विचार

आकार पटेल का लेख: बर्खास्त किया जाए एम जे अकबर को, इस्तीफे देने का मौका न मिले

युवा महिलाओं द्वारा उनके बारे में जो कुछ भी खुलासे किए जा रहे हैं उससे अकबर की प्रतिष्ठा धूल में मिल गई है हमेशा के लिए, और यह सही हुआ है। एक लेखक और विचारक के तौर पर भी उनकी साख को धब्बा लगा है। मैं उम्मीद करता हूं कि उन्हें बरखास्त किया जाए, न कि सिर्फ इस्तीफा देने का मौका।

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फोटो : Getty Images विदेश राज्यमंत्री एम जे अकबर की फाइल फोटो

कोई 25 बरस पहले मैं काम की तलाश में सूरत से बॉम्बे (तब मुंबई को इसी नाम से जानते थे) आया था। मेरे परिवार का पॉलिस्टर का धंधा चौपट हो चुका था। मेरे पास शिक्षा के नाम पर टेक्सटाइल टेक्नालॉजी में डिप्लोमा था। स्कूल छोड़ने के बाद इस डिप्लोमा के तहत दो साल का मशीन चलाने का प्रशिक्षण लिया था मैंने। यानी मेरे पास किसी व्हाईट कॉलर जॉब यानी दफ्तर वाली नौकरी की कोई तालीम नहीं थी।

मैंने इम्पोर्ट-एक्सपोर्ट में नौकरी तलाशी, साथ ही गुजराती होने के नाते स्टॉक मार्केट में भी हाथ-पांव मारे, लेकिन मुझे कुछ हाथ नहीं लगा क्योंकि तभी हर्षद मेहता घोटाला ताज़ा-ताज़ा सामने आया था। मैं विले पार्ले में अपने दोस्त की बहन के घर रहता था। एक दिन लोकल ट्रेन में मैंने एक विज्ञापन देखा, जो अखबार में नौकरी का था। बहरहाल मैंने इस नौकरी के आवेदन किया, और ताज्जुब की बात थी कि मुझे यह नौकरी मिल भी गई, क्योंकि उन दिनों पत्रकारिता के लिए किसी खास कौशल या स्किल की जरूरत नहीं होती थी।

सिर्फ 30 दिन के बाद ही अखबार बंद हो गया। लेकिन, मुझे दूसरे अखबार में नौकरी मिल गई। इस अखबार का नाम था ‘द एशियन एज’ और इसके संपादक थे एम जे अकबर। मैं उन्हें नहीं जानता था क्योंकि सूरत में उन दिनों अंग्रेजी का कोई अखबार आता ही नहीं था।

मैंने 1995 से 1998 के दौरान अखाबर के मुंबई दफ्तर में काम किया, लेकिन मैं मानूंगा कि यह मेरी जिंदगी बदल देने वाला तजुर्बा था। मैं तो ऐसे माहौल से आया था जहां महिलाएं दफ्तरों में नजर ही नहीं आती थीं। हालांकि, जो छोटी सी फैक्टरी मेरा परिवार चलाता था उसमें कुछ महिलाएं भी काम करती थीं, लेकिन वे सब मजदूर तबके से थीं। उद्योगों की भाषा में बोलें, तो उन्हें हेल्पर कहा जाता था, यानी वे हल्के-फुल्के डिब्बे इधर-उधर रख देतीं थीं, या साफ-सफाई का काम करती थीं।

लेकिन, मेरी पहली नौकरी वाले इस अखबार में महिलाएं एकदम बराबर संख्या में थीं। मेरी बॉस भी एक महिला ही थीं। छोटे शहर से आए मेरे जैसे शख्स के लिए यह एक सीखने वाला तजुर्बा था। यहां काम करते हुए महिलाओं को लेकर मेरा नजरिया बदला था।

