विचार

कोरोना के इलाज में संजीवनी साबित हो सकती है एंटीबॉडी कॉकटेल, भारत में मिल चुकी है इमरजेंसी इस्तेमाल की इजाजत

भारत में एंटीबॉडी कॉकटेल का पहली बार इस्तेमाल गुरुग्राम के मेदांता अस्पताल में हुआ। इसे 84 वर्षीय हरियाणवी बुजुर्ग मोहब्बत सिंह के इलाज में इस्तेमाल किया गया और वे इससे ठीक होने वाले देश के पहले व्यक्ति बन चुके हैं।

फोटो : Getty Images
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कोविड-19 के मोर्चे से मिली-जुली सफलता की खबरें हैं। जहां इसकी दूसरी लहर उतार पर है, वहीं तीसरी का खतरा सिर पर है। दूसरे, दुनिया में टीकाकरण की प्रक्रिया तेज हो रही है। और तीसरे, मोनोक्लोनल एंटीबॉडी कॉकटेल के रूप में एक उल्लेखनीय दवा सामने आई है। ब्रिटेन के ऑक्सफोर्ड विश्व विद्यालय में हुए क्लिनिकल परीक्षणों में रिजेन-कोव 2 नाम की औषधि ने कोविड-19 संक्रमित मरीजों के इलाज में अच्छी सफलता हासिल की है। यह मोनोक्लोनल एंटीबॉडी कॉकटेल है, जो इसके पहले कैंसर, इबोला और एचआईवी के इलाज में भी सफल हुई हैं। पिछले साल जब अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप को कोरोना हुआ, तब उन्हें यही दवा दी गई थी।

यह दवा नहीं रोग-प्रतिरोधक है, जो शरीर का अपना गुण है, पर किसी कारण से जो रोगी कोविड- 19 का मुकाबला कर नहीं पा रहे हैं, उन्हें इसे कृत्रिम रूप से देकर असर देखा जा रहा है। इसकी तुलना प्लाज़्मा थिरैपी से भी की जा सकती है। परीक्षण अभी चल ही रहे हैं। यह तय भी होना है कि यह दवा मरीजों के किस तबके के लिए उपयोगी है। पिछले साल ऐसे ही परीक्षणों में ब्रिटिश वैज्ञानिकों ने डेक्सामैथासोन (स्टेरॉयड) को उपयोगी पाया था।

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कॉकटेल क्यों?

अमेरिकी फार्मास्युटिकल कंपनी रिजेनेरॉन की ‘रिजेन-कोव’ में दो तरह की एंटीबॉडी ‘कैसिरिविमैब’ और ‘इमडेविमैब’ है। ये एंटीबॉडी शरीर में रोगाणु को घेरती है। दो किस्म की एंटीबॉडी का इस्तेमाल इसलिए किया जाता है, ताकि वायरस किसी एक की प्रतिरोधी क्षमता विकसित करने न पाए। पिछले एक साल में इस दवा की उपयोगिता काफी हद तक साबित हुई, पर इसका बड़े स्तर पर इस्तेमाल अभी शुरू नहीं हुआ है।

रिजेन-कोव को अमेरिका, ब्राजील, कनाडा, यूरोपियन यूनियन और भारत में आपातकालीन उपयोग की अनुमति मिल गई है। ब्रिटेन और कुछ अन्य देशों में इसे अभी परीक्षण योग्य औषधि ही समझा गया है। विश्व स्वास्थ्य संगठन की मुख्य वैज्ञानिक सौम्या स्वामीनाथन का कहना है कि इससे जुड़े परिणाम बहुत अच्छे हैं, पर यह बहुत सीमित मात्रा में उपलब्ध है। मोनोक्लोनल-एंटीबॉडी के उत्पादन की सुविधा बहुत कम देशों के पास है, इसलिए इसकी कीमत बहुत ज्यादा है। सौम्या का कहना है कि दुनिया में इसके उत्पादन केंद्रों की संख्या बढ़ाने की जरूरत है। जैसे वैक्सीन पेटेंट मुक्त करने की मांग है, वैसे ही इसे भी पेटेंट-मुक्त करने की मांग की जा रही है।

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अमेरिकी राष्ट्रपति के स्वास्थ्य सलाहकार डॉ. एंटनी फाउची ने गत 3 जून को बताया कि यह दवा वायरस के कई वेरिएंटों पर प्रभावी है। दूसरी तरफ नीति आयोग के सदस्य डॉ. वी के पॉल का कहना है कि संभवतः वायरस के डेल्टा प्लस वेरिएंट पर इसका असर नहीं हो रहा है। तीसरी लहर का खतरा इसी वेरिएंट से है। बहरहाल, इसके परिणाम उत्साहवर्धक हैं।

पिछले साल जुलाई में, जब कोविड-19 दुनिया के सिर पर सवार था, रिजेनेरॉन ने घोषणा की कि उसने कोरोना की एक दवा तैयार की है, जिसके क्लिनिकल परीक्षण अपने अंतिम दौर में हैं। पिछले एक साल में कोरोना की वैक्सीनों का विकास हुआ है और दवाओं का भी। कुनैन के सिंथेटिक रूपों - क्लोरोक्विन और हाइड्रॉक्सीक्लोरोक्विन से लेकर रेमडेसिविर और स्टेरॉयडों तथा एचआईवी की दवाओं तक का इस्तेमाल इसके इलाज में हुआ, पर उल्लेखनीय सफलता ‘एंटीबॉडी-कॉकटेल’ को मिली है। यह कॉकटेल न केवल इलाज में बल्कि उसे होने से रोकने में भी कारगर साबित हुई है।

