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दवाओं के गोरखधंधे में पर्चे पर सवाल: खास दवा लिखने के लिए अब तो पैसे भी मांगने लगे हैं डॉक्टर

कई डॉक्टर अब नकद में भुगतान या बिक्री में हिस्सा चाहते हैं। कई डॉक्टर मरीजों को खास दुकान से दवा खरीदने को कहते हैं जबकि कुछ केवल दवा का उल्लेख करते हैं और मरीजों को कहते हैं कि फार्मेसी में सेल्समैन उन्हें खुराक आदि के बारे में बता देगा।

फोटोः सोशल मीडिया
फोटोः सोशल मीडिया 

डॉक्टरों को किचन गैजेट्स, कंप्यूटर नोटबुक और टैबलेट जैसे ‘महंगे उपहार’ मिलना एक आम बात है। फार्मा कंपनियों पर आरोप है कि वे डॉक्टरों के फाइव स्टार होटलों और टूरिस्ट डेस्टिनेशन में फैमिली वैकेशन का खर्च उठाती हैं। आर्मी मेडिकल कोर से रिटायर एक डॉक्टर सवाल करते हैं, ‘बिहार के सीतामढ़ी जैसे छोटे शहर का कोई डॉक्टर अपने बूते गोवा या केरल के फाइव स्टार होटल में कैसे ठहर सकता है?’

उनके मुताबिक, फार्मा कंपनियां सुनिश्चित करती हैं कि बोलने में प्रभावशाली डॉक्टर उन चिकित्सा सम्मेलनों में भाग लें जिनमें रहना-खाना सब फ्री होता है। उनका आरोप है कि यह भी सामान्य बात है कि कुछ खास विशेषज्ञता वाले होनहार डॉक्टरों को कंपनियां तभी से अपने पाले में कर लेती हैं जब वे पीजी में दाखिला लेते हैं।

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मुंबई के सरकारी अस्पतालों के डॉक्टरों का दावा है कि अनैतिक विपणन की समस्या कॉरपोरेट और निजी अस्पतालों में अधिक है। एक वरिष्ठ डॉक्टर का कहना है कि ज्यादातर सरकारी अस्पतालों में दवा और उपकरणों की सप्लाई निविदा के माध्यम से होती है।

आईएमए (महाराष्ट्र) के पूर्व अध्यक्ष डॉ. अविनाश भोंडवे ने अनैतिक प्रथाओं और डॉक्टरों को दिए जाने वाले मुफ्त उपहारों की जानकारी होने से इनकार किया। कोविड के दौरान डोलो 650 लोकप्रिय हुआ क्योंकि बड़ी संख्या में मरीज फोन पर डॉक्टरों से सलाह ले रहे थे। ‘डोलो’ नाम याद रखना भी आसान था इसलिए इसकी बिक्री बढ़ी। हालांकि नाम न छापने की शर्त पर यूपी के मेडिकल रिप्रेजेटेंटिव्स (एमआर) ने आरोप लगाया कि फार्मा कंपनियों का प्रतिनिधित्व करने वाले एमआर की जगह बड़ी संख्या में फार्मा कंपनियों के लिए दवा का उत्पादन करने वाले फ्रेंचाइजी के एमआर आ गए हैं।

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उत्तर प्रदेश में पांच हजार से ज्यादा रजिस्टर्ड ‘नर्सिंग होम’ हैं। उनमें बहुत ऐसे हैं जो सीधे फ्रेंचाइजी से मोलतोल करके दवा लेते हैं और मरीजों को सीधे बेचते हैं। अक्सर ये दवाएं नर्सिंग होम के काउंटरों पर ही मिलती हैं। एक डीलर प्रवीण सिंह कहते हैं, ग्रामीण इलाकों में ज्यादातर लोग डॉक्टरों की लिखी दवा को आंख मूंदकर लेते हैं। कुछ डॉक्टर इसका फायदा उठाते हैं।

वह गोरखपुर के एक डॉक्टर का उदाहरण देते हैं जो सभी मरीजों को खांसी की दवा टिका देता है। पिछले 35 वषों से एमआर का काम कर रहे सजेश कुमार का दावा है कि कई डॉक्टर अब नकद में भुगतान या बिक्री में हिस्सा चाहते हैं। कई डॉक्टर मरीजों को खास दुकान से दवा खरीदने को कहते हैं जबकि कुछ केवल दवा का उल्लेख करते हैं और मरीजों को कहते हैं कि फार्मेसी में सेल्समैन उन्हें खुराक आदि के बारे में बता देगा।

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दवा के थोक विक्रेता दिलीप सिंह बताते हैं कि फार्मा कंपनियां अब सीधे नर्सिग होम और डॉक्टरों से डील कर रही हैं। पहले खुदरा विक्रेताओं को एमआरपी से लगभग 20 फीसद कम पर दवा मिलती थीं। लेकिन अब थोक खरीद के लिए नर्सिंग होम को वही दवा 40 फीसद कम पर दी जा रही है। वैसे, डॉक्टरों के एक वर्ग का कहना है कि दूसरे व्यवसायों की तरह चिकित्सा के क्षेत्र में भी अनैतिक व्यवहार हैं लेकिन इस रैकेट में शायद 10 फीसद से ज्यादा डॉक्टर शामिल नहीं।

(आदित्य आनंद के इनपुट के साथ)

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