हालात

कौन देगा जवाब: जब किसी काम का नहीं था रेमडेसिविर, तो उत्पादन क्यों बढ़ाया गया? वेंटिलेटर किस आधार पर खरीदे गए,

कोरोना महामारी की दूसरी लहर में ऐसे कई सवाल हैं जिनके जवाब कोई नहीं दे रहा। सबसे बड़ा सवाल तो रेमडेसिविर का ही है जिसे अब सरकार ने भी कह दिया है कि यह किसी काम का नहीं, तो फिर इसका उत्पादन क्यों बढ़ाया गया। ऐसे ही सवाल वेंटिलेटर की खरीद से भी जुड़े हैं।

फोटो : Getty Images
फोटो : Getty Images 

  • इंदौर की एक स्वास्थ्य अधिकारी पूर्णिमा गराडिया का वाहन चालक पुनीत अग्रवाल कोविड-19 रोगियों को काले बाजार में रेमडेसिविर बेचते हुए 17 मई को पकड़ा गया। उसने संवाददताओं को बताया कि उसने एक स्थानीय पुलिस अफसर के अनुरोध पर रेमडेसिविर के दो वायल मध्य प्रदेश के जल संसाधन मंत्री तुलसी सिलावट के वाहन चालक गोविंद राजपूत से 14,000 में खरीदे थे। सिलावट ने बाद में सफाई दी कि गोविंद उनके यहां कुछ ही माह से काम कर रहा था।

  • जबलपुर के एक अस्पताल के निदेशक और विश्व हिंदू परिषद के नर्मदा संभाग के प्रमुख सरबजीत सिंह मोखा को जाली रेमडेसिविर हासिल करने और उनका उपयोग करने के आरोप में 11 मई को तीन अन्य लोगों के साथ गिरफ्तार किया गया। मोखा पर इंदौर से 500 रेमडेसिविर इंजेक्शन मंगाने और उन्हें रोगियों पर इस्तेमाल करने का आरोप है।

  • दिल्ली पुलिस ने जब सचिन घई (बदला हुआ नाम) को गिरफ्तार किया, उस वक्त उसके पास रेमडेसिविर के 100 वायल थे। उस पर 15 हजार से 40 हजार में इसे बेचने का आरोप है। वह चंडीगढ़, द्वारका और गुरुग्राम से दवा हासिल करता था और उनसे नकली दवा बनाई जाती थी। उसके पास जो वायल मिले हैं, उनमें से कम-से-कम पांच पर ‘मेड फ्रॉम बांग्लादेश’ के स्टिकर लगाए गए थे।

Published: undefined

रेमडेसिविर की इस तरह की कालाबाजारी की वजह यह थी कि एम्स ने कोविड मरीजों पर इसके उपयोग की सलाह दी थी। लेकिन, दिलचस्प तरीके से, एम्स ने बाद में अपनी यह सिफारिश वापस ले ली। एम्स, आईसीएमआर-कोविड19 राष्ट्रीय टास्क फोर्स और केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय के संयुक्त मॉनिटरिंग ग्रुप ने बाद में कहा कि एक तो इसका घर पर उपयोग नहीं किया जाना चाहिए और दूसरा कि कोविड के लक्षण पाए जाने के 10 दिनों के अंदर ही इसका उपयोग प्रभावी है। विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) ने यही बात नवंबर में कही थी। उसने कहा था कि ‘फिलहाल कोई प्रमाण नहीं है कि रेमडेसिविर रोगियों में जान बचाने और अन्य परिणामों को बढ़ाता है।’ अभी मई के दूसरे हफ्ते में भी डब्ल्यूएचओ की मुख्य वैज्ञानिक डॉ. सौम्या स्वामिनाथन और डब्ल्यूएचओ के कोविड पर टेक्निकल लीड डॉ. मारिया वैन केरखोव ने भी इंडिया टुडे टीवी से कहा कि पांच क्लीनिकल ट्रायलों के परिणाम बताते हैं कि रेमडेसिविर के उपयोग ने ‘अस्पताल में दाखिल मरीजों के बीच मृत्यु की आशंका घटाने या मेकैनिकल वेन्टिलेशन की जरूरत घटाने में मदद नहीं की।’

लेकिन मई के दूसरे हफ्ते में केंद्र सरकार ने घोषणा की कि कोविड-19 के इलाज के लिए ‘आवश्यक दवा’ का घरेलू उत्पादन ‘अभूतपूर्व रूप से’ 38 लाख वायल प्रतिमाह से 119 लाख वायल प्रतिमाह किया जा रहा है। फार्मास्युटिकल विभाग ने भी घोषणा की कि व्यावसायिक तौर पर आयात किए गए 40,000 वायल 16 मई तक राज्यों तथा केंद्र शासित प्रदेशों के बीच वितरित किए गए हैं। इसने पुष्टि की कि ‘विदेशी मदद’ के तौर पर इसने 5.26 लाख वायल प्राप्त किए हैं।

Published: undefined

ऐसे में कई सवाल हैं जिनके उत्तर नहीं मिल रहेः अगर यह प्रभावी दवा नहीं है, तो इसका घरेलू उत्पादन क्यों बढ़ाया जा रहा है; क्या डब्ल्यूएचओ और एम्स की सिफारिशें फार्मास्युटिकल विभाग नहीं मानता और स्वतंत्र तौर पर काम करता है; क्या लोगों की जान की कीमत पर रेमडेसिविर के निर्माताओं को फलने-फूलने का मौका दिया जा रहा है?

रेमडेसिविर महंगी दवा है जिसका उत्पादन बड़ी अमेरिकी कंपनी- गिलियड लाइफ साइंसेस करती है। हालांकि अमेरिका में किसी भी दवा के उपयोग की अनुमति तब ही दी जाती है जब वह सुरक्षा और प्रभाव- इन दो पैमाने पर खरी उतरती है। लेकिन रेमडेसिविर को अक्टूबर, 2020 में ‘लगभग 1,000 लोगों पर अपेक्षाकृत छोटे परीक्षणों से आशाजनक आंकड़े’ के आधार पर अनुमति दे दी गई। डब्ल्यूएचओ ने एक महीने से कम समय में ही इसके दावे को नकार दिया, हालांकि उसकी इन बातों का सरकारों तथा रेगुलेटरी संस्थाओं पर ज्यादा प्रभाव नहीं दिखता कि रेमडेसिविर न तो कोविड रोगियों के जान जाने की आशंका, न अस्पताल में रखे रहने की अवधि या उन्हें ऑक्सीजन की जरूरत को कम करता है।

Published: undefined

अमेरिका में रेमडेसिविर के 5 दिनों के कोर्स पर प्रतिरोगी लगभग 2,600 डॉलर (1.89 लाख रुपये) खर्च आताहै। समझा जा सकता है कि इसके निर्माताओं और बिचौलियों की इसमें इतनी अधिक क्यों रुचि है। लेकिन सरकार इस पर क्यों जोर दे रही है, इसे भी समझना कोई टेढ़ी खीर नहीं है।

विभिन्न राज्यों में वेन्टिलेटरों के बिना उपयोग पड़े होने की रिपोर्टों के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने राज्यों में इन्हें लगाए जाने और इनके ऑपरेशनल होने की तत्काल ऑडिट के आदेश दिए हैं। पंजाब और राजस्थान ने उन्हें भेजे गए खराब वेन्टिलेटरों की जांच के आदेश दिए हैं। दूसरे राज्यों ने भी ऐसी ही शिकायतें की हैं। इनके ऑपरेटर न मिलने की जगह-जगह से मिल रही शिकायतें अपनी जगह, सेंसर, कम्प्यूटर चिप आदि के साथ इन आयातित वेन्टिलेटरों की कीमत दो लाख से 25 लाख रुपये तक है। आरटीआई से मिले जवाबों से संकेत मिलते हैं कि वेन्टिलेटरों की खरीद के लिए पीएम केयर्स फंड का उपयोग किया गया। निर्माताओं ने इन वेन्टिलेटरों की कीमत एक लाख से 8 लाख रुपये तक वसूली। कुछ कंपनियों को इस गाढ़े वक्त में इनके निर्माण के लिए प्रोत्साहित भी किया गया।

Published: undefined

असल में, इस मामले में भी घालमेल की आशंका की वजहें हैं। वेन्टिलेटर का इस पैमाने पर ऑर्डर दिए जाने से पहले यह आकलन किया जाना भी जरूरी था कि इन के लिए देश में ऑपरेटर कितने हैं। इस बारे में प्रधानमंत्री कार्यालय के पास न तो सूचना थी, न उसने आंकड़े जुटाए। किस आधार पर इतने वेन्टिलेटर मंगवाए-जुटाए गए, यह भी किसी को नहीं पता।

वैक्सीन का मसला भी ऐसा ही है। इसका कोई स्पष्टीकरण नहीं है कि आखिर क्यों, राज्यों को एक ही वैक्सीन एक ही ग्लोबल सप्लायर से अलग-अलग कीमतों पर खरीदने को छोड़ दिया गया जबकि केंद्र सरकार इन्हें एक साथ केंद्रीकृत तौर पर खरीदकर इनका वितरण कर सकती थी। इस सिलसिले में सरकार का यह कथन पचना मुश्किल हो रहा है कि यह सार्वजनिक हित में नहीं है।

Published: undefined

प्लाज्मा थिरैपी का मसला भी कुछ इसी किस्म का है। पहले तो इसे प्रोत्साहित करने के भरपूर प्रयास हुए, फिर अचानक मई के दूसरे हफ्ते में कोविड-19 के लिए आईसीएमआर-राष्ट्रीय टास्क फोर्स की बैठक में सर्वसम्मति से ’कोविड-19 के वयस्क रोगियों के प्रबंधन के लिए क्लीनिकल निर्देश’ से ’स्वास्थ्य के लिए लाभकारी प्लाज्मा’ के उपयोग को हटा दिया। सभी सदस्यों ने कई सारे मामलों में इसके अप्रभावी और अनुचित उपयोग के उदाहरण पाए। ऐसे में, यह सवाल उठना लाजमी है कि आखिर, पहले इसके उपयोग की सलाह किस आधार पर दी गई थी।

कोविड से मरने वालों की सही संख्या का किसी को अंदाजा नहीं है। सरकारी संख्या पर किसी को भरोसा नहीं है। खुद सत्तापक्ष के लोग ही इन आंकड़ों को गलत ठहरा रहे हैं। यह भी पता नहीं है कि लोगों को इलाज के अभाव में जानें गंवानी पड़ रही है या गलत इलाज के कारण। सरकार का यह कहना सही हो सकता है कि यह वक्त एक-दूसरे पर उंगली उठाने का नहीं हैं लेकिन तीसरी-चौथी लहर की भी जिस तरह की आशंकाएं वैज्ञानिक जता रहे हैं, उसमें हम कितनी सीख हासिल कर किस तरह आगे बढ़ रहे हैं, यह जानना तो जरूरी है।

Published: undefined

Google न्यूज़नवजीवन फेसबुक पेज और नवजीवन ट्विटर हैंडल पर जुड़ें

प्रिय पाठकों हमारे टेलीग्राम (Telegram) चैनल से जुड़िए और पल-पल की ताज़ा खबरें पाइए, यहां क्लिक करें @navjivanindia

Published: undefined