
विश्वविद्यालय के छात्रों की एक शिकायत से शुरू हुआ संघर्ष पूरे राज्य का आंदोलन बन गया है। कोशिश यह थी कि छात्रों को राजनीति से दूर कर दिया जाए। लेकिन बात आगे बढ़कर विश्वविद्यालय प्रशासन के लोकतांत्रिक स्वरूप को खत्म करने तक पहुंच गई। मामला उस समय शुरू हुआ जब नए सत्र में प्रवेश लेने वाले छात्रों को एक ऐफीडेविट पर हस्ताक्षर करने को कहा गया जिसमें तमाम शर्तों के साथ छात्रों की राजनीतिक सक्रियता पर रोक लगाने की पूरी भूमिका तैयार कर दी गई थी। तुरंत ही इसका विरोध शुरू हो गया। बात ज्ञापन, धरने-प्रदर्शन से शुरू हुई और अक्टूबर के उत्तरार्ध में मामला क्रमिक अनशन तक पंहुच गया।
आंदोलनकारी छात्रों की राजनीतिक भागीदारी को लेकर तमाम अदालती फैसलों का हवाला भी दिया जा रहा है। एक तर्क यह भी था कि छात्रों से ऐफिडेविट भरवाने का फैसला सीनेट ने नहीं किया है। विश्वविद्यालय की नीति नियामक संस्था सीनेट लोकतांत्रिक ढंग से चुनी जाती है। इसका कार्यकाल एक साल पहले खत्म हो गया था। फिर चुनाव नहीं करवाए गए। छात्र संगठन पहले से ही इन चुनावों की मांग कर रहे थे।
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आंदोलनकारी छात्रों को यह बात समझ में आ रही थी कि यह शुरुआत विश्वविद्यालय पर एक खास विचारधारा थोपने तक जाएगी। आंदोलन का एक नारा खासा चर्चित रहा- "खाकी कच्छा फटेगा, ऐफीडेविट हटेगा।" विश्वविद्यालय के छात्र नेता दिव्यांश ठाकुर इसके आगे बढ़कर कहते हैं, 'लोकतंत्र अगर परिसर में नहीं रहा, तो उसके बाहर भी वह जिंदा नहीं बचेगा।'
जल्द ही राजनीतिक दलों के नेताओं ने भी वहां जाना शुरू कर दिया। सबसे बड़ा मोड़ तब आया जब पंजाब के पूर्व मुख्यमंत्री चरनजीत सिंह चन्नी छात्रों का समर्थन करने वहां पहुंचे। चन्नी पंजाब विश्वविद्यालय के छात्र भी रहे हैं।
छात्रों की आशंका सही निकली। पंजाब दिवस के दिन केन्द्र सरकार ने चुपचाप एक अधिसूचना जारी करके विश्वविद्यालय की 91 सदस्यों वाली निर्वाचित सीनेट को 32 सदस्यों वाली मनोनीत सीनेट में बदल दिया। सीनेट से बनी विश्वविद्यालय की नीतियां लागू करने वाली संस्था सिंडीकेट को भी पूरी तरह मनोनीत संस्था में बदल दिया।
माना जाता है कि पंजाब विश्वविद्यालय की सीनेट और सिंडीकेट व्यवस्था ही थी जिसकी वजह से इस प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय पर किसी विचारधारा या राजनीतिक दल का कब्जा नहीं हो सका और इसने अपना स्वतंत्र स्वरूप बनाए रखा।
यह काम चुपचाप किया गया। लोगों को इसकी जानकारी तभी हुई जब द ट्रिब्यून ने इस बाबत एक खबर छापी। फिर पूरे पंजाब में हंगामा हो गया। हर जगह विरोध शुरू हो गए। विश्वविद्यालय में आंदोलन कर रहे छात्रों को अब एक बड़ा मुद्दा मिल गया था। आंदोलन में नई जान आ गई।
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पंजाब विश्वविद्यालय पूरे पंजाब के लिए सिर्फ एक विश्वविद्यालय भर नहीं है, बल्कि यह एक बड़ा भावनात्मक मुद्दा भी है। यह देश के सबसे पुरानी विश्वविद्यालयों में से एक है। 1857 में देश में सबसे पहले मद्रास, कलकत्ता और बंबई विश्वविद्यालय की नींव रखी थी। उसके बाद 1882 में पंजाब विश्वविद्यालय की आधाशिला लाहौर में रखी गई। तब दिल्ली के सेंट स्टीफेन काॅलेज और हिन्दू काॅलेज तक इसी पंजाब विश्वविद्यालय से संबद्ध थे। बाद में जब दिल्ली विश्वविद्यालय बना, तो वे इससे जुड़ गए।
