विचार

भारत जोड़ो यात्रा ने ढाह दी हैं दुष्प्रचार और भ्रम जैसी कई दीवारें, लेकिन आगे अभी हैं कई चुनौतियां!

आरएसएस और बीजेपी द्वारा खड़ी की गई यह तीसरी विशाल दीवार ही है जिस पर अब भी यात्रा को ध्यान देना होगा। यह लोगों के बीच खड़ी की गई दीवार है जो उनके वैविध्यपूर्ण समुदायों, भाषाओं, संस्कृतियों और इतिहास के बारे में है।

कांग्रेस की भारत जोड़ो यात्रा की तस्वीर
कांग्रेस की भारत जोड़ो यात्रा की तस्वीर 

भारत जोड़ो यात्रा सभी को अभूतपूर्व रूप से सफल लग रही है। इसकी सफलता-असफलता पर चर्चा अब प्राइम टाइम टीवी का पसंदीदा शगल है। ज्यादातर एकतरफा ही हैं, फिर भी सबको एक डंडे से ‘तयशुदा’ कहकर खारिज करना उचित नहीं होगा। कम-से-कम यह समझने का प्रयास तो हो रहा है कि इसने कितना और कैसा असर डाला है। टीवी डिबेट ही नहीं, राजनीतिक हलकों में भी इसे व्याख्यायित किया जा रहा है। आम आदमी भी यह जानना चाहता है कि आखिर वह कौन-सी चीज है जो इसे एक बिलकुल नई शुरुआत के तौर पर पेश करती है। 

अब इतना तो स्पष्ट है कि इसकी योजना चुनावी लाभ के लिए नहीं बनी। हिमाचल के साथ-साथ गुजरात चुनाव से यह साफ हो जाना चाहिए कि इसका प्राथमिक उद्देश्य चुनावी राजनीति नहीं था। विपक्ष को एक करना मकसद था, यह भी नहीं कह सकते। उन हवाई अटकलों पर क्या ही कहा जाए कि यह सब राहुल गांधी की राजनीतिक छवि चमकाने के लिए था। फिर भी सवाल तो है ही कि चुनाव नतीजे प्रभावित करना नहीं, तो मकसद आखिर है क्या? और अगर वाकई कोई और मकसद है तो सामने क्यों नहीं आता? यह सवाल बिना किसी दुर्भावना के जिस तरह लोगों के जहन में पैठा हुआ है, ध्यान देने की जरूरत है।

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उत्तर है कि यात्रा का नाम ‘भारत जोड़ो’ (फिर से जोड़ना) ही अपने आप में मकसद बताने को पर्याप्त है? हालांकि यह साफ करना भी जरूरी है कि आखिर फिर से जोड़ने की जरूरत क्यों पड़ रही है? और अगर वाकई इसकी बहुत जरूरत है तो उस भयावहता को समझने के लिए आरएसएस और बीजेपी निर्मित विखंडन की उस प्रकृति को देखना-समझना बहुत जरूरी है। हिन्दुओं और मुसलमानों (ईसाई भी) के बीच भरोसे का भारी संकट, अत्यंत अमीर और गरीब के बीच की बढ़ती खाई तो आसानी से दिखाई दे रही है। यात्रा के दौरान राहुल गांधी इसे बार-बार अपने भाषणों में रेखांकित भी करते हैं।

आरएसएस ने अलगाव पैदा करने वाले तीन और काम करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। यह खासतौर से डिजाइन की गई ‘मानसिक दीवार’ खड़े करने जैसा है। तीन दीवारें हैं: एक, चीजों की असलियत और उनके बारे में प्रसारित जानकारी के बीच। इस विभाजन के लिए मीडिया को साधन बनाया गया है। दूसरा, कांग्रेस के जीवित और मृत नेताओं के बारे में बड़े पैमाने पर नकारात्मक प्रचार। इतिहास गवाह है कि अतीत में कभी किसी राजनीतिक दल ने अपने प्रतिद्वंद्वी दल के नेताओं को बदनाम करने के लिए न कभी इतनी ऊर्जा लगाई और न ऐसा जहर उगला। तीसरी, दीवार जो आरएसएस ने खड़ी की, वह है भारत के लोगों और उसके अतीत के बारे में। यात्रा ने पहली दो दीवारें तो सफलतापूर्वक ढाह दी हैं। गांधी परिवार के प्रति बीजेपी द्वारा फैलाए गए भ्रम अब बीते दिनों की बकवास साबित हो चुके हैं। राहुल गांधी पर न सिर्फ पार्टी कार्यकर्ताओं, बल्कि कांग्रेस के बाहर से भी जैसा भरोसा और स्नेह बरसा है, उसने उनके बारे में गढ़े गए पप्पू जैसे घटिया मिथकों को तो ध्वस्त किया ही, बीजेपी जनित ऐसे दुष्प्रचारों ने उन्हें अब पहले से भी कहीं बड़ा बना दिया है। झूठ की वह दीवार जिस तरह ध्वस्त हुई, दोबारा खड़ा करना अब संभव नहीं है। 

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यह तीसरी विशाल दीