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पश्चिम बंगाल : एसआईआर के बाद संदिग्ध मतदाताओं’ की यह नई जमात कहां से आई

ये ऐसे लोग हैं जिन्हें मसौदा सूची में सफलतापूर्वक शामिल किए जाने के बावजूद अब ‘संदिग्ध मतदाता’ बताया जा रहा है

सांकेतिक तस्वीर
सांकेतिक तस्वीर 

अगर किसी को लगता है कि पश्चिम बंगाल को घुसपैठियों का स्वर्ग साबित करने में मिली नाकामी से भारत के चुनाव आयोग या भारतीय जनता पार्टी के पेशानी पर कोई बल पड़ा है, तो ऐसा बिल्कुल नहीं है। पश्चिम बंगाल में एसआईआर के बाद, चुनाव आयोग ने मसौदा मतदाता सूची में 1.67 करोड़ मतदाताओं को ‘संदिग्ध’ के रूप में वर्गीकृत किया है। यह एक ऐसी श्रेणी है, जो चुनाव आयोग को जाहिर तौर पर उन अन्य आठ राज्यों और तीन केन्द्र शासित प्रदेशों में नहीं मिली है जहां एसआईआर हो रहा है। (जबकि बिहार में इसका यह ‘परीक्षण अभियान’ बेहद सफल रहा)।

हालांकि केंद्रीय मंत्री और पश्चिम बंगाल बीजेपी के नेता शांतनु ठाकुर समर्थकों को फिर आश्वस्त करते दिखे कि अंतत: तो कम-से-कम एक करोड़ मुस्लिम मतदाताओं के नाम मतदाता सूची से हट ही जाएंगे। उन्होंने मुसलमानों से ‘बदला’ लेने के लिए हिन्दू मतुआ समुदाय से कुछ ‘तकलीफे झेलने’ का आह्वान किया और कहा कि अगर यह तकलीफ 50 लाख ‘घुसपैठियों’ को हटाने में मददगार है तो एक लाख मतुआ नामों को हटाना कोई मायने नहीं रखता।

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चुनाव आयोग ने 1.67 करोड़ ‘संदिग्ध मतदाताओं’ को अपनी पहचान साबित करने के लिए व्यक्तिगत रूप से निर्वाचन पंजीकरण अधिकारियों (ईआरओ) के समक्ष पेश होने को तलब करने का निर्णय लिया है। इसकी निगरानी के लिए चार हजार से ज्यादा माइक्रो आब्जर्वरों को ट्रेनिंग दी जा रही है और पूरी प्रक्रिया की देखरेख के लिए केन्द्रीय सरकारी अधिकारी भी भेजे  गए हैं। उम्मीद है कि आयोग नई दिल्ली में जनवरी 2026 में  ‘पश्चिम बंगाल की स्थिति’ की समीक्षा कारेगा।

जिन मतदाताओं के रिकॉर्ड में अनियमितताओं की बात है, उन्हें मसौदा सूची में सफलतापूर्वक शामिल किए जाने के बावजूद अब ‘संदिग्ध मतदाता’ बताया जा रहा है। आयोग ने एसआईआर के प्रथम चरण में पहली बार मतदाता के रूप में पंजीकृत 45 वर्ष और उससे अधिक आयु के लगभग 20 लाख मतदाताओं की पहचान की है; इसके अलावा, पारिवारिक विवरणों में विसंगतियों (उदाहरण के लिए, पिता के नाम की वर्तनी 2002 की मतदाता सूची से अलग है) वाले 30 लाख मतदाताओं को चिह्नित किया है; तथा अन्य मतदाताओं में पिता और पुत्र की आयु में संदिग्ध रूप से कम अंतर जैसी कथित ‘तार्किक विसंगतियां’ पाया जाना रेखांकित किया गया है।