यह देश का अकेला विश्वविद्यालय है जिसने विभाजन का दंश भी झेला। देश का विभाजन हुआ तो पंजाब विश्वविद्यालय का भी विभाजन हो गया। शुरू में इसे देश में कई जगह स्थानांतरित किया गया। जब चंडीगढ़ को पंजाब की राजधानी बनाया गया, वहां 550 एकड़ जमीन पर इसका स्थायी ठिकाना बन गया।
भाषा के आधार पर 1966 में जब पंजाब का विभाजन हुआ और हरियाणा एवं हिमाचल प्रदेश बने, तब पूरे इलाके के ज्यादातर काॅलेज पंजाब विश्वविद्यालय से ही संबद्ध थे। धीरे-धीरे जब इन प्रदेशों में विश्वविद्यालय बने, वहां के सारे काॅलेज उससे संबद्ध हो गए। सिर्फ पंजाब के काॅलेज ही इस विश्वविद्यालय से जुड़े रह गए, तो यह बात सभी ने तय मान ली कि पंजाब विश्वविद्यालय सिर्फ पंजाब का ही है। पंजाब के लिए यह विश्वविद्यालय एक ऐसा प्रतीक बन गया जो इस प्रदेश को हरियाणा और हिमाचल से अलग करता था। वैसे भी वे राज्य इसके खर्च में कोई भूमिका नहीं निभाते। इस विश्वविद्यालय का 60 प्रतिशत खर्च केन्द्र सरकार उठाती है जबकि 40 प्रतिशत खर्च पंजाब सरकार के हवाले रहता है।
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सीनेट और सिंडीकेट में बदलाव ने कई पुराने घावों को कुरेद दिया। यह कहा जाने लगा कि पंजाब को चंडीगढ़ तो नहीं मिला, अब उससे पंजाब विश्वविद्यालय भी छीना जा रहा है।
विश्वविद्यालय छात्र परिषद के उपाध्यक्ष अश्मीत मान ने अपने हर भाषण में कहा, "यह विश्वविद्यालय पंजाब के 28 गांवों को उजाड़ कर बना था। इस जमीन पर दावा करने से हमें कोई रोक नहीं सकता...। केन्द्र सरकार हमारे विश्वविद्यालय, हमारा पानी, हमारे खेत सब छीन लेना चाहती है और हम यह होने नहीं देंगे।"
जल्द ही पूरे प्रदेश की राजनीति ही नहीं सिविल सोसायटी के संगठन भी पंजाब विश्वविद्यालय की तरफ चल निकले। हालात हाथ से निकलते दिखे, तो विश्वविद्यालय प्रशासन ने ऐफीडेविट के अपने फैसले को वापस ले लिया। इससे भूख हड़ताल खत्म हो गई, लेकिन तब तक यह आंदोलन बहुत बड़ा हो चुका था। "पंजाब यूनिवर्सटी बचाओ मोर्चा" बन गया और सभी राजनीतिक दलों के नेता धरना स्थल के दौरे कर रहे थे।
गर्मी बढ़ी तो आंच दिल्ली को भी महसूस हुई। यह तर्क भी काम कर रहा था कि सीनेट और सिंडीकेट की व्यवस्था पंजाब यूनिवर्सटी एक्ट के तहत की गई है जो पंजाब विधानसभा में बना था। विधानसभा में बने एक कानून की व्यवस्थाओं को केन्द्र सरकार भला कैसे खत्म कर सकती है? कानून के विशेषज्ञ कह रहे थे कि यह बदलाव अदालत में नहीं टिक पाएगा।
पांच नवंबर को केन्द्र सरकार ने एक और नोटीफिकेशन जारी किया। इसमें कहा गया कि 28 अक्तूबर के नोटीफिकेशन पर अमल पर अगला नोटीफिकेशन जारी होने तक के लिए रोक रहेगी।
