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पश्चिम बंगालः मटुआ तो ठीक, ये गोपाल ‘बकरा’ क्या है?

मतदाता अधिकार यात्रा के दौरान राहुल गांधी ने पश्चिम बंगाल मटुआ महासंघ के 24 सदस्यीय प्रतिनिधिमंडल से मुलाकात की थी। यह बैठक तृणमूल कांग्रेस को बेचैन करने वाली तो थी ही, बीजेपी को और ज्यादा चौंका गई। इसने मटुआ समुदाय की चिंताओं को भी उजागर कर दिया।

पश्चिम बंगालः मटुआ तो ठीक, ये गोपाल ‘बकरा’ क्या है?
पश्चिम बंगालः मटुआ तो ठीक, ये गोपाल ‘बकरा’ क्या है? फोटोः सोशल मीडिया

पश्चिम बंगाल में, जातिगत निष्ठाएं आमतौर पर राजनीतिक प्रतिबद्धताओं से ऊपर नहीं होतीं और न ही जाति यह तय करती है कि राजनीतिक प्रतिबद्धता का निर्णायक आधार क्या हो! लेकिन फिर, देखना होगा कि यह सामान्य समय नहीं है। 

जातिगत पहचान, घुसपैठियों और तथाकथित ‘बांग्लादेशी भाषा बोलने वालों’ के इर्द-गिर्द बदलाव की ऐसी बयार चल रही है कि सिर चकरा जाए। इस श्रेणी (‘बांग्लादेशी भाषा’ क्या है?!’) के निर्माण में निहित अज्ञानता कोई खास अहमियत नहीं रखती, क्योंकि बीजेपी मतदाताओं के ध्रुवीकरण और हिन्दू वोट एकजुट करने की कोशिशों में जिस तरह लगी है, यह बेमानी हो जाता है।

कथित घुसपैठियों के प्रति संदेह और घृणा फैलाने की कोशिशों के बीच, इसका ध्यान फिलहाल मटुआ समुदाय पर केन्द्रित है, जिनकी जड़ें मूल बांग्लादेश (पहले पूर्वी पाकिस्तान) में हैं। मुट्ठी भर मटुआ समुदाय, एक अनुसूचित जाति समुदाय है, जिसे जाति उपनाम ‘नामशूद्र’ से भी जाना जाता है, और जो 1947 के विभाजन के दौरान पश्चिम बंगाल और त्रिपुरा में धीरे से घुस आए, और जो लोग उस समय यहीं रह गए थे, उनमें से ज्यादातर 1971 के युद्ध के दौरान भारत भाग गए।

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मटुआ समुदाय पश्चिम बंगाल की अनुसूचित जाति की कुल आबादी का 17 प्रतिशत से थोड़ा ज्यादा, और राजबोंगशियों के बाद राज्य का दूसरा सबसे बड़ा अनुसूचित जाति समूह है। मटुआ महासंघ के पदाधिकारी तन्मय बिस्वास और सुखेंदु गायेन के अनुसार, इस समुदाय की आबादी 2.5 करोड़ से 2.75 करोड़ के बीच है और इनमें से 1.7 करोड़ मतदाता हैं। राज्य के कम-से-कम 12 (42 में से) लोकसभा क्षेत्रों और सौ से ज्यादा (294 में से) विधानसभा क्षेत्रों में मटुआ वोटों की खासी अहमियत है। उत्तर और दक्षिण 24 परगना, नादिया, हावड़ा, उत्तर और दक्षिण दिनाजपुर के सीमावर्ती जिलों और कूचबिहार के कुछ हिस्सों में इनका विस्तार है। कम-से-कम 21 विधानसभा क्षेत्रों में यह समुदाय बहुसंख्यक की स्थिति में है और विधानसभा में 68 सीटें अनुसूचित जातियों के लिए आरक्षित हैं।

भले ही उनकी दलगत निष्ठाएं बिखरी हुई हों, मटुआ जानते हैं कि उनकी आबादी को नजरअंदाज करना मुश्किल है। राजनीतिक क्षेत्र में भी उनकी दखलंदाजी भी ठीक-ठाक है। यही उन्हें हमेशा मांग में भी बनाए रखता है और यही वह कारण भी है कि उनको लेकर राजनीतिक दावेदारी करने वाले सतर्क रहते हैं। इस बार भी ऐसा ही है, हालांकि कहानी में एक नया मोड़ है।

