महाराष्ट्र की एकनाथ शिंदे-देवेंद्र फडणविस सरकार द्वारा सैकड़ों कल्याण परियोजनाओं को रद्द किए जाने के फैसले को बॉम्बे हाईकोर्ट में चुनौती दी गई है। एक रिटायर्ड आईएएस अफसर किशोर गजभिए, एससी-एसटी कमीशन के चेयरमैन जगन्नाथ अभयंकर और अन्य ने इस बात पर चिंता जताई है कि सरकार के इस फैसले से सामाजिक न्याय, आदिवासी कल्याण विभाग और पर्यटन एंव संस्कृति विभाग पर विपरीत प्रभाव पड़ेगा।
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बता दें कि द्रौपदी मुर्मू को राष्ट्रपति-पद पर बैठाकर बीजेपी अपनी पीठ भले ही थपथपा रही है, महाराष्ट्र में एकनाथ शिंदे-देवेन्द्र फडणवीस सरकार आदिवासियों-दलितों के साथ उससे उलट व्यवहार कर रही है। शिव सेना प्रमुख उद्धव ठाकरे के नेतृत्व वाली महा विकास घाड़ी सरकार ने आदिवासियों-दलितों के शैक्षणिक-आर्थिक विकास के लिए 1,200 करोड़ रुपए की विभिन्न योजनाएं लागू की थीं। शिंदे- फडणवीस सरकार 30 जून को बनी और इन योजनाओं पर 1 अप्रैल से ही रोक लगा दी गई।
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इधर, इस रोक की वजह से सामाजिक न्याय विभाग के अधिकारी परेशान हैं। उनका कहना है कि इन योजनाओं के तहत विकास के कुछ काम शुरू हो गए हैं और कुछ कार्यों के लिए स्वीकृत निधि भी आवंटित कर दी गई है। अब कुछ कार्यों को आंशिक रूप से रोकना पड़ेगा और कुछ के लिए बाद में फिर से निविदा की प्रक्रिया दोहराई जा सकती है। सरकार के इस फैसले से डॉ. बाबासाहेब दलित बस्ती सुधार योजनाओं, अनुसूचित जाति के लिए औद्योगिक सहकारी समितियों को अनुदान, विकलांग स्कूलों को ऋण, अनुदान और आदिवासी आश्रम विद्यालयों के निर्माण आदि पर प्रभाव पड़ेगा।
इनके अलावा, सरकार ने पर्यटन विभाग के 59 हजार 610 करोड़ रुपये के और सामाजिक न्याय विभाग के 600 करोड़ रुपए के विकास कार्यों पर भी रोक लगा दी है। सरकार ने महाराष्ट्र को किसान आत्महत्या मुक्त राज्य बनाने की घोषणा की लेकिन शपथ ग्रहण के बाद 24 दिनों के अंदर ही राज्य में 89 किसान आत्महत्या कर चुके हैं। रिपोर्ट के मुताबिक, मराठवाड़ा में 54, यवतमाल में 12, जलगांव में 6, बुलढ़ाणा में 5, अमरावती-वाशिम में 4-4, अकोला में 3, चंद्रपुर-भंडारा में 2-2 किसानों ने आत्महत्या की है।
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राज्य में आठ आदिवासी जिले हैं जिनमें से गढ़चिरौली, चंद्रपुर, अमरावती और ठाणे में सबसे ज्यादा आदिवासी हैं। आदिवासियों के बीच काम करने वाले विवेक पंडित और आरे कारशेड के खिलाफ काम करने वाले पर्यावरणविद स्टालिन डी का मानना है कि आदिवासियों के लिए अपनी जमीन और जंगल को बचाना मुश्किल हो रहा है। उनको शैक्षणिक सुविधाएं नहीं मिल रही हैं। विवेक पंडित कहते हैं, ‘पालघर, गढ़चिरौली और नंदुरबार जिले में तो आदिवासी कुपोषण के शिकार हैं। सरकार की तरफ से उनको स्वास्थ्य सुविधाएं भी उपलब्ध नहीं कराई जा रही हैं। इन इलाकों में 51 फीसदी से ज्यादा स्वास्थ्य कर्मियों की जगह खाली पड़ी है।’
सतपुड़ा फाउंडेशन, अमरावती के अध्यक्ष किशोर रिठे इंडिया स्टेट फॉरेस्ट रिपोर्ट, 2021 के हवाले से बताते हैं कि महाराष्ट्र के आदिवासी जिलों में घने जंगल कम हो गए हैं। आदिवासी बहुल इलाकों- दहाणु, जव्हार और ठाणे में स्थिति ज्यादा गंभीर है। इसी तरह गढ़चिरौली और चंद्रपुर में भी घने जंगल मध्यम से भी कम हो गए हैं। रिठे का मानना है कि खेती के नाम पर जमीनों का अतिक्रमण होने से वन सिमट रहा है।
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पर्यावरणविद स्टालिन बताते हैं कि अवैध तरीके से जंगल की अधिकांश जमीन को गन्ने की खेती के लिए हथिया लिया गया है। यही नहीं, विकास के नाम पर जंगल की जमीन केन्द्र सरकार ले रही है और वह भी आदिवासियों की सहमति के बिना ही लेकिन उससे आदिवासियों या किसानों का भला नहीं हो रहा है। रिठे भी बताते हैं कि विकास के नाम पर गढ़चिरौली की खूबसूरत सड़कें देख सकते हैं। वैसी सड़कें मुंबई की भी नहीं हैं। लेकिन आदिवासी इलाके को सिर्फ अच्छी सड़कें नहीं चाहिए बल्कि विकास की योजनाओं को भी जमीन पर उतारने की जरूरत है। रिठे के साथ स्टालिन भी कहते हैं कि केन्द्र सरकार आयुर्वेद और योगा को प्रमोट करने की बात कहती है लेकिन जंगल ही नहीं रहेंगे, तो औषधीय पौधे कहां से मिलेंगे। रिठे इस सिलसिले में आरे कारशेड का उदाहरण देते हैं।
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आरे जंगल को बचाने के आंदोलन में शामिल स्टालिन कहते हैं कि बुलटे ट्रेन के नाम पर आरे जंगल को खत्म करना मुंबईकरों को ऑक्सीजन के बिना मारने वाली स्थिति होगी। यहां सैकड़ों पेड़ों की कटाई हो चुकी है। इसी तरह, आदिवासियों, जंगलों और पर्यावरण को लेकर उद्धव सरकार ने ही नई ब्रॉड गेज रेल लाइन का करीब 23.48 किलोमीटर री-अलाइनमेंट कर मले घाट बाघ रिजर्व के बाहर से ले जाने की मांग की थी। इससे महाराष्ट्र के इस सबसे पुराने बाघ क्षेत्र को नुकसान से बचाया जाता और जलगांव, जामोद एवं संग्रामपुर जैसे तीन तालकों के करीब 100 गांवों के लोगों को नई रेल लाइन का लाभ मिलता। लेकिन अब सरकार जंगल के अंदर से ही रेल लाइन ले जाने को तत्पर है।
आदिवासी एकता परिषद भूमिसेना के प्रमुख धोदडे भी कहते हैं कि बुलटे ट्रेन प्रोजेक्ट की आड़ में पालघर के आदिवासी समुदाय की आवाज दबाई जा रही है।
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