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ठाकरे जन्मदिन: शिवसेना के दोनों धड़ों की विरासत पर दावेदारी, विचारधारा का संघर्ष देख मुस्कुरा रहे होंगे बालासाहेब

बालासाहेब आज ऊपर से ही मुस्कुरा रहे होंगे। शिवसेना के दो धड़े उनकी विरासत के लिए संघर्षरत हैं बल्कि उनके नाम पर भी काफी कुछ हो रहा है। उद्धव गुट ने अस्पताल को उनके नाम पर किया है तो शिंदे सरकार ने नागपुर-मुंबई स्मृद्धि एक्सप्रेसवे को उनके नाम पर कर या है।

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Getty Images Hindustan Times

1990 के दशक में जब बालासाहेब ठाकरे की पत्नी मीनाताई की अचानक मृत्यु हुई, उस समय शिवसेना महाराष्ट्र में सत्ता में थी और पहली बार उसकी सरकार बनी थी। मीनाताई की मृत्यु के बाद सरकार ने अपने पूरे कार्यकाल के दौरान मीनाताई की मृत्यु पर बड़े-बड़े आयोजन किए। उनके जीवन को याद किया। मृत्यु से पहले मीनाताई को शायद की कोई जानता था या किसी को उनका नाम पता था। लेकिन अब उनके नाम पर सड़कें, पुल, गार्डन्स और द्वार आदि हैं। सरकार का हर कार्यक्रम मीनाताई और शिवाजी को श्रद्धांजलि के साथ शुरु होता था। अब बच्चे की जुबान पर मीनाताई का नाम था।

उसी दौरान एक अफसरशाह ने कहा भी था, “आखिर हैं कौन मीनाताई ठाकरे? राष्ट्र निर्माण में उनका क्या योगदान है? सबकुछ उनके नाम पर क्यों किया जा रहा है? मुझे नहीं लगता कि बाल ठाकरे की जब मृत्यु होगी तो कोई इस तरह के आयोजन करेगा, जैसाकि उनकी पत्नी के नाम पर किए गए हैं...।”

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इस अफसर का कहना सही साबित हुआ। ठाकरे का अंतिम संस्कार एक बड़े आयोजन के तौर पर हुआ था। मेयर बंग्ले के नजदीक शिवाजी पार्क में उनका स्मारक भी बस ऐसा एक आयोजन भर होके रह गया था। बीजेपी दरअसल इसी मौके की तलाश में थी कि कब बालासाहेब जाएं और वह अपने परों पर उड़ सके। बीजेपी तो मानो इंतजार ही कर रही थी कि कब बालासाहेब जाएं और वह देश के सबसे पुराने गठबंधन को खत्म करे, क्योंकि उसे लगता था कि बालासाहेब के बाद शिवसेना टूट जाएगी।

लेकिन न तो शिवसेना बिखरी और न ही इसके नेता इधर-उधर हुए। बल्कि स्थिति तो यह रही कि अपने जीवन के आखिरी दशक में बालासाहेब ने खुद ही पार्टी में दो बार विखंडन को देखा। एक बार जब उनके भतीजे राज ठाकरे ने साथ छोड़ा और दूसरी बार जब उनके सबसे नजदीकी नारायण राणे ने किनारा किया। लेकिन दोनों ही बार शिवसेना उसी ताकत से वापस आई।

इस दौरान उद्धव ठाकरे थोड़ा पीछे हटते दिखे थे, लेकिन 2014 के चुनाव में वे शानदार कामयाबी के साथ वापस आए और शिवसेना ने उनके नेतृत्व में अपना अब तक का सबसे सफल प्रदर्शन किया और बीजेपी के बाद कांग्रेस और एनसीपी गठबंधन को विधानसभा मे दूसरे नंबर पर धकेल दिया।

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बीजेपी को मन मारकर शिवसेना के साथ गठबंधन करना पड़ा, लेकिन 2014 से 2019 के पांच साल के दौरान इसने बालासाहेब की विरासत को पीछे धकेलने की तमाम कोशिशें कीं। सिर्फ बालासाहेब के स्मार के लिए फंड देकर इसने शिवसेना को अपने साथ बनाए रखा ताकि उसके हाथ से सत्ता की लगाम न निकल जाए।

लेकिन स्मारक के लिए फंड जारी होने से पहले पूर्व मुख्यमंत्री और लोकसभा  स्पीकर मनोहर जोशी ने उद्धव ठाकरे की आलोचना की थी। उहोंने कहा था कि, “अगर बालासाहेब जीवित होते और अपने पिता का स्मारक बनवाना चाहते तो उन्होंने पूरे मुंबई  को बंद करा दिया होता। उद्धव में इस तरह की लड़ाई की काबिलियत और क्षमता नहीं है।”