30 अगस्त को, मतदाता अधिकार यात्रा के दौरान राहुल गांधी ने पश्चिम बंगाल मटुआ महासंघ के 24 सदस्यीय प्रतिनिधिमंडल से मुलाकात की थी। उनके हाथों में जो बैनर था, उस पर लिखा था: ‘राहुल दादा, बंगाल आइए... एसआईआर-ए-‘बिपद’, कांग्रेस-ए-‘निरापद’ (एसआईआर मतलब खतरा, कांग्रेस मतलब सुरक्षा)। यह बैठक तृणमूल कांग्रेस को बेचैन करने वाली तो थी ही, बीजेपी को और ज्यादा चौंका गई, क्योंकि इसका आयोजन उनके ही एक असंतुष्ट स्थानीय आयोजक तपन हलदर ने किया था। इसने मटुआ समुदाय की चिंताओं को भी उजागर कर दिया, जो हर बार नागरिकता का सवाल उठते ही बेचैन हो जाते हैं।

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बिहार में एसआईआर की कवायद, राज्य की मसौदा मतदाता सूची से बड़े पैमाने पर नामों का विलोपन, और बंगाल में, जहां अगले साल की शुरुआत में चुनाव होने हैं, यही शैतानी नाटक फिर से दोहराए जाने की आशंकाओं ने मटुआ समुदाय को एक बार फिर बेचैन कर दिया है। उनकी चिंता के मूल में भारतीय नागरिक होने के उनके दावों को प्रमाणित करने वाले दस्तावेज की मांग है।

1971 में भारत में बड़े पैमाने पर प्रवास के बाद कांग्रेस सरकार ने उत्तर 24 परगना और नादिया जैसे जिलों में मटुआ शरणार्थियों के पुनर्वास और पुनर्स्थापन का काम किया, लेकिन तब उन्हें बड़े पैमाने पर बतौर ‘शरणार्थी’ वर्गीकृत किया गया था। राजनीतिक दलों की मदद से, इन शरणार्थियों को राशन कार्ड मिल गए, जो उन दिनों पते और पहचान का प्रमाण भी थे और व्यापक अर्थों में नागरिकता का भी। मटुआ मूल रूप से इन्हीं राशन कार्डों के आधार पर मतदाता के रूप में पंजीकृत हुए। हालांकि अब उनके पास आधार पहचान पत्र हैं और कई के पास तो पासपोर्ट भी, लेकिन यह घबराहट संभवतः इस बात से ज्यादा उत्पन्न हुई है कि चुनाव आयोग मूल राशन कार्डों को लेकर अंतत: क्या रुख अपनाता है!

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केन्द्रीय मंत्री शांतनु ठाकुर द्वारा नागरिकता के लिए आवेदन करने वाले हथकंडे ने उनकी चिंता और बढ़ा दी है। अगर एक मंत्री की हैसियत संदिग्ध है, तो उनकी हैसियत की तो क्या ही बात की जाए, वह कितनी डांवाडोल है? अस्तित्व से जुड़े ऐसे ही सवाल मटुआ समाज के कई समुदायों को बीजेपी या तृणमूल कांग्रेस के प्रति अपने समर्थन पर पुनर्विचार करने को मजबूर कर रहे हैं, और वे कांग्रेस को संभवतः कहीं ज्यादा स्थिर और विश्वसनीय साथी के रूप में अपने करीब पा रहे हैं।

