विचार

आकार पटेल/ वर्तमान के मलबे को नजरंदाज़ कर संगीत की धुन पर भक्तों को मोहता एक जादूगर

उस जादूगर के कौशल और आकर्षण की सराहना न करना मुश्किल है जो अपने आस-पास के वर्तमान के मलबे को नज़रअंदाज़ करता हुआ अपने भक्तों को संगीत की धुन पर भविष्य के सपने दिखाता है।

कांवड़ यात्रा के दौरान पीएम मोदी का मुखौटा लगाए एक भक्त (Getty Images)
कांवड़ यात्रा के दौरान पीएम मोदी का मुखौटा लगाए एक भक्त (Getty Images) SOPA Images

 मैं उन लोगों में से हूं जो भारत को एक बहुलवादी और धर्मनिरपेक्ष समाज के रूप में देखना पसंद करते हैं और मुझे मौजूदा सरकार से कुछ दिक्कत है। मेरे इस कॉलम में बीते बरसों के साथ ऐसा आप लोगों ने देखा होगा। यह दिक्कत विचारधारा और सिद्धांतों में निहित अंतर पर आधारित है। तमाम दूसरे लोगों की तरह, मैं सोचता हूं कि हिंदुत्व के विचार में समस्या है और यह देश पर थोपा हुआ एक अप्राकृतिक तत्व है। इसकी उपलब्धियों तो होंगी, लेकिन जिन्हें नापसंद किया जाए और असहमत हुआ जाए, उनकी फेहरिस्त काफी लंबी है।

अगर कोई मुझसे कहे कि मौजूदा शासन व्यवस्था में से कोई दो-एक चीजें चुनो तो मैं कहूंगा कि पहली तो यह कि मौजूदा प्रधानमंत्री ने अपने पहले के बीजेपी प्रधानमंत्री के मुकाबले कहीं अधिक तेज हमले अल्पसंख्यकों पर किए हैं। और, दूसरी बात यह कि उन्होंने इसी दम पर अपने कुछ भक्त तैयार कर लिए हैं जो उनके हर कृत्य से सहमत नजर आते हैं।

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यह ऐसी बात लगती है जैसे मैंने इस सरकार को एक छोटी सी रियायत दे दी हो, और दरअसल किसी और बात की ओर इशारा किया जाना चाहिए, लेकिन ऐसा करना भी आसान नहीं है। जब कोई किसी ऐसे दौर का मूल्यांकन कर रहा हो जो अपने बारहवें वर्ष में प्रवेश कर रहा हो, तो उसके प्रभाव से बचना मुश्किल होता है। मसलन जब किसी को कोई फिल्म देखने लायक नहीं लगती, तो यह कहने का कोई अर्थ नहीं है कि यह देखने लायक नहीं थी, लेकिन हीरो के बदलते कॉस्ट्यूम अच्छे थे। यह समीक्षक इसे अनिच्छा से केवल डेढ़ स्टार देता है। लेकिन जाहिर तौर पर इसका एक दूसरा पहलू भी है, वह है उन लोगों का जो सोचते हैं कि फिल्म तो बहुत ही अच्छी है। आज का यह कॉलम ऐसे ही लोगों के बारे में है।

चाहे वह (प्रधानमंत्री ) कुछ भी करें, जब तक भेदभाव के कानूनों, बहिष्कार की नीतियों और नफरत के बयानों के ज़रिए अल्पसंख्यकों पर ध्यान केंद्रित रहेगा, तब इस भक्ति को असंतोष नहीं कहा जा सकता। आज मैं ऐसी घटना के बारे में लिखने की कोशिश करना चाहता था, जिसे मैं वास्तविक मानता हूं क्योंकि हमारे चारों ओर इसके प्रमाण मौजूद हैं। यह आबादी का कोई मामूली हिस्सा नहीं है और इसीलिए इसे देखना दिलचस्प है।

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पिछले कुछ हफ़्तों की घटनाओं से हमें ऐसा कुछ देखने-सुनने को मिला है जिसकी जांच होनी चाहिए। वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) की ही मिसाल लेते हैं। लगभग एक दशक पहले जब इसे पारित किया गया था, तो हमें बताया गया था कि यह भावी पीढ़ी का सुधार है जो भारत की अर्थव्यवस्था को गति देगा। सरकार के विशेषज्ञ टेलीविजन चैनलों पर कतार लगाए यह कहते नहीं थक रहे थे कि इससे जीडीपी में 2 फीसदी का इजाफा होगा, बिना यह बताए कि कैसे होगा। लेकिन ऐसा हुआ तो नहीं।

