विचार

कृषि विधेयकः सरकार ने तमाम संसदीय परंपराओं का गला घोंटा, उम्मीद है यह कालखंड राष्ट्रीय चेतना जगाने वाला होगा

कोरोना के इस कठिन दौर में भी नए कृषि कानूनों के खिलाफ जिस तरह बड़ी संख्या में लोग सड़कों पर उतर रहे हैं, उससे स्पष्ट है कि जिस समुदाय के कथित हितों को ध्यान में रखते हुए इन कानूनों को बनाया गया, उसकी राय जुदा है, वह इन कानूनों को अपने हित में नहीं मानता।

फोटोः सोशल मीडिया
फोटोः सोशल मीडिया 

जिस अजीब-सी हड़बड़ी के साथ महत्वपूर्ण कृषि बिलों को कानून में बदला गया, उससे हमारी संसदीय लोकतांत्रिक प्रणाली के भविष्य को लेकर बड़े ही बेचैन करने वाले सवाल उठ खड़े हुए हैं। विपक्ष की आवाज को दबा दिया गया और बिलों को लेकर असहमति के बिंदुओं पर गौर करने की भी जरूरत नहीं समझी गई और बिना सार्थक चर्चा किए इन्हें संसद के दोनों सदनों से पारित करा लेना संख्या बल का खुला दुरुपयोग है। संसदीय प्रक्रियाओं की ऐसी अनदेखी लोकतंत्र को बदशक्ल करने वाली घटना के तौर पर लंबे समय तक लोगों की स्मृति में बनी रहेगी।

जिस तरह सरकार द्वारा संसदीय अनदेखी को ढकने के लिए विधायी प्रक्रियाओं के उल्लंघन की घटनाएं अब लगातार हो रही हैं, उससे वह स्वस्थ परिपाटी खतरे में आ गई है, जिसमें सरकार के फैसलों में विपक्ष की भी एक भूमिका होती थी। इसी कारण कृषि कानूनों की लोकतांत्रिक और नैतिक वैधता खत्म हो जाती है।

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स्पष्टतः एक व्यावहारिक लोकतंत्र में कोई भी कानून जिसे संबद्ध समुदाय का सहर्ष समर्थन हासिल नहीं हो और जिसे सरकार द्वारा सामाजिक संवेदनाओं को आहत करते हुए थोपा गया हो, उसके बारे में यह दावा नहीं किया जा सकता कि लोग उसे स्वीकार कर ही लेंगे। स्वतंत्रता संग्राम के दौरान महात्मा गांधी का नेतृत्व इसी निर्विवाद दार्शनिक सिद्धांत पर आधारित था। यह अफसोस की बात है कि आजाद देश में हमारे बहादुर और प्यारे किसान भाइयों पर आज वर्तमान शासन के दौरान जो कहर ढाया जा रहा है, वह हमें औपनिवेशिक शासन की याद दिला रहा है।

हम जानते हैं कि कानूनों की प्रभावकारिता इस बात पर निर्भर करती है कि वह कितनी न्यायपूर्ण है और उसके बारे में लोगों के मन में क्या धारणा है। कोरोना के इस कठिन दौर में भी नए कानूनों के खिलाफ जिस तरह बड़ी संख्या में लोग सड़कों पर उतर रहे हैं, उससे स्पष्ट है कि जिस समुदाय के कथित हितों को ध्यान में रखते हुए इन कानूनों को बनाया गया, उस समुदाय की राय जुदा है, वह इन कानूनों को अपने हित में नहीं मानता।

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पंजाब के मुख्यमंत्री का यह कथित बयान कि संख्या बल के आधार पर संसद में बने इन कानूनों को अदालत में चुनौती दी जाएगी, हमारी संघीय राजनीतिक व्यवस्था के कामकाज के तरीके पर अपने आप में एक बड़ा सवाल है। सोचने वाली बात है कि किसी संवेदनशील मुद्दे पर एक गैर जिम्मेदार केंद्र सरकार के रवैये के कारण एक मुख्यमंत्री खुद को कितना असहाय पाता है कि उसे कानूनी रास्ता अख्तियार करने पर सोचना पड़ता है। निश्चित तौर पर भारतीय संघवाद के भविष्य के लिहाज से यह अच्छी बात नहीं है।

देश के विशाल कृषक समुदाय का इस तरह अलग-थलग पड़ना सही नहीं और इससे राष्ट्रीय सुरक्षा पर भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा क्योंकि पंजाब में किसानों की अच्छी खासी संख्या है और यह ऐसा सीमावर्ती राज्य है, जिसने लंबे समय तक पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवाद और उग्रवाद का खामियाजा भुगता है और यहां पर किसी भी तरह का अंसतोष राज्य को अस्थिर कर सकता है। नए कृषि कानूनों का व्यापक विरोध है और कांग्रेस, टीएमसी, एआईडीएमके, डीएमके, बीजेडी, आप, आरजेडी, टीआरएस, अकाली दल और वाम दलों ने इन विधेयकों को विस्तृत चर्चा के लिए राज्यसभा की प्रवर समिति को भेजने की मांग की थी।

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अगर यह मान भी लिया जाए कि नए कानूनों के प्रति समर्थन था, तो सबसे बड़ा सवाल तो यही है कि सरकार ने इसका विरोध कर रही राज्य सरकारों समेत सभी हितधारकों को आश्वस्त करने, उनकी शंकाओं के निराकरण का विकल्प क्यों नहीं चुना। भारत की राजनीतिक बाध्यताओं की थोड़ी भी समझ रखने वाला कोई भी व्यक्ति यह तो मानेगा कि कोई भी पार्टी किसानों के हितों के विरुद्ध दिखकर सत्ता में बने रहने की नहीं सोच सकती।

इन कानूनों के चौतरफा विरोध के बीच आलोचक इन्हें किसानों के लिए “क्रूर” और “मौत का वारंट” करार दे रहे हैं, क्योंकि इससे न्यूनतम समर्थन मूल्य का कवच कमजोर पड़ता चला जाएगा, जबकि यह किसानों के अस्तित्व, जीवनयापन, आर्थिक सुरक्षा और गरिमा से जुड़ी हुई व्यवस्था है। खास तौर पर यह स्थिति पंजाब और हरियाणा-जैसे राज्यों की है जहां मंडी और एमएसपी व्यवस्था है और अब इस व्यवस्था के लिए खतरा उत्पन्न हो गया है।

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किसान संगठन इन कानूनों को कृषि के निगमीकरण की दिशा में शुरुआती कदम के रूप में भी देख रहे हैं और उनका मानना है कि इसके अगले तार्किक कदम में एमएसपी व्यवस्था ही खत्म हो जाएगी। ऐसा माना जा रहा है कि जिस तेजी से खेती की लागत बढ़ रही है, अनियंत्रित खुले बाजार में किसानों को बेहतर रिटर्न मिलने के अभी दिए जा रहे तर्क अंततः बेकार ही साबित होंगे। मूल्य निर्धारण की पूरी व्यवस्था बाजार के हवाले कर देने को लेकर किसानों की अपनी वाजिब आशंकाएं हैं।

यह मान भी लिया जाए कि इन कानूनों के प्रति जनता की धारणाएं गलत हैं तो यह तो सरकार का काम था कि लोगों की आशंकाओं को दूर करती, तभी तो लोग इसे स्वीकार कर पाते। लेकिन सरकार ने अब तक तो ऐसा नहीं किया है। इसके उलट हमें एक आत्ममुग्ध हठी सरकार दिखती है जो इन विवादास्पद और विभाजनकारी कानूनों पर संसद के भीतर और बाहर एक स्वस्थ चर्चा की अपनी ओर से न्यूनतम कोशिश करने की भी जहमत नहीं उठाती।

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दरअसल, “कोई भी कानून विचार-विमर्श की पूर्णता होता है” और जैसा कि फ्रांसीसी दार्शनिक मोन्टेस्क्यू ने कहा था, “यह मायने नहीं रखता कि कोई व्यक्ति अच्छा तर्क रखता है या बुरा; इतना ही पर्याप्त है कि वह अपना तर्क रखता है। वैचारिक टकराव से ही सच्चाई निकलती है और इस तरह वह वैचारिक टकराव स्वतंत्रता की रक्षा करता है और यह स्थिति तर्क के प्रभाव से आती है...।” इसलिए यह स्पष्ट है कि वैसे कानून जिसे तर्क और विचार-विमर्श की कसौटी पर परखा नहीं गया हो और वह सिर्फ सरकार की ताकत पर टिका हो, वे संवैधानिक जांच में सफल नहीं होते।

देश के किसानों के खिलाफ युद्ध छेड़ने वाली सरकार ने शासन का अपना नैतिक अधिकार खो दिया है। इस समय सरकार को लेखक, अविष्कारक, बुद्धिजीवी और क्रांतिकारी थॉमस पेन की यह बात याद रखनी चाहिए कि ‘सत्ता का हिंसक दुरुपयोग इसे सही करार देने के फैसले पर सवाल उठाने का जरिया होता है।’

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उम्मीद है कि नए कृषि बिलों पर कमजोर राजनीति राष्ट्रीय स्तर पर राजनीतिक औचित्य की राष्ट्रीय चेतना को मजबूत करेगी। कृषि अर्थव्यवस्था में सकारात्मक बदलाव समेत अन्य महत्वपूर्ण नीतियों पर व्यापक राष्ट्रीय सहमति बनाने के लिए हमें एकरंगी सोच के दायरे से बाहर निकलते हुए हर पक्ष की बातों पर गौर करना होगा। हम आने वाली पीढ़ियों के हितों के लिए साक्षा विरासत के संरक्षक हैं और इस भूमिका में हम विभाजनकारी नीतियों को फलने-फूलने नहीं दे सकते, क्योंकि इससे एक देश के रूप में हमारी क्षमताएं सीमित होती हैं।

साथ ही हम इंसानियत को परिभाषित करने वाली सहानुभूति और करुणा की खत्म होती भावना को भी नजरअंदाज नहीं कर सकते। इंसान की किस्मत को आकार देने में अपनी तर्कसंगत भूमिका निभाने की इच्छा रखने वाले एक देश के लिए जरूरी है कि वह समावेशी प्रतिबद्धता और हर व्यक्ति के लिए न्याय और गरिमा का आश्वसन देने वाली राजनीति में अपने भविष्य को देखे। उम्मीद करनी चाहिए कि यह कालखंड राष्ट्रीय चेतना को जगाने वाला साबित हो।

(यह लेखक के अपने विचार हैं)

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