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यूपी में योगीराज का कमाल, बिना किताबों के ही सरकारी स्कूलों में पढ़ रहे हैं करीब दो करोड़ नौनिहाल

टीचर से लेकर नौनिहालों तक को पता नहीं है कि प्रदेश के 1.58 लाख परिषदीय स्कूलों में पढ़ने वाले करीब 1.85 करोड़ छात्र-छात्राओं के हाथ में पढने के लिए किताबें कब आएंगी जबकि नया शैक्षणिक सत्र पहली अप्रैल से ही चालू हो गया है।

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बीते दिसंबर महीने में ब्रिलिएंट शिक्षा समिति ने अलीगढ़ में अतरौली के राजगांव के प्राथमिक विद्यालय को गोद लिया था। विद्यालय में संसाधन तो बढ़े ही, अभिभावकों में पब्लिक स्कूलों वाली फीलिंग भी आने लगी। पर, नए शैक्षणिक सत्र में पढ़ाई शुरू हुए महीने भर से अधिक का समय गुजर चुका है लेकिन बच्चों के पास न तो ड्रेस है, न ही किताबें। अभिभावक टीचरों से किताब के बारे में जानकारी मांगते हैं तो सपाट जवाब मिलता है, ‘यह तो सूबे के बेसिक शिक्षा मंत्री संदीप सिंह ही बता पाएंगे।’ सुनहरे दावों के बीच हकीकत यह है कि मंत्री से लेकर मुख्यमंत्री-प्रधानमंत्री के जिलों में 1.80 करोड़ से अधिक बच्चे बिना किताबों के ही ‘स्कूल चले हम’ का नारा लगा रहे हैं। सरकार ने कहा है कि फिलहाल पुरानी किताबों से ही काम चलाया जाए।

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मंत्रियों के दावे तो बड़े-बड़े हैं

योगी सरकार में सबसे कम उम्र के मंत्री हैं संदीप सिंह। वह पूर्व मुख्यमंत्री कल्याण सिंह के पौत्र हैं। वह मीडिया में लगतार दावा कर रहे हैं कि ‘प्राइमरी स्कूलों में स्टूडेंट्स की संख्या 1.80 करोड़ से बढ़ाकर 2 करोड़ करने का टारगेट है। मिड-डे मील के लिए 30 अरब का प्रस्ताव बनाकर केन्द्र से बजट की डिमांड की जा रही है। प्रदेश में 21 हजार नए स्मार्ट क्लास खोले जाएंगे।’ प्रदेश के मुख्य सचिव दुर्गाशंकर मिश्रा का भी अलग से दावा है कि ‘प्राथमिक स्कूलों के कायाकल्प, बच्चों के ड्रेस से लेकर टॉयलेट आदि के लिए 11,411 करोड़ रुपये मंजूर किए गए हैं। छात्र-छात्राओं के लिए अलग-अलग टॉयलेट सुनिश्चित किए जा रहे हैं।’ इतना ही नहीं, सीएम योगी और पीएम नरेन्द्र मोदी के गृह जनपद गोरखपुर और वाराणसी में केन्द्रीयकृत किचेन के लिए 16 करोड़ से अधिक जारी किए गए हैं।

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इसी माह हो जाए टेंडर तो अगस्त में मिलेंगी किताबें

लेकिन टीचर से लेकर नौनिहालों तक को पता नहीं है कि प्रदेश के 1.58 लाख परिषदीय स्कूलों में पढ़ने वाले करीब 1.85 करोड़ छात्र-छात्राओं के हाथ में पढने के लिए किताबें कब आएंगी जबकि नया शैक्षणिक सत्र पहली अप्रैल से ही चालू हो गया है। पाठ्य पुस्तकों के लिए दिसंबर महीने में टेंडर की प्रक्रिया पूरी होती, तो अप्रैल के पहले सप्ताह तक किताबें बच्चों को मिल जातीं। टेंडर में विवाद के चलते प्रक्रिया लटकी हुई है। समग्र शिक्षा अभियान के तहत किताबों का टेंडर दोबारा जारी किया गया है। शिक्षा विभाग से जुड़े अधिकारी बताते हैं कि टेंडर की प्रक्रिया 15 मई तक भी पूरी हो गई, तो अगस्त तक किताबें बच्चों के हाथों में पहुंचने की उम्मीद की जा सकती है। करीब 10 करोड़ पाठ्य पुस्तकें, वर्क बुक आदि छापने के लिए 20 से 25 प्रकाशकों के समूह को जिम्मेदारी दी जानी है।

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प्रयोगशाला बन गई है प्राथमिक शिक्षा

विशिष्ट बीटीसी शिक्षक वेलफेयर एसोसिएशन के प्रदेश मंत्री तारकेश्वर शाही कहते हैं कि ‘सरकार के मंत्रियों और अफसरों ने प्राथमिक शिक्षा को प्रयोगशाला बना दिया है जहां पढ़ाई को छोड़कर सारे काम होते हैं। नए सत्र में किताब और ड्रेस को लेकर बच्चों में उत्साह रहता है। लेकिन कोई बताने की स्थिति में नहीं है कि ड्रेस और किताबें नौनिहालों को कब मिलेंगी। पुरानी किताबों से पढ़ाई जारी रखने का आदेश पूरी तरह हास्यास्पद है।’

शासन का यह भी आदेश है कि नए सत्र में ड्रेस, बैग, जूता-मोजा उन्हीं बच्चों को मिलेगा जिन्होंने बीते सत्र में इसकी खरीदारी की थी। इसकी तस्दीक के लिए प्रधानाध्यापक को बच्चों के साथ सेल्फी प्रेरणा ऐप पर अपलोड करना पड़ रहा है। वाराणसी के एक कंपोजिट विद्यालय में तैनात एक शिक्षक बताते हैं कि ‘पिछले साल चुनावों से पहले अभिभावकों के खाते में ड्रेस से लेकर बैग आदि के लिए रकम भेज दी गई थी। लेकिन 90 फीसद से अधिक अभिभावकों ने ड्रेस नहीं खरीदे। अब नए फरमान के बाद एक ही स्कूल ड्रेस कई बच्चों को पहनाकर सेल्फी एप पर अपलोड करना पड़ रहा है जिससे बच्चों के अभिभावकों के खाते में 1,100 रुपये पहुंचें और हमारी नौकरी भी सुरक्षित रहे।’

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सरकारी स्कूलों से हो रहा अभिभावकों का मोहभंग

वैसे, सरकार ने दाखिला बढ़ाने के लिए स्कूल चलो अभियान चला रखा है। दरअसल, कोरोना काल में तमाम अभिभावकों ने पढ़ाई नहीं होने की दशा में पब्लिक स्कूलों से नाम कटवाकर प्राथमिक स्कूलों में डाल दिया था। मऊ जिले में पब्लिक स्कूल संचालित करने वाले राजेश श्रीवास्तव बताते हैं कि ‘कोरोना में स्कूलों की बंदी के बीच 20 से अधिक अभिभावकों ने फीस से बचने के लिए बच्चों का एडमिशन प्राथमिक स्कूलों में करा लिया था। अब वे नए सिरे से प्रवेश कराना चाहते हैं।’ ऐसा ही अनुभव नेपाल सीमा से सटे महराजगंज जिले में तैनात शिक्षक अनूप दूबे का है। अनूप बताते हैं कि ‘शासन का फरमान है कि स्कूलों में बच्चों का नामांकन 30 फीसदी नहीं बढ़ा तो वेतन रोक दिया जाएगा। स्कूलों में न तो डेस्क-बेंच है और न ही किताबें। ऐसे में कौन जागरूक अभिभावक प्राथमिक स्कूलों में अपने पाल्यों को भेजेगा?’

गोरखपुर नगर निगम में पार्षद अमरनाथ यादव भी सिस्टम से परेशान हैं। उनका कहना है कि ‘विकास प्राधिकरण ने लाखों रुपये से वार्ड के स्कूल का जीर्णोद्धार करा दिया लेकिन दरवाजा नहीं लगाया। स्कूल में चार में से दो पंखे खराब हैं। गर्मी से परेशान बच्चों की दिक्कतों को लेकर बीएसए और नगर शिक्षा अधिकारी से शिकायत की तो उन्होंने मेरा नंबर ही ब्लॉक कर दिया है।’ सामाजिक कार्यकर्ता राजेश मणि कहते हैं कि ‘दो करोड़ प्राइमरी स्कूली बच्चों के अभिभावक राजनीतिक दलों के लिए वोटबैंक से अधिक नहीं है। इसीलिए बेसिक शिक्षा में पढ़ाई नहीं सिर्फ प्रयोग ही हो रहे हैं।’

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रसोइयों के मानदेय का वादा भी अधूरा

बीते वर्ष चुनावी माहौल में योगी सरकार ने प्राथमिक स्कूलों में मिड-डे मील बनाने के लिए तैनात 3,77,520 रसोइयों का मानदेय 1,500 रुपये से बढ़ाकर दो हजार रुपये करने का ऐलान किया था। इसके साथ ही महिला रसोइयों को साल में एक बार साड़ी और पुरुष रसोइयों के लिए पैंट-शर्ट की व्यवस्था के लिए 500-500 रुपये की धनराशि अलग से देने का ऐलान हुआ था। लेकिन बढ़ा हुआ मानदेय कौन कहे, पहले से तय मानदेय भी नहीं मिल रहा है। रसोइया संघ की प्रदेश अध्यक्ष रेनू शर्मा का कहना है कि ‘कई जिलों में रसोइयों का मानदेय महीनों से नहीं मिला है। चुनावी लाभ लेने के लिए मानदेय बढ़ाने की घोषणा तो हुई लेकिन अमल नहीं हुआ।

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