इस बयान के बाद मनोहर जोशी अलग-थलग पड़ गए थे। लेकिन अगर उस समय बालासाहेब के पुराने दोस्त शरद पवार ने स्मारक के लिए शिवाजी पार्क का सुझाव नहीं दिया होता और देवेंद्र फडणविस ने स्मारक के लिए फंड देकर शिवसेना को अपने साथ आने पर मजबूर न किया होता तो हो सकता है कि आज बाल ठाकरे की स्मृति ही धुंधली हो गई होती।

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लेकिन आज बालासाहेब ऊपर से ही मुस्कुरा रहे होंगे। न सिर्फ शिवसेना के दो धड़े उनकी विरासत के लिए संघर्षरत हैं बल्कि उनकी पत्नी की ही तरह उनके नाम पर भी काफी कुछ हो रहा है। उद्धव गुट ने एक अस्पताल को उनके नाम पर किया है तो शिंदे सरकार ने नागपुर-मुंबई फ्लैगशिप स्मृद्धि एक्सप्रेसवे को उनके नाम पर कर उसका नाम हिंदू ह्रदय सम्राट बालासाहेब ठाकरे एक्सप्रेसवे किया है।

बीजेपी से अलग होने से पहले और शिवसेना में दोफाड़ से पहले तक हिंदु ह्रदय सम्राट की पदवी नरेंद्र मोदी को दी जाती थी। शिंदे गुट ने बालासाहेब की जन्मतिथि पर विधानसभा परिसर में उनके पोर्ट्रेट का अनावरण किया, लेकिन उद्धव ठाकरे इस कार्यक्रम में शामिल नहीं हुए।

1995 के दौरान महाराष्ट्र में शिवसेना-बीजेपी सरकार ने मंत्रालय में मंत्रियों के कमरों में लगे महात्मा गांधी, नेहरू और आम्बेडकर के फोट हटवा दिए थे और उनकी जगह बालासाहेब ठाकरे और संघ नेता दीनदयाल उपाध्याय के फोटो लगा दिए गए थे। यह बात अलग है कि उस समय बीजेरी के युवा नेता तक दीनदयाल उपाध्याय को नहीं पहचानते थे।

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इस मुद्दे पर बड़ा विवाद खड़ा हो गया था और आखिरकार गांघी-नेहरू-आम्बेडकर को फेटे वापस लगा दिए गए थे। लेकिन इससे चिढ़े बाल ठाकरे ने मनोहर जोशी सरकार के उस प्रस्ताव को खारिज कर दिया था जिसके तहत पूर्व प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई का स्मारक बनाया जाना था। कारण था कि मोरारजी देसाई का हमेशा बाल ठाकरे और महाराष्ट्र के लोगों के साथ छत्तीस का आंकड़ा रहा। लेकिन आज बालासाहेब का पोर्ट्रेट हटाने की किसी में हिम्मत नहीं होगी क्योंकि उद्धव तो उनके बेटे ही हैं और कांग्रेस-एनसीपी शिवसेना के साथ गठबंधन में। जिस तरह कांग्रेस-एनसीपी ने 1995-96 में बाल ठाकरे के फोटो का विरोध किया था, अब ऐसा होना असंभव है।

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शिवेसना में दो फाड़ के बाद मनाए जा रहे बाल ठाकरे के पहले जन्मदिन पर दोनों ही धड़े बाल ठाकरे की विरासत में हिस्सेदारी चाहते हैं। बाल ठाकरे की विरासत तो हमेशा हिंसा और संप्रदायवाद की रहेगी, न कि वह जो उनके पुत्र उद्धव आगे ले जाना चाहते हैं। शिंदे गुट के पास तो सिवाए बाल ठाकरे के नाम के कुछ नहीं है और इस गुट के किसी नेता में वह करिश्मा नहीं है जो बाल ठाकरे में था। वैसे भी मोदी की अगुवाई वाली बीजेपी में किसी और करिश्मे की गुंजाइश ही कहां बची है।

इसलिए सोमवार को बालासाहेब के जन्मदिन पर दोनों गुटों की तरफ से होर्डिंग्स बैनर लगाए गए। और, उस शख्स के नाम को जिंदा रखने के लिए रक्तदान शिविरों का आयोजन किया गया जिसके नेतृत्व में शिवसेना ने कितना खूब बहाया है। हालांकि दोनों ही गुटों को सुप्रीम कोर्ट के उस फैसले का इंतजार है जिसमें तय होगा कि आखिर बाल ठाकरे की विरासत पर किसका असली हक है।

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