इन सबके अलावा, एक अलग मटुआ गुट भी है, जो समुदाय की आवाज होने का दावा कर रहा है। संदर्भवश, मटुआ का नेतृत्व पारंपरिक रूप से हरिचंद ठाकुर के वंशजों के हाथों में रहा है, जिनके बारे में कहा जाता है कि ब्राह्मण उत्पीड़न के खिलाफ आवाज उठाने के लिए 1860 के आसपास इस संप्रदाय की स्थापना उन्होंने ही की थी। प्रभावशाली ठाकुर परिवार की राजनीतिक निष्ठाएं वैसे भी बंटी हुई हैं: शांतनु ठाकुर बीजेपी के  केन्द्रीय मंत्री हैं, उनके भाई सुब्रत बीजेपी के विधायक हैं और ममता बाला ठाकुर तृणमूल सांसद। शांतनु का दावा है कि सुब्रत टीएमसी में जाने की तैयारी में हैं। ठाकुर परिवार के बाहर के नेता, मसलन अपने आप में कद्दावर और रानाघाट से बीजेपी सांसद जगन्नाथ सरकार इस मुद्दे को तूल देते रहे हैं, ने खुद को मटुआ समुदाय में एक प्रतिद्वंद्वी शक्ति केन्द्र के तौर पर पेश कर माहौल को और गरमा दिया है। सब कुछ खासा मजेदार है।

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गुम हो गई ‘द बंगाल फाइल्स’ 

बंगाल अथाह लोककथाओं का लोक है। 16 दिसंबर 1946 को, ‘डायरेक्ट एक्शन डे’ पर, जब कलकत्ता में भीषण नरसंहार शुरू हुए और एच.एस. सुहरावर्दी के नेतृत्व वाली प्रांतीय सरकार ने सेना नहीं बुलाई, तो इससे प्रभावित हर मोहल्ले ने अपने-अपने  नायक और खलनायक बता दिए। हर मोहल्ले की एक स्मृति होती है जो समुदाय में संरक्षित रहती है और समय के साथ आगे बढ़ाई जाती है।

गोपाल पंथा के नाम से चर्चित रहे गोपाल चंद्र मुखर्जी ऐसे ही एक दिग्गज किरदार थे। पंथा का शाब्दिक अर्थ ‘बकरा’ होता है, लेकिन इस इलाके के मुहावरे में, पंथा अपमानजनक से ज्यादा स्नेहिल प्रतीक है। विवेक अग्निहोत्री की ‘द बंगाल फाइल्स’ में उनका परिचय ‘एक था कसाई गोपाल पंथा’ (कभी गोपाल नाम का एक कसाई हुआ करता था) से होता है। उन्हें ‘भयावह और अपमानजनक’ किरदार के रूप में चित्रित करने पर आपत्ति जताते हुए, मुखर्जी के पोते शांतनु ने दो याचिकाएं दायर कीं, जिनमें से दूसरी याचिका में फिल्म के सिनेमाघरों में रिलीज पर रोक लगाने की मांग की गई थी। कलकत्ता उच्च न्यायालय ने याचिका खारिज कर दी और फिल्म 5 सितंबर को कोलकाता में प्रदर्शित हुई। 8 सितंबर को बॉक्स ऑफिस रिपोर्ट के अनुसार, लगभग 18 प्रतिशत से भी कम दर्शकों ने इसका रुख किया।

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दिलचस्प यह है कि 16 अगस्त को जब ट्रेलर की स्क्रीनिंग हुई, तो उसे लेकर हुए विवाद ने फिल्म की अपेक्षा कहीं ज्यादा ध्यान खींचा। प्रीव्यू रोके जाने से लोगों की उत्सुकता और बढ़ गई। जो खबर तेजी से वायरल हुई, यह थी कि ममता बनर्जी की सरकार अभिव्यक्ति की आजादी पर रोक लगा रही है और कलकत्ता हत्याकांड के ‘छिपे सच’ पर पर्दा डालना चाह रही है।

विडंबना यह है कि गोपाल चंद्र मुखर्जी कांग्रेसी थे, जिन्हें  भारतीय राजनीति की ‘बाहुबली’ परंपरा का बीटा संस्करण कहा जाता है। वह पश्चिम बंगाल के प्रथम मुख्यमंत्री विधान चंद्र रॉय के आगे चलने वाली मशाल माने जाते हैं। लोककथाओं की मानें, तो 1957 की राज्य विधानसभा में अपने इस ‘संरक्षक’ को हार के मुंह से निकालकर जीत दिलाने में उनकी बड़ी भूमिका रही। गोपाल पंथा का हिन्दुत्व के प्रतीक के रूप में ‘रूपांतरण’ उनके परिवार को तो रास नहीं ही आना था, लगता है जनता को भी बिलकुल रास नहीं आया है।

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