दूसरा जो तजुर्बा था, वह था ऐसे लोगों की संगति जो मुझसे कहीं ज्यादा समझदार और पढ़े-लिखे थे। हो सकता है दिल्ली, मुंबई, हैदराबाद या कोलकाता में पले-बढ़े किसी व्यक्ति को मेरी बात समझ न आए कि सूरत जैसी छोटी जगह से आए व्यक्ति को ऐसे माहौल में क्या अनुभव होता है।

यह वह दौर था जब इंटरनेट नहीं आया था और निजी चैनल भी दूर-दूर तक नहीं थे। सूरत कोई ऐसी जगह नहीं जो ज्ञान हासिल करने या सीखने में तब तक दिलचस्पी दिखाए जब तक उससे कमाई की संभावना न हो। सूरत में 30 साल पहले किताबों की एकमात्र दुकान थी जहां अंग्रेजी की किताबें मिलती थीं, हालांकि तब सूरत की आबादी कोई 15 लाख रही होगी।

लेकिन, यहां ऐसे महिला-पुरुष थे जो दुनिया को अपने ज्ञान और शिक्षा की बुनियाद पर कहीं बेहतर ढंग से समझते थे। मेरे लिए ऐसा माहौल बहुत कुछ सिखाने वाला था। इन सबमें कोई भी ऐसा नहीं था, जिसका ज्ञान या समझ एम जे अकबर से ज्यादा हो, या कोई उनसे ज्यादा प्रभावशाली हो। मैं मुंबई में काम करता था और अकबर दिल्ली में बैठते थे। इस नाते उनके साथ मिलने-जुलने का मौका बहुत ज्यादा नहीं मिलता था। लेकिन फिर भी मैं उनके व्यक्तित्व से कुछ हद तक और उनके लेखन से बहुत हद तक प्रभावित हुआ था।

मैं एक दकियानूसी, उच्च राष्ट्रवादी, और काफी हद तक संकीर्ण दिमाग का हिंदू पुरुष था। लेकिन, अकबर धर्म से पूरी तरह ऊपर थे। मैंने इस मामले में उन जैसा दूसरा कोई नहीं देखा। उनकी पहचान उनके धर्म से नहीं, बल्कि उनके ज्ञान और नजरिए के साथ ही उनके पठन और लेखन से थी। उन्होंने हम जैसे कई लोगों को भारतीय पहचान के मायने समझाए। उन्होंने इसे विचार को और विस्तार दिया, इसे और उदार बनाया और ज्यादा आकर्षक भी। इस तरह एक भारतीय होने में ज्यादा अच्छा लगने लगा था। उन दिनों अपने भारतीय पहचान पर गर्व करने के लिए न तो पाकिस्तान या चीन से नफरत की जरूरत थी और न ही किसी और भारतीय से।

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लेकिन, जिन लोगों को इस तरह अकबर ने बहुत गहरे प्रभावित किया था, उन्हीं को उन्होंने निराश किया है (बल्कि मैं तो कम से कम दो बार कहूंगा कि धोखा दिया है)। वे हमेशा से अवसरवादी रहे और हाल के वर्षों के दौरान राजनीति में उनके यू-टर्न और खासतौर से अकबर के मूल सिद्धांतों के उलट चमचागीरी करना, काफी तकलीफदे रहा। लेकिन राजनीति में तो ऐसी बहुत सी मिसालें है, इसलिए इस पर हंसने के अलावा और क्या किया जा सकता है। हम कह सकते हैं कि असली व्यक्ति तो उससे एकदम उलट था, जो आज कुर्सी के पीछे भाग रहा है।

लेकिन, युवा महिलाओं द्वारा उनके बारे में जो कुछ भी खुलासे किए जा रहे हैं उससे अकबर की प्रतिष्ठा धूल में मिल गई है हमेशा के लिए, और यह सही हुआ है। एक लेखक और विचारक के तौर पर भी उनकी साख को धब्बा लगा है। मैं उम्मीद करता हूं कि उन्हें बरखास्त किया जाए, न कि सिर्फ इस्तीफा देने का मौका।

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