
सबसे पहले तो मैं पटना के रत्नेश्वर जी से क्षमा मांगता हूं कि मैं नाचीज उनके नाम से इस साल पटना पुस्तक मेला लगने के बाद ही परिचित हो पाया। यह सौभाग्य भी मुझे इसलिए प्राप्त हो सका कि उन्होंने अपनी किताब का दाम 15 करोड़ रुपए रखा है। अगर इसका मूल्य हम चिरकुट लेखकों की किताबों की तरह रखा होता तो मैं इस जीवन में उनके नाम से परिचित होने का सौभाग्य हासिल नहीं कर पाता! चिरकुट लेखक का दूसरे चिरकुट से परिचय हो, यह जरूरी नहीं क्योंकि यह संसार हर तरह के चिरकुटों से लबालब भरा हुआ है। इस तरह यह जाने बगैर मेरा यह जीवन अकारथ चला जाता कि भारत में एक ऐसा लेखक भी है, जिसकी लगभग चार सौ पेज की किताब का दाम पंद्रह करोड़ रुपए है! तो इस जीवन को सार्थकता देने के लिए मैं रत्नेश्वर जी को धन्यवाद देता हूं और उनसे निवेदन करता हूं कि वे इसे स्वीकार करें!
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15 करोड़ की इस किताब की दो प्रतियां मान लो, 15 लाख या 1500 में भी नहीं बिकें तो भी कोई समस्या नहीं। महत्व पुस्तक का नहीं, इसमें क्या है और क्या नहीं है, इसका भी नहीं है, महत्व इसके मूल्य का है, जो कि गिनीज बुक आफ ऑफ रिकॉर्ड्स में दर्ज होने की पात्रता रखता है। यूं तो हमारी भारत भूमि पर ऐसों की कभी कमी नहीं रही, जो ब्रह्मलोक ही क्या, न जाने किन-किन लोकों का विचरण करके पुनः पृथ्वीलोक पर पधार कर पुनः मृत्युलोक से दूर जा चुके हैं, जहां से उनका मन फिर यहां आने का नहीं हुआ! अभी भी हर शहर, हर गांव में ऐसे महामानव सहज उपलब्ध हैं, जो किसी न किसी लोक का भ्रमण करके आ चुके हैं।
रत्नेश्वर जी की तरह उन्हें भी इस यात्रा के लिए किसी यान की जरूरत नहीं पड़ी। बिना किसी खर्च के केवल अध्यात्म की शक्ति के सहारे वे ब्रह्मांड की सैर कर फिर अपने गांव, अपने कस्बे, अपने शहर लौटकर आ चुके हैं। इस यात्रा में उन्हें एक खरोंच तक नहीं लगी। वहां दाल-रोटी, चावल- सब्जी, फल-फ्रूट, मेवे, मछली आदि का इंतजाम रहा होगा। स्वयं रत्नेश्वर जी के बारे में भी बताया गया है कि ब्रह्मलोक में वे 21 दिन तक रहे। वहां वह किसी भी अवस्था में रहे होंगे मगर भूखे तो नहीं रहे होंगे! वहां हमारा रुपया चलता नहीं, इसलिए अगर वहां ले जा सके होंगे तो वह खर्च नहीं हुआ होगा!
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रंग लगा न फिटकरी और रंग चोखा आया मगर हम मृत्युलोक के प्राणियों से इस ज्ञान की कीमत करोड़ों में मांग रहे हैं, यह तो सरासर अन्याय है! एक बार धरती से इतने ऊपर जाकर भी भौतिकता से उनका संबंध छूटा नहीं, जबकि वहां से आने के बाद उनके मन में ईश्वर की ऐसी लौ लग जानी चाहिए थी कि रुपया-पैसा सब उन्हें मिट्टी नज़र आता!
