इलाहाबाद हाईकोर्ट के जज जस्टिस यशवंत वर्मा की याचिका पर सुप्रीम कोर्ट में सोमवार को सुनवाई शुरू हुई। जस्टिस वर्मा ने याचिका में नकदी मिलने के मामले में जांच कमेटी की रिपोर्ट को चुनौती देते हुए रद्द करने की मांग की है। सुनवाई के दौरान शीर्ष कोर्ट ने उनसे पूछा कि इस प्रक्रिया में भाग लेने के बाद वह इस पर सवाल कैसे उठा सकते हैं। कोर्ट ने मामले की अगली सुनवाई 30 जुलाई को तय कर दी है।
सुप्रीम कोर्ट की आंतरिक जांच समिति ने न्यायमूर्ति वर्मा के दिल्ली स्थित आवास से नकदी बरामदगी मामले में उन्हें कदाचार का दोषी पाया था। न्यायमूर्ति वर्मा जब मार्च में दिल्ली उच्च न्यायालय के न्यायाधीश थे, तो उनके सरकारी आवास से कथित तौर पर बड़ी मात्रा में जली हुई नकदी मिली थी। उन्होंने नकदी बरामदगी मामले में आंतरिक जांच समिति की इसी रिपोर्ट को चुनौती दी है।
इस मामले की सुनवाई जस्टिस दीपांकर दत्ता और जस्टिस ए.जी. मसीह की पीठ ने की। पीठ ने न्यायमूर्ति वर्मा से पूछा कि उन्होंने जांच पूरी होने और रिपोर्ट जारी होने का इंतजार क्यों किया।पीठ ने न्यायमूर्ति वर्मा का प्रतिनिधित्व कर रहे वरिष्ठ अधिवक्ता कपिल सिब्बल से पूछा, ‘‘वर्मा जांच समिति के सामने क्यों पेश हुए? क्या आप अदालत इसलिए आए थे कि वीडियो हटा दिया जाए? आपने जांच पूरी होने और रिपोर्ट जारी होने का इंतज़ार क्यों किया? क्या आप समिति के पास यह सोचकर गए कि शायद आपके पक्ष में फैसला आ जाए?’’
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इस पर सिब्बल ने कहा कि समिति के सामने पेश होना उनके (न्यायमूर्ति वर्मा) खिलाफ नहीं माना जा सकता। सिब्बल ने कहा, ‘‘मैं इसलिए उपस्थित हुआ, क्योंकि मुझे लगा कि समिति यह पता लगाएगी कि नकदी किसकी है।’’ सिब्बल ने कहा, "यह पूरा मामला राजनीतिक रंग ले चुका है।" उन्होंने तर्क दिया कि 22 मार्च को सुप्रीम कोर्ट की ओर से जारी वीडियो और तस्वीरों के बाद देशभर में जस्टिस वर्मा को पहले ही दोषी मान लिया गया। उन्होंने सवाल उठाया कि घटनास्थल से मिला पैसा कहां गया और इसे जब्त क्यों नहीं किया गया।
सिब्बल ने कहा कि संविधान के अनुच्छेद 124 (5) के तहत जजों के खिलाफ कार्रवाई की प्रक्रिया का पालन नहीं किया गया। सुप्रीम कोर्ट के पांच जजों की बेंच ने स्पष्ट किया है कि बिना उचित प्रक्रिया के किसी जज के खिलाफ कार्रवाई नहीं हो सकती। उन्होंने यह भी कहा कि एससी के इन-हाउस जांच नियमों के अनुसार, जांच पूरी होने तक जज के आचरण पर सार्वजनिक चर्चा नहीं होनी चाहिए। सिब्बल ने कहा कि जांच कमेटी ने जस्टिस वर्मा को अपना पक्ष रखने का उचित मौका नहीं दिया। कमेटी ने नकारात्मक निष्कर्ष निकाले और उनसे पूछा गया कि नकदी कहां से आई, जबकि सबूतों की जांच ठीक से नहीं हुई। उन्होंने कहा कि कमेटी ने सीसीटीवी फुटेज जैसी महत्वपूर्ण सामग्री को नजरअंदाज किया और जस्टिस वर्मा के खिलाफ पक्षपातपूर्ण रवैया अपनाया।
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जस्टिस दीपांकर दत्ता ने सिब्बल से सवाल किया, "अगर जस्टिस वर्मा को कमेटी की प्रक्रिया पर भरोसा नहीं था, तो वे इसके सामने पेश क्यों हुए?" उन्होंने यह भी पूछा कि तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश (सीजेआई) संजीव खन्ना की ओर से जांच रिपोर्ट राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री को भेजना क्यों गलत है, क्योंकि राष्ट्रपति जजों की नियुक्ति का अधिकार रखते हैं।" जस्टिस दत्ता ने कहा कि रिपोर्ट भेजने का मतलब यह नहीं कि सीजेआई संसद को प्रभावित करने की कोशिश कर रहे हैं।
बहरहाल, पीठ ने रिकॉर्ड का हिस्सा न होने वाली किसी भी बात पर गौर करने से इनकार कर दिया। पीठ ने कहा, ‘‘आपको याचिका और कानून की चार सीमाओं के आधार पर हमें संतुष्ट करना होगा। यह पत्र प्रधान न्यायाधीश ने किसे भेजा? न्यायाधीश की नियुक्ति राष्ट्रपति करते हैं। प्रधानमंत्री को इसलिए क्योंकि राष्ट्रपति मंत्रिपरिषद की सलाह और सहयोग से कार्य करते हैं। तो फिर इन पत्रों को भेजने का यह कैसे अर्थ निकाला जा सकता है कि यह संसद के महाभियोग चलाने के लिये है?’’
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याचिका में न्यायमूर्ति वर्मा की पहचान का खुलासा नहीं किया गया है और इसका शीर्षक है, ‘‘एक्स एक्स एक्स बनाम भारत संघ’’ है। न्यायालय ने न्यायमूर्ति वर्मा से उनकी याचिका में बनाए गए पक्षकारों को लेकर सवाल किए और कहा कि उन्हें अपनी याचिका के साथ आंतरिक जांच रिपोर्ट दाखिल करनी चाहिए थी। पीठ ने कहा, ‘‘यह याचिका इस तरह दायर नहीं की जानी चाहिए थी। कृपया देखें कि यहां पक्षकार रजिस्ट्रार जनरल है, न कि महासचिव। पहला पक्षकार उच्चतम न्यायालय है, क्योंकि आपकी शिकायत उल्लेखित प्रक्रिया के खिलाफ है। हम वरिष्ठ वकील से यह अपेक्षा नहीं करते कि वह मामले के शीर्षक पर गौर करेंगे। अदालत ने सिब्बल से कहा कि वे एक पृष्ठ में मुख्य बिंदुओं के साथ आएं और पक्षकारों की सूची को सुधारें।’’
न्यायमूर्ति वर्मा ने भारत के तत्कालीन प्रधान न्यायाधीश संजीव खन्ना द्वारा आठ मई को की गई उस सिफारिश को भी रद्द किए जाने का अनुरोध किया है, जिसमें उन्होंने (खन्ना) संसद से उनके (वर्मा) खिलाफ महाभियोग की कार्यवाही शुरू करने का आग्रह किया था। याचिका में न्यायमूर्ति वर्मा ने कहा कि जांच ने साक्ष्य पेश करने की जिम्मेदारी बचाव पक्ष पर डाल दी, जिसके तहत उनके विरुद्ध लगाए गए आरोपों की जांच करने और उन्हें गलत साबित करने का भार उन पर डाल दिया गया है।
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न्यायमूर्ति वर्मा ने आरोप लगाया कि समिति की रिपोर्ट पहले से तय धारणा पर आधारित थी। उन्होंने कहा कि जांच की समय-सीमा केवल कार्यवाही को जल्द से जल्द समाप्त करने की इच्छा से प्रेरित थी, चाहे इसके लिए प्रक्रियात्मक निष्पक्षता से ही क्यों न समझौता करना पड़े।याचिका में तर्क दिया गया कि जांच समिति ने वर्मा को पूर्ण और निष्पक्ष सुनवाई का अवसर दिए बिना ही उनके खिलाफ निष्कर्ष निकाल दिया।
पंजाब एवं हरियाणा हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश शील नागू की अध्यक्षता वाली तीन न्यायाधीशों की समिति ने इस मामले की 10 दिन तक जांच की, 55 गवाहों से पूछताछ की और उस घटनास्थल का दौरा किया, जहां 14 मार्च रात करीब 11 बजकर 35 मिनट पर न्यायमूर्ति वर्मा के आधिकारिक आवास पर दुर्घटनावश आग लगी थी। न्यायमूर्ति वर्मा उस समय दिल्ली उच्च न्यायालय के न्यायाधीश थे और अब इलाहाबाद उच्च न्यायालय में न्यायाधीश हैं। तत्कालीन प्रधान न्यायाधीश खन्ना ने रिपोर्ट पर कार्रवाई करते हुए राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू और प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को पत्र लिखकर वर्मा के खिलाफ महाभियोग चलाने की सिफारिश की थी।
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