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इसे ‘शांति’ कहा जाए या पूर्ण समर्पण!

जनता और संसदीय व्यवस्था को समीक्षा का पूरा मौका दिए बगैर बहुत तेजी दिखाते हुए पास किए गए शांति विधेयक ने उस पुराने कानून को दरकिनार कर दिया जिसमें परमाणु दुर्घटना की स्थिति में पीड़ितों को सुरक्षा देने की पुख्ता व्यवस्था थी।

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फोटो: Getty Images SAJJAD HUSSAIN

भाषा के खेल से नरेन्द्र मोदी सरकार ऐसे शब्दों का निर्माण करने में जुटी है जिनसे विकास और देशभक्ति झलके जबकि कड़वी सचाई पीछे छुप जाए। भाषा का ऐसा ही नया खेल है- शांति यानी सस्टेनेबल हारनेसिंग एंड एडवांसमेंट ऑफ न्यूक्लियर एनर्जी फाॅर ट्रांसफार्मिंग इंडिया। 

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विधेयक का यह दुरूह नाम रखा गया है देश के परमाणु ऊर्जा विकास की राह तैयार करने के लिए और साथ ही भारत की परमाणु उत्तरदायित्व व्यवस्था को पूरी तरह बदलने के लिए। इसमें किए गए बदलाव का सार्वजनिक सुरक्षा, सामरिक स्वायत्तता और लोकतांत्रिक जवाबदेही पर खासा असर होगा। यह सरकार के उस पाखंड को भी उजागर करता है जिसमें देश की प्रभुसत्ता को लेकर पहले दावे तो कुछ और थे और किया कुछ और ही गया। इस विधेयक का अमेरिका ने जिस तरह से स्वागत किया, वह बताता है कि अमेरिकी सरकार के लिए इन बदलावों का क्या अर्थ है।

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जनता और संसदीय व्यवस्था को समीक्षा का पूरा मौका दिए बगैर बहुत तेजी दिखाते हुए पास किए गए शांति विधेयक ने उस पुराने कानून को दरकिनार कर दिया जिसमें परमाणु दुर्घटना की स्थिति में पीड़ितों को सुरक्षा देने की पुख्ता व्यवस्था थी। विधेयक 10 दिसंबर को शरद सत्र के दौरान अचानक ही संसद में अवतरित हुआ। इसे संयुक्त संसदीय समिति, प्रवर समिति या स्थाई समिति जैसी उन संस्थाओं को भेजने की जरूरत भी नहीं समझी गई जो जटिल मामलों की गहन समीक्षा के लिए ही बनी हैं। दस दिन में ही यह दोनों सदनों में पास हो गया ओर राष्ट्रपति के दस्तखत भी हो गए। 22 दिसंबर को इसे लेकर अधिसूचना भी जारी हो गई।

इतनी तेजी क्यों दिखाई गई? क्या इसका मकसद देश के विपक्ष को परास्त करना था या फिर देश के बाजार पर नजरें गड़ाए बेचैन परमाणु कारोबारियों को आश्वस्त करना था? इसे समझने के लिए हमें 2010 के उस सिविल लाईबिलिटी फाॅर न्यूक्यिलर डैमेज कानून पर नजर डालनी होगी जिसे शांति ने भंग कर दिया।

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वह कानून 1984 की उस भोपाल गैस त्रासदी के अनुभवों का नतीजा था जिस औद्योगिक हादसे में हजारों लोग मारे गए थे और लाखों जहरीली गैस का शिकार बने थे। इन बच गए लोगों ने उस बहुराष्ट्रीय कंपनी से दशकों तक लंबी लड़ाई लड़ी लेकिन कंपनी ने खुद को उत्तरदायित्व से बचा लिया। उन्हीं अनुभवों को ध्यान में रखकर बने 2010 के कानून में एक नैतिक मकसद था। यह कोशिश थी कि परमाणु दुर्घटना की स्थिति में कोई भी जिम्मेदारी से भाग न पाए।

यह कानून सिर्फ संयंत्र के संचालक पर ही पूरी जिम्मेदारी नहीं लादता था, बल्कि इसे आपूर्तिकर्ताओं तक ले जाता था।  आपूर्तिकर्ताओं में अमेरिका के जनरल इलेक्ट्रिक और वेस्टिनहाउस, रूस के रोजाटाॅम और फ्रांस के ओरानो जैसी वे कंपनियां हो सकती हैं जो रियेक्टर और अन्य उपकरणों से लेकर ईंधन और तकनीक तक देने का काम करती हैं। इसकी धारा 17बी संचालक को यह अधिकार देती है कि अगर दुर्घटना घटिया उपकरण या सामग्री की वजह से हुई है तो वह आपूर्तिकर्ता से मुआवजा ले सके।

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रूस और फ्रांस ने इसी कानून के तहत भारत से समझौते भी किए। रूस तमिलनाडु के कुडनकुलम परमाणु संयंत्र में भागीदार है, जिसके दो चरण पूरे हो चुके हैं और तीसरे पर काम चल रहा है। फ्रांस ने महाराष्ट्र के जैतापुर में संयंत्र लगाने के लिए समझौता किया है जहां स्थानीय विरोध के बावजूद काम शुरू हो गया है। 

दोनों ही देशों ने उत्तरदायित्व की चिंताओं के लिए बीमा पूल और आपसी समझौते का रास्ता अपनाया है। लेकिन अमेरिकी कंपनियां इसे लेकर कानूनी पचड़ों से बचना चाहती हैं, इसलिए वे बदलाव चाहती हैं। इसीलिए 2008 के ऐतिहासिक भारत अमेरिका नागरिक परमाणु समझौते के बावजूद बात आगे नहीं बढ़ी। तमाम रिपोर्टों में बताया गया है कि इसके लिए कई तरह के राजनयिक दबाव भी डाले गए कि इस धारा को खत्म कर दिया जाए। यह तर्क भी दिया गया कि सिविल लाईबिलिटी फाॅर न्यूक्लियर डैमेज के वियेना कन्वेन्शन के हिसाब से भी यह सही नहीं है।

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शांति- 2025 अपूर्तिकर्ता की जिम्मेदारी को पूरी तरह खत्म करता है और पूरी जिम्मेदारी संयंत्र संचालक पर ही थोपता है। अब आपूर्तिकर्ता की जिम्मेदारी उससे हुए समझौते के हिसाब से ही होगी। जाहिर है कि हादसे की स्थिति में उसकी कोई कानूनी जिम्मेदारी नहीं होगी।

हम 1986 के चेरनोबिल और 2011 के फुकुशीमा हादसे में देख चुके हैं कि हजारों लोगों पर प्रभाव पड़ा, उन्हें विस्थापित होना पड़ा और भारी आर्थिक नुकसान हुआ। अगर किसी घटिया उपकरण या सामग्री की वजह से हादसा होता है, तो ये सारे खर्च सरकार को ही वहन करने होंगे, यानी जनता की जेब से ही जाएंगे।

इसके अलावा उत्तरदायित्व के तौर पर तय की गई रकम मजाक लगती है। छोटे शोध रियेक्टर के लिए 100 करोड़ रुपये और बड़े विद्युत संयंत्र के लिए 1500 करोड़ रुपये। 2010 के कानून में भी यही रकम थी। इस पर महंगाई का असर भी नहीं पड़ा। सरकार ने इसकी कोई सफाई भी नहीं दी। 

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शांति एक और पुराने दायरे को तोड़कर परमाणु क्षेत्र को निजी उद्योंगों के लिए खोल रही है। कांग्रेस से लेकर क्षेत्रीय दलों तक पूरे विपक्ष ने चेतावनी दी है कि इस संवेदनशील और जोखिम भरे उद्योग में निजी मुनाफे की होड़ को लाना खतरनाक हो सकता है। दशकों से भारत का परमाणु कार्यक्रम 1962 के परमाणु ऊर्जा कानून से चलता रहा है जिसे व्यवसायीकरण से इसलिए दूर रखा गया। बिना किसी बड़े विमर्श के निजी क्षेत्र और विदेशी कंपनियों को इसमें प्रवेश करने देना तकनीक के लीकेज और सुरक्षा दोनों ही कारणों से खतरनाक हो सकता है।

इस नीतिगत बदलाव में विक्रेताओं के भरोसे विस्तार की रणनीति दिखती है। ये उन विदेशी आपूर्तिकर्ताओं की हिमायत करता है जो बने बनाए रियेक्टर लेकर आएंगे, बजाय इसके कि भारत की जरूरत के हिसाब से वैसे रियेक्टर तैयार किए जाएं जैसी कोशिश भाभा परमाणु शोध संस्थान ने की थी।

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विडंबना यह है कि भारतीय जनता पार्टी जो कहती रही है, उसके विपरीत कर रही है। 2008 में जब परमाणु समझौता हो रहा था, तब पार्टी विपक्ष में थी और उसने इसे राष्ट्रीय हितों के खिलाफ बताते हुए इसका कड़ा विरोध किया था। तब उसके तीन तर्क थे- संप्रभुता को क्षति, सामरिक स्वयत्ता में ढील और राजनीतिक रूप से न्यायसंगत न होना। विरोध सिर्फ प्रतीकात्मक नहीं था, इससे खड़ा हुआ राजनीति संकट इतना गंभीर था कि यूपीए सरकार गिर सकती थी।

वही दल अब 17 साल बाद विरोध के बावजूद संसद में शांति को पास करा रहा है। इस उल्टी चाल का क्या अर्थ है? आपूर्तिकर्ताओं के उत्तरदायित्व को खत्म करना विदेशी और खासकर अमेरिकी कंपनियों के दबाव में झुकना नहीं तो क्या है? लोकतांत्रिक तौर पर इसे न्यायसंगत कैसे कहा जाए जब इतने बड़े बदलाव को बिना विमर्श, बिना समीक्षा और बिना सर्वसम्मति के किया जा रहा है?

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