एक ओर रत्नेश्वर जी और उन जैसे महापुरुष हैं और दूसरी तरफ हमारे अंतरिक्ष वैज्ञानिक हैं! इनके लिए ब्रह्मांड अभी भी रहस्य बना हुआ है। उसकी एक परत खोलते हैं तो अरबों परतें अनखुली रह जाती हैं। ये सशरीर ब्रह्मांड यात्रा भी आज तक कर नहीं पाए हैं, जबकि जिस ब्रह्मलोक के बारे में वैज्ञानिकों का ज्ञान शून्य है, वहां रत्नेश्वर जी 19 साल पहले ही हो आए और वहां से आकर उन्होंने ऐसी जबरदस्त किताब भी लिख दी! लोग उसकी कीमत की चर्चा करके ही खुश हैं! हमारे अंतरिक्ष वैज्ञानिकों में इतनी भी विनम्रता नहीं है कि कम से कम एक बार तो अप्वाइंटमेंट लेकर रत्नेश्वर जी के दर्शन करने आ जाते और वह मंत्र लेकर जाते, जिससे बिना यान, बिना खर्च ब्रह्मलोक की सैर की जा सकती है।
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रत्नेश्वर जी निश्चित रूप से राष्ट्रवादी होंगे। वे देशहित में इस बारे में वैज्ञानिकों को ज्ञान देने के लिए एक पाई भी नहीं लेते और हो सकता है उन्हें अपनी इस दैवीय किताब की एक प्रति भी देशहित में मुफ्त दे देते, ताकि भारत को जगद्गुरु बनाने में वे सहयोग दे सकें! इसके बदले वह किसी अंतरिक्ष विज्ञान संस्थान का निदेशक पद नहीं मांगते क्योंकि उनके ज्ञान का असली क्षेत्र विज्ञान से अधिक अध्यात्म है। उनका काम विज्ञान-फिज्ञान से इतर और बड़ा है। उन्होंने ब्रह्मलोक में रह कर ऐसा ज्ञान प्राप्त किया है, जो रामायण, महाभारत, गीता, कुरान, बाइबिल कहीं भी नहीं मिलता!
हिंदी के लेखक, बिहार के लेखक भी इसमें शामिल हैं- गर्व से बताते हैं कि उन्हें फलां उपन्यास को लिखने में इतने वर्ष लगाए। कवि भी बताते हैं कि मेरा यह कविता संग्रह दो या तीन दशक बाद आया है। रत्नेश्वर जी इस तरह के गर्व करने में विश्वास नहीं करते। उन्होंने स्पष्ट रूप से बता दिया है कि करीब 400 पेज की यह पुस्तक उन्होंने ब्रह्म मुहूर्त में मात्र तीन घंटे 24 मिनट में लिखकर रख दी! इतनी तेजी से और एक ही ड्राफ्ट में ऐसी महान पुस्तक लिख देना किसी साधारण लेखक के बूते की बात नहीं। फणीश्वरनाथ रेणु जैसा लेखक अगर ब्रह्म मुहूर्त में भी लिखना आरंभ करता तो चार घंटे में भी दो सौ पेज भी नहीं लिखा पाता, जबकि रत्नेश्वर जी ने तो महाभारत, बाइबिल आदि से आगे की किताब लिख दी है!
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यह चमत्कार निश्चित रूप से मनुष्य नहीं कर सकता, दैवीय शक्तियां ही किसी से करवा सकती हैं। रत्नेश्वर जी ने बताया है कि इस किताब का दाम भी उन्हीं शक्तियों ने तय किया है। भगवान की हम भारतीयों पर इतनी कृपा अवश्य रही है कि इसका मूल्य उन्होंने रुपए में रखने का निर्णय किया। अगर वे इसकी इतनी ही कीमत डॉलर में रख देते तो अभी तो इस पुस्तक का मूल्य सुनकर हमारे होश उड़े हैं, तब प्राणांत हो जाता और इसका पाप निश्चित रूप से ईश्वर पर नहीं लगता!
एक नन्हा सा सवाल और मेरे मन में है कि यह पुस्तक उन्होंने 6 सितंबर, 2006 को लिखी, तो इसका मूल्य भी ईश्वर या उनके गुरु ने तभी तय कर दिया होगा। फिर इसके प्रकाशन में 19 वर्ष का विलंब क्यों हुआ? खैर कुछ प्रश्न अनुत्तरित भी रह जाने चाहिए!
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