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इस दवाई केपीछे का सिद्धांत शरीर की प्रतिरोध- क्षमता से जुड़ा है। जैसे ही सार्स-कोव-2 (कोरोना का वायरस) या ऐसा ही कोई दूसरा वायरस हमला करता है, शरीर की प्रतिरोध-क्षमता काम शुरू करती है। शरीर ऐसे प्रोटीन बनाता है, जो रोग से लड़ते हैं। इन्हें एंटीबॉडी कहते हैं। कुछ लोगों के शरीरों में यह प्रक्रिया तेज होती है और कुछ में देर से। प्रतिक्रिया में विलंब होने पर रोगी की हालत बिगड़ जाती है। औषधि-विज्ञानियों ने अब कृत्रिम एंटीबॉडी सीधे शरीर में पहुंचा दी। एंटीबॉडीज़ वायरस को ललकारती हैं और उसे इस लायक नहीं रहने देतीं कि वह नुकसान पहुंचा सके। वह शरीर की कोशिकाओं को संक्रमित नहीं कर पाता। यह कृत्रिम-संरक्षण कुछ महीनों का ही होता है, पर तब तक वायरस निष्क्रिय हो चुका होता है। पिछले साल जब इसे तैयार किया जा रहा था, तभी वैज्ञानिकों को पूरा भरोसा था कि यह सफल चिकित्सा होगी, क्योंकि इसका बुनियादी विज्ञान जाना-पहचाना था। उदाहरण के लिए अपरा या गर्भनाल (प्लेसेंटा) के मार्फत शिशु को एंटीबॉडी मिलती हैं और जन्म के बाद स्तनपान से।

कोरोना से पहले इबोला वायरस को भी इसी सिद्धांत पर निष्क्रिय किया गया था। एंटीबॉडी चिकित्सा वस्तुतः वैक्सीन की अवधारणा की पूरक है। वैक्सीन आपके शरीर में मौजूद एंटीबॉडी को जगाने का काम करती है, जबकि यह औषधि बाहर से उसकी आपूर्ति करती है। वस्तुतः वैक्सीन भी पूरी तरह सुरक्षा प्रदान नहीं करती। इस लिहाज से यह एक पूरक इलाज है।

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भारत में उपलब्धता

भारत उन देशों में शामिल है, जहां रिजेन-कोव 2 उपलब्ध है। देश के सेंट्रल ड्रग स्टैंडर्ड कंट्रोल ऑर्गनाइजेशन ने मई में इसके आपात इस्तेमाल की अनुमति दी थी। स्विट्जरलैंड की कंपनी रॉश का भारतीय कंपनी सिपला के साथ इसकी उपलब्धता को लेकर समझौता हुआ है। चूंकि यह दवाई एकदम नई है और इसके बड़े स्तर पर उत्पादन की व्यवस्था नहीं है, इसलिए यह महंगी भी है। भारत में सिपला ने रिजेन-कोव 2 के एक लाख पैक जारी किए हैं। हरेक पैक की कीमत 1.20 लाख रुपये है। एक पैक में दो मरीजों के लिए दवाई है। यानी एक व्यक्ति के लिए 60 हजार। इस महीने के शुरू में अमेरिकी कंपनी एली लिली के बैमलेनीविमैब और इटीजविमैब नामक एंटीबॉडी कॉकटेल को भी इसी किस्म की अनुमति दी गई है। खबर है कि एली लिली भारत को यह दवा ‘दान’ में देना चाहती है। ब्रिटिश-स्वीडिश कंपनी एस्ट्राजेनेका की एंटीबॉडी औषधि के भी परीक्षण हुए हैं। अमेरिकी एफडीए ने ग्लैक्सोस्मिथक्लाइन के सॉट्रीविमैब के इस्तेमाल की अनुमति दी है। भारत की कंपनी जायडस कैडिला भी ज़ी आरसी-3308 नाम से ऐसे ही मोनोक्लोनल कॉकटेल के परीक्षण की योजना बना रही है। भारत में इसका पहली बार इस्तेमाल गुरुग्राम स्थित मेदांता अस्पताल में हुआ। मीडिया रिपोर्टों के अनुसार 84 वर्षीय हरियाणवी बुजुर्ग मोहब्बत सिंह का इलाज मोनोक्लोनल एंटीबॉडी कॉकटेल दवा के जरिए किया गया। उन्हें कोरोना समेत कई बीमारियां थीं। मोहब्बत सिंह एंटीबॉडी कॉकटेल दवा से ठीक होने वाले देश के पहले व्यक्ति बने।

इसके बाद दिल्ली के कई अस्पतालों में इस दवाई का इस्तेमाल होने की खबरें हैं। इनमें इंद्रप्रस्थ अपोलो, बीएल के और गंगाराम अस्पतालों के नाम शामिल हैं। मेदांता के डॉ. नरेश त्रेहन के अनुसार अभी तक का अनुभव है कि कोरोना-संक्रमित व्यक्ति को सात दिन में इस दवा का डोज देने पर ऐसे लोगों में 70-80 फीसदी घर में ही ठीक हो सकते हैं।

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