विपक्ष का साफ कहना था कि जहां यह कारोबार के लिए बेहद जटिल है, वहीं गरीबों पर बहुत भारी बोझ है क्योंकि अप्रत्यक्ष कर उन पर असमान रूप से भारी पड़ते हैं। साथ ही राज्यों के लिए बहुत अनुचित है क्योंकि इसके बाद राजस्व पर उनका नियंत्रण नहीं बता है। ये सभी शिकायतें जायज़ थीं क्योंकि ये सच थीं।

इस हफ़्ते, दरों में फेरबदल करके, एक बार फिर हमें बताया जा रहा है कि यह भावी पीढ़ी के सुधार हैं क्योंकि मूल सुधारों में खामियां थीं। इसे समझने में एक दशक से ज़्यादा समय क्यों लगा, यह सवाल कोई तभी पूछेगा जब वह भक्तों के समूह का हिस्सा न हो। उनके लिए 2017 का जीएसटी बहुत अच्छा था और 2025 का भी शानदार है।

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सुबह के अख़बार की हेडलाइन है: "ट्रंप ने भारत पर यू-टर्न लिया, एक दिन पहले ही पीएम मोदी को चीन के हाथों खो देने की बात कहने के बाद पीएम मोदी को 'अच्छा दोस्त' बताया।" सवाल है कि क्या उन्होंने 50 फीसदी का टैरिफ वापस ले लिया है? नहीं। क्या उनके प्रशासन ने रूसी तेल ख़रीदने के लिए भारत को सज़ा देने की अपनी नीति या भाषा में कोई बदलाव किया है? नहीं। उसी दिन ट्रंप के वाणिज्य मंत्री ने सार्वजनिक रूप से टिप्पणी की, जिसके परिणामस्वरूप उसी अख़बार में यह हेडलाइन छपी: "भारत माफ़ी मांगेगा और दो महीने में समझौता करेगा: लुटनिक"।

यह कैसा ट्रंप का यू-टर्न है? यह तो भक्तों के मन में है। अखबार की तीसरी सुर्ख़ी: 'अमेरिका-भारत टैरिफ विवाद के बीच, प्रधानमंत्री मोदी इस महीने के अंत में न्यूयॉर्क में होने वाले संयुक्त राष्ट्र महासभा को संबोधित नहीं करेंगे।' यानी दिक्कत तो बनी हुई है, लेकिन अगर हमने खुद को यह यकीन दिला लिया है कि हम जीत गए हैं, तो फिर तथ्यों और हकीकत की औकात ही क्या रह जाती है?

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2020 के शुरुआती महीनों से लेकर अब तक, पांच साल से इस देश को चीन को दुश्मन मानने की सीख दी जा रही है। भक्तों से कहा गया कि वे चीनी ऐप्स डिलीट कर दें और अपने टीवी फेंक दें। भक्तों को समझाया गया कि चीन को निपटाने के लिए हम अमेरिका के साथ कैसे साझेदारी करेंगे। सरकार से जुड़े थिंक टैंकों में बैठे भू-रणनीतिक विशेषज्ञों ने इस ज़बरदस्त बदलाव की तारीफ़ में लेख लिखे, कैसे हम पश्चिम के साथ एकता के सूत्र में बंध गए हैं।

अभी कुछ ही दिन पहले, इस भावना को न केवल रोका गया बल्कि उसे उलट भी दिया गया। बताया जाने लगा कि अब चीन हमारा मित्र है और उसके साथ मिलकर हम अमेरिकी के प्रभुत्व को मिटा देंगे। सवाल है कि क्या चीन अब हमें 2020 या उससे पहले के मुक़ाबले अलग नज़र से देखता है? बिल्कुल नहीं। वह अपनी सोच को इतनी कोमलता से नहीं बदलता जितना यह सरकार अपने समर्थकों से करवा सकती है। हम ही हैं जो परिस्थितियों के अनुसार अपने मन को ढाल रहे हैं। यह हमारी 'पूर्व की ओर देखो, पश्चिम की ओर देखो, पूर्व की ओर देखो आदि' (लुक ईस्ट, लुक वेस्ट, लुक ईस्ट पॉलिसी) नीति है। यह बिल्कुल सही है।

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जैसा कि मैंने कहा, पिछले एक दर्जन वर्षों में जो कुछ हुआ है, उसमें ज़्यादा कुछ ऐसा नहीं है जिसे पसंद किया जा सके। नुकसान असली हुआ है और यह दशकों तक हमारे साथ रहेगा। लेकिन उस जादूगर के कौशल और आकर्षण की सराहना न करना मुश्किल है जो अपने आस-पास के वर्तमान के मलबे को नज़रअंदाज़ करता हुआ अपने भक्तों को संगीत की धुन पर भविष्य के सपने दिखाता है।

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