इस वक्त प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से लेकर बीजेपी के हर स्तर के नेता वैसी ही बातें कर रहे हैं जैसा उन्होंने पिछले लोकसभा चुनाव के वक्त किया था- पाकिस्तान, टुकड़े-टुकड़े गैंग, जो हमारे साथ नहीं वे सब देशद्रोही, आदि-इत्यादि। यह ठीक है कि हाल के झारखंड चुनाव के वक्त भी यही सब किया गया था और तब इसका फायदा बीजेपी को नहीं मिल पाया था। लेकिन इस बार चूंकि सीएए लागू हो चुका है और उसका तीव्र देशव्यापी विरोध हो रहा है, इसलिए बीजेपी ने अपनी पुरानी काठ की हांडी फिर चढ़ा दी है। लेकिन दिल्ली में भी बीजेपी को इसका कितना फायदा मिलेगा, यह देखने की बात होगी क्योंकि बीजेपी-विरोधी ताकतें इस बार बेहतर ढंग से एकजुट हैं- बीजेपी विरोधी पार्टियों के लोग यह सुनिश्चित करने में लगे हैं कि बीजेपी विरोधी वोट बिखरें नहीं।

( गोरखपुर से पूर्णिमा श्रीवास्तव और पटना से शिशिर के इनुपट के साथ)

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