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इससे भला आंदोलन कहां रुकने वाला था। उल्टे आंदोलन और भड़क ही गया। मजबूरन केन्द्र सरकार ने दो दिन बाद एक तीसरा नोटीफिकेशन जारी किया जिसमें 28 अक्तूबर को नोटीफिकेशन को रद्द कर दिया गया।
आंदोलन फिर भी नहीं रुका। बस छात्रों की मांग बदल गई। अब मांग यह है कि चुनाव की तारीखों की घोषणा की जाए और उसकी प्रक्रिया शुरू हो। पूरा पंजाब इसी मांग के पीछे एकजुट हो गया।
पंजाब यूूनिवर्सिटी में जहां आंदोलन चल रहा है, वह जगह तीर्थस्थल बन चुकी है। राजनेता तो वहां जा ही रहे हैं, संस्कृर्ति कर्मी और पंजाबी गायक एवं कलाकार भी बड़ी संख्या में जा रहे हैं। प्रसिद्ध पंजाबी गायक सतिंदर सरताज, गुलाब सिद्धू और बब्बू मान वहां गए, तो उनकी चर्चा पूरे पंजाब में हुई।
माहौल वैसा ही बन गया है जैसा 2020 में दिल्ली की सीमाओं पर हुए किसान आंदोलन के दौरान था। गीत, संगीत और नुक्कड़ नाटकों के अलावा कवि गोष्ठियां भी होती हैं। भाषण होते हैं और आजादी की लड़ाई के शहीदों को श्रद्धांजलि जैसे कार्यक्रम भी चलते हैं। लंगर लग रहा है। कहीं से दूध आ जाता है, तो कहीं से खीर। छात्रोें के बीच सूखे मेवे बांटने का एक वीडियो इंस्टाग्राम और एक्स पर काफी शेयर हो रहा है।
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विश्वविद्यालय के आंदोलन से आगे बढ़ अब यह मुद्दा पंजाब की अस्मिता का सवाल बन चुका है। चंडीगढ़ पंजाब को दिए जाने का मसला एक बार फिर जोर-शोर से उठाया जाने लगा है। आंदोलनकारियों के बीच एक नारा बहुत सुनाई देता है। "मिट्ठी धुन रबाब दी, पंजाब यूनिवर्सिटी पंजाब दी। सोहा फुल गुलाब दा, चंडीगढ़ पंजाब दा।"
10 नवंबर को जब पंजाब बंद का आयोजन हुआ, तो भारी भीड़ वहां जुट गई। निहंग सिंह घोड़ों पर बैठकर और किसान ट्रैक्टरों पर सवार होकर बड़ी संख्या में वहां पहुंचने लगे। किसान नेता तेजवीर सिंह ने कहा, 'यहां किसानों के बच्चे भी पढ़ते हैं, हम इस विश्वविद्यालय में बदलाव कैसे होने दे सकते हैं?'
भीड की खबर मिलते ही विश्वविद्यालय को सील कर दिया गया। तभी एक और घटना हुई। बीए द्वितीय वर्ष की छात्रा हरमनप्रीत कौर जब बेरीकेड पार कर अंदर जाने लगी, तो एक महिला पुलिसकर्मी ने रोकने के लिए उसकी बांह पकड़ी। हरमनप्रीत ने कड़क आवाज में कहा, "बांह छड्ड, नईं ते हिसाब ला लईं आपणा"। इस घटना का वीडियो वायरल हो गया।
प्रसिद्ध पंजाबी गायक दिलजीत दोसांझ अपने एशिया टूर के तहत आस्ट्रेलिया में थे। उन्होंने मंच से न सिर्फ आंदोलन का समर्थन किया, बल्कि हरमनप्रीत के साहस की तारीफ भी की। पंजाबी के एक और गायक मरजाणा मान ने तो हरमनप्रीत पर एक गीत ही तैयार कर दिया। यह गीत भी इन दिनों यू-ट्यूब पर काफी वायरल हो रहा है। पंजाब विश्वविद्यालय के आंदोलन को अपनी पोस्टर गर्ल मिल चुकी थी।
इस बीच विश्वविद्यालय वाइस चांसलर के कार्यालय की तरफ से यह बताया गया है कि कुलपति ने उपराष्ट्रपति (जो पंजाब विश्वविद्यालय के कुलाधिपति भी हैं) से सीनेट चुनाव का शेडयूल जारी करने का आग्रह किया है। आंदोलनकारी छात्रों का कहना है कि जब तक तारीखों का ऐलान नहीं होता, आंदोलन जारी रहेगा।
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