हालात

कश्मीर की पूरी कहानी, कश्मीरियों की ज़ुबानी: घाटी में क्या हुआ, कभी किसी को सही से पता ही नहीं लगेगा

4 अगस्त को अचानक कश्मीर घाटी में तनाव पैदा हो गया। तब से अब तक किस तनाव, मुसीबत, पाबंदियों और अविश्वास के माहौल में जी रहे हैं कश्मीरी। अनुच्छेद 370 हटने के बाद दिल्ली पहुंचे कश्मीरियों ने ऐश्लिन मैथ्यू के साथ बयां किया हाल-ए-कश्मीर:

 यह तस्वी र 17 अगस्त की है। श्रीनगर के अस्पताल में भर्ती अपने रिश्ते दार को देखने जाती महिला से कागजात मांगते सुरक्षा जवान। (फोटो: Getty Images)
यह तस्वी र 17 अगस्त की है। श्रीनगर के अस्पताल में भर्ती अपने रिश्ते दार को देखने जाती महिला से कागजात मांगते सुरक्षा जवान। (फोटो: Getty Images) 

कश्मीर घाटी के लोगों के लिए कर्फ्यू, बंद, सैनिकों की मौजूदगी और हफ्तों तक घर में दुबके रहना कोई नई बात नहीं। ऐसे हालात में जिंदा रहने का तरीका उन्होंने सीख लिया है। लगभग हर गली में राशन, अनाज, हरी सब्जियां समेत जरूरी सामान मिल जाते हैं। इस वजह से अगर मुख्य सड़कों तक पहुंच न भी हो तो भी आम लोगों के जीवन पर कोई खास असर नहीं पड़ता। इनके अलावा, कश्मीर के लोगों ने मुश्किल हालात में एक-दूसरे के काम आना भी सीख लिया है और इस बात का खास खयाल रखते हैं कि कोई भूखा न रह जाए।

अफवाह हमारी जिंदगी का हिस्सा बन गए हैं। लेकिन अगस्त के पहले हफ्ते में अफवाहों का बाजार अचानक गर्म हो गया। सेना ने यह बताने के लिए प्रेस ब्रीफिंग की कि पाकिस्तानी आतंकवादी घुसपैठ कर चुके हैं और वे अमरनाथ यात्रियों पर हमले की फिराक में हैं। अमरनाथ यात्रा को अचानक रोकने और घाटी में बड़ी तादाद में अतिरिक्त सुरक्षा बलों की तैनाती को वाजिब ठहराने के लिए ऐसा किया गया। लेकिन जब पर्यटकों और बाहरी छात्रों को राज्य से चले जाने को कह दिया गया, तो फिजां में तरह-तरह की अफवाहें तैर गईं।

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4 अगस्त की शाम से लैंडलाइन फोन खामोश हो गए। फिर हमें अहसास हुआ कि इंटरनेट सेवा भी बंद थी। यहां तक तो हमारे लिए बात सामान्य सी थी, लेकिन फिर बिजली भी चली गई और अब हम अनजाने खौफ की गिरफ्त में थे। चारों ओर घुप्प अंधेरा। बिना बिजली टीवी भी बेकार। ऐसे में एक अफवाह उड़ती है- एलओसी पर एक बड़े धमाके की तैयारी की जा रही है और इसका ठीकरा पाकिस्तान पर फोड़ते हुए कोई बड़ी कार्रवाई की जानी है। अगले दिन जैसे ही अमित शाह ने संसद में अनुच्छेद- 370 को खत्म करने का ऐलान किया, बिजली बहाल कर दी गई। उस दिन घाटी में मौत सा सन्नाटा था। लोग हताशा-निराशा और अविश्वास से भरे थे। कुछ भी खाया-पीया नहीं जा रहा था। कुछ संभले तो बीती घटनाओं पर नजर दौड़ानी शुरू की। यानी, कोई आतंकवादी खतरा नहीं था? सुरक्षा बलों की भारी तैनाती हमें काबू करने के लिए थी? हम अचानक देश के लिए खतरा हो गए थे?

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ईद पर भी राहत नहीं

ईद अभी एक हफ्ता दूर थी। ऐलान किया गया था कि ईद के मौके पर कर्फ्यू में ढील दी जाएगी, लेकिन हुआ उलटा। उस दिन पाबंदियां बढ़ा दी गईं। जामा मस्जिद समेत सभी प्रमुख मस्जिदों पर ताला जड़ दिया गया। ऐलान किया गया कि हम आसपास की मस्जिदों में नमाज पढ़ लें। ईद से एक-दो दिन पहले कुछ दुकानें जरूर खुलीं, लेकिन लोगों के पास पैसे ही नहीं थे। बैंक और एटीएम काम नहीं कर रहे थे और सार्वजनिक परिवहन बंद। ज्यादातर लोग कुर्बानी के लिए भेड़ भी नहीं खरीद सके ।

एयरपोर्ट का हाल

एयरपोर्ट खुला था और केंद्र के निर्देश के बाद किराया सामान्य से भी कम था, लेकिन एयरपोर्ट तक पहुंचना आसान नहीं था। 5 अगस्त के बाद तीन हफ्तों तक इंटरनेट न होने से ऑनलाइन बुकिंग नहीं हो पा रही थी और कर्फ्यू के कारण ट्रैवल एजेंट वगैरह के दफ्तर बंद थे। सार्वजिनक परिवहन तो बंद थे ही और सरकार में अच्छी पहुंच रखने वालों को भी दिक्कतों का सामना करना पड़ रहा था। जगह-जगह चेक प्वाइंट्स बने थे। आम लोगों को अपने सामान के साथ पैदल चलते, चेक प्वाइंट पर रुककर अपने सामान की जांच कराते और फिर पैदल ही आगे बढ़ते देखना आम नजारा था। आम तौर पर कार से एयरपोर्ट पहुंचने में एक घंटा लगता है, लेकिन रास्ते में 10 चेक प्वाइंट्स होने की वजह से मुझे चार घंटे लग गए। मेरे एक रिश्तेदार पुलिस में हैं, उसके बाद भी हमें यह सब झेलना पड़ा।

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पुलिस का मनोबल तोड़ डाला

पुलिस का खुद मनोबल टूटा हुआ है। कश्मीर पुलिस से हथियार रखवा लिए गए थे। सरकार को हथियारों से लैस अपनी पुलिस पर यकीन नहीं था। इसे लेकर पुलिस कर्मियों में भारी विरोध है, लेकिन उनके सामने इस अपमान को सहने का अलावा रास्ता नहीं। पुलिस कर्मियों में इस बात की गहरी निराशा है कि उनके साथ विश्वासघात किया गया। वे सरकार के प्रति लोगों के गुस्से का शिकार तो होते ही थे, आतंकवादियों के भी निशाने पर रहते थे। और अब वे हथियार रखवा लिए जाने से अपमानित महसूस कर रहे हैं। यहां तक कि वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों से भी पिस्तौल जैसे छोटे हथियार लेकर उनके हाथों में डंडे थमा दिए गए हैं। थानों पर सशस्त्र अर्द्धसैनिक बलों ने कब्जा जमा रखा है। पहले कम से कम सरकार तो उन पर भरोसा करती थी, लेकिन अब उन पर किसी का यकीन नहीं। लोग आते-जाते उन पर फिकरे कसते हैं। हां, उग्रवादियों से निपटने के लिए बनाए गए स्पेशल ऑपरेशन ग्रुप के जवानों को जरूर राइफल रखने की इजाजत है।

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वेतन के लाले

बैंकों के 5 अगस्त के बाद से बंद रहने के कारण तमाम कंपनियों ने अपने कर्मचारियों को वेतन नहीं दिए। लोगों को उम्मीद थी कि ईद से पहले वेतन मिल जाएगा, लेकिन तब तक कोई भी बैंक नहीं खुला। पिछले सप्ताह जे एंड के बैंक की शाखाएं खुलीं, लेकिन कई ऐसी कंपनियां हैं जिनका खाता इस बैंक में नहीं। उनके लिए आज भी संकट है। इस तरह के हालात से लोगों में बेचैनी है और ऐसा लगता है, आने वाले समय में यह और बढ़ेगी। लोग यह समझ नहीं पा रहे कि आखिर उन्हें वेतन नहीं देकर किस बात की सजा दी जा रही है। मुझे लगता है कि घाटी में छोटे कारोबार खत्म हो जाएंगे। मुमकिन है, सरकार ऐसा चाहती भी हो। लंबे समय की बंदी की वजह से रोज-रोज की कमाई पर गुजर-बसर करने वालों का तो जीना मुहाल हो जाएगा। वैसे भी, अब कश्मीर में टूरिज्म तो लंबे अरसे तक पटरी पर लौटने से रहा।

सरकारी दफ्तर कागजों में खुले

सरकारी दफ्तर नाम को खुले हैं। कुछ कर्मचारी बचते-बचाते दफ्तर पहुंच रहे हैं, लेकिन इससे कोई फायदा नहीं क्योंकि आम लोग तो आ ही नहीं रहे। सरकारें नागरिकों के लिए काम करती हैं, लेकिन अगर लोग अपने काम लेकर दफ्तर ही नहीं आएं तो अधिकारी क्या करेंगे? जो कर्मचारी दफ्तर पहुंच भी रहे हैं, उनके पास करने को कुछ नहीं होता। यहां तक कि हाईकोर्ट भी काम नहीं कर रहा, इसलिए इंसाफ की राह भी लंबी हो गई है।

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अब क्या होगा

कश्मीर में केंद्र सरकार का समर्थन करने वाले लोग हमेशा रहे हैं। शिया मुसलमानों और गुज्जरों में ऐसे लोगों की तादाद ज्यादा होती थी। चुनाव के बहिष्कार के आह्वान को नजरअंदाज कर वे वोट डालने जाते थे। जम्मू-कश्मीर में अल्पसंख्यक होने के नाते वे सरकारी आदेशों को माना करते थे। लेकिन इस बार तो ये लोग भी दुखी हैं। पहले जब भी बड़ी पार्टियां या अलगाववादी बंद का आह्वान करते, बांदीपोरा के सोनावारी, पुंछ और राजौरी के कुछ हिस्सों जैसे इलाकों में दुकानें खुली रहतीं। इस बार इन इलाकों में भी बंद है और सरकार के खिलाफ गुस्सा है। सीमा पर होने के कारण उड़ी जम्मू-कश्मीर के चंद सर्वाधिक सैन्य जमावड़े वाला इलाका है, लेकिन यहां भी कोई दुकान नहीं खुली है। इस तरह केंद्र सरकार का समर्थन करने वाले लोगों की तादाद में तेजी से कमी आई है। जमीन पर अपना समर्थन करने वालों को खोकर सरकार ने अपने ही पैर में गोली मार ली है। बाहर के लोगों को लग सकता है कि कश्मीर में अमन है, लेकिन हालात को आंकना अभी आसान नहीं। लोग सही समय का इंतजार कर रहे हैं।

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