एसआईआर के प्रथम चरण से पूर्व पश्चिम बंगाल में कुल मतदाताओं की संख्या 7.66 करोड़ थी, जिनमें से 7.5 प्रतिशत मतदाताओं को मसौदा सूची से हटा दिया गया है। यानी 58 लाख मतदाता। इनमें से 24.16 लाख मतदाताओं की मृत्यु हो चुकी है, 32.65 लाख मतदाता मौजूद नहीं थे या निवास स्थान बदल चुके थे और 1.38 लाख मतदाता डुप्लिकेट पाए गए।

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चुनाव आयोग की सख्त निगरानी में किए गए इस एसआईआर सर्वेक्षण ने पश्चिम बंगाल के बांग्लादेश सीमा से लगे नौ जिलों की जनसंख्या संरचना को घुसपैठिया प्रभावित होने के बीजेपी के झूठे दावों की पोल खोल दी है। राज्य बीजेपी नेताओं के लिए अब यह चिंता का विषय है कि मुस्लिम बहुल सीमावर्ती निर्वाचन क्षेत्रों में एक प्रतिशत से भी कम मतदाता ‘अमान्य’ पाए गए हैं, जबकि, हिन्दू (मतुआ) बहुल जिलों में अमान्य मतदाताओं का हिस्सा सात से आठ प्रतिशत तक पहुंच जाता है, और यह असमानता भाजपा के दावों को बुरी तरह से ध्वस्त कर देती है।

शहरी क्षेत्रों और मुस्लिम अधिकतावाले इलाकों के बजाय हिन्दू बहुसंख्यक जिलों में मतदाता सूची से नाम हटाने की दर कहीं ज्यादा रही है। विधानसभा क्षेत्रों में भी उत्तरी कोलकाता के जोरासांको में अनुपस्थित, स्थानांतरित और मृत मतदाताओं के नाम हटाए जाने का प्रतिशत सबसे अधिक 36.85 रहा, जबकि बांकुरा के कटुलपुर में यह सबसे कम 2.21 प्रतिशत रहा। उत्तर 24 परगना के मतुआ बहुल क्षेत्र में, पूरे जिले में मुस्लिम मतदाताओं की तुलना में हिन्दू मतदाताओं के नाम हटाए जाने की संख्या कहीं ज्यादा है।

नादिया में 27 लाख से अधिक मतदाता (कुल मतदाताओं का 6.1 प्रतिशत) और उत्तर 24 परगना में 73 लाख से अधिक मतदाता (कुल मतदाताओं का 8.8 प्रतिशत) ‘अमान्य’ श्रेणी में आते हैं। इससे भी ज्यादा महत्वपूर्ण बात यह कि कोलकाता पोर्ट, उत्तरी कोलकाता के जोरासांको और पश्चिम बर्धमान के औद्योगिक क्षेत्र जैसे निर्वाचन क्षेत्रों के साथ-साथ उत्तर 24 परगना में (जहां बिहार और उत्तर प्रदेश से आए प्रवासी श्रमिकों की बड़ी आबादी रहती है) हटाए गए मतदाताओं की सूची में हिन्दुओं की संख्या मुसलमानों की संख्या से ज्यादा है।

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कहने की जरूरत नहीं कि अगर बीजेपी इस बात पर अड़ी न होती कि पश्चिम बंगाल में घुसपैठ का वायरस सबसे तीव्र असर वाला घातक है, तो किसी सीमा तक शर्मिंदगी से बच सकती थी। ऐसे में जाहिर है कि भाजपा के राज्य नेतृत्व से जब पूछा गया कि मुसलमानों की तुलना में हिन्दू नाम ज्यादा कैसे हटाये गए हैं, तो उन्होंने सवाल को टाल दिया।

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी भी 20 दिसंबर को पश्चिम बंगाल की अपनी संक्षिप्त यात्रा के दौरान, जिसमें उन्होंने 3,200 करोड़ रुपये की दो राजमार्ग परियोजनाओं का शुभारंभ किया, घुसपैठियों के बारे में बात करने से परहेज करते दिखे। इसके बजाय, उन्होंने ममता बनर्जी के ‘महा जंगल राज’ और मतुआ समुदाय के संस्थापकों और नेताओं की बात करना बेहतर समझा।

हालांकि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ऐसे आंकड़ों से विचलित नहीं दिखता और पश्चिम बंगाल को सुधारने के अपने इरादे पर मजबूती से खड़ा दिखता है। 21 दिसंबर को कोलकाता में मोहन भगवत ने कहा भी, “अगर सभी हिन्दू एकजुट हो जाएं, तो राज्य की सूरत बदलने में समय नहीं लगेगा।”  

2014 के बाद से बीजेपी और आरएसएस आक्रामक रूप से इस धारणा को बढ़ावा देते रहे हैं कि पश्चिम बंगाल की जमीन डर-गुस्सा-नफरत की मानसिकता को बढ़ावा देने के लिए खासी उपजाऊ है, ताकि धार्मिक पहचान की राजनीति के अपने वैचारिक एजेंडे को पूरा किया जा सके, जो मुसलमानों को बाहरी, घुसपैठिये और राष्ट्र-विरोधी के रूप में बदनाम करता है।

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हालांकि अगर बीजेपी ने ‘हिन्दुओं की बेबसी’ की हकीकत वाली अपनी कहानी प्रचारित करने में थोड़ा कम हमलावर और कम अहंकारी रवैया अपनाया होता, जो बांग्लादेश से भारतीय नागरिकों का वेश बनाकर आए मुस्लिम ‘जनसांख्यिकीय हमले’ के डर से सहमे हुए हैं, तो भाजपा को शायद इतनी शर्मिंदगी नहीं उठानी पड़ती। पार्टी ने एसआईआर को अवैध प्रवासी मतदाताओं के ‘आवश्यक शुद्धिकरण’ के रूप में प्रचारित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। इस कहानी के उलट कोई भी डेटा तार्किक आधार पर एक भ्रांति से ज्यादा कुछ नहीं है।

सवाल है कि अगर पश्चिम बंगाल में अनुपस्थित, विस्थापित या मृत से अलग ऐसे ‘संदिग्ध’ मतदाता भी हैं, तो फिर उत्तर प्रदेश और गुजरात जैसे राज्यों में क्यों नहीं मिले? एसआईआर के प्रथम चरण के बाद अन्य राज्यों में मतदाता सूची से हटाए गए मतदाताओं की संख्या कहीं ज्यादा है: गुजरात में 73.7 लाख और तमिलनाडु में 97.4 लाख। उत्तर प्रदेश की मसौदा सूची (जो 31 दिसंबर को प्रकाशित होनी है) का बेसब्री से इंतजार है।

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संभावना है कि यहां यह संख्या और भी ज्यादा होगी। तो क्या बीजेपी का अब भी इस बात पर जोर रहेगा कि इन राज्यों में मतदाता सूची से हटाए गए या नाम वापस लेने वाले मतदाता रोहिंग्या और बांग्लादेशी थे जो पश्चिम बंगाल से निकलकर भारत के बाकी हिस्सों में घुसपैठ कर चुके हैं, और इस तरह वह मोदी सरकार द्वारा ‘बांग्लादेशी भाषा’ बोलने वालों के खिलाफ चलाए जा रहे बदले की कार्रवाई को जायज ठहराएगी?

बांग्लादेश में हिंसा और राजनीतिक उथल-पुथल बढ़ने के साथ, पिछले एक साल में अवामी लीग समर्थकों, और संभवतः हिन्दुओं की, भारत में शरण लेने की खबरें आई हैं। क्या सरकार सीमा पार करने वाले विभिन्न स्तरों के अवामी लीग नेताओं को निर्वासित कर सकती है? क्या वह धार्मिक उत्पीड़न से भाग रहे हिन्दू बांग्लादेशियों के प्रवेश पर रोक लगा सकती है? मोदी सरकार इस घुसपैठ के मुद्दे को कैसे सुलझाती है, इस पर सीमा के दोनों ओर से पैनी नजर रखी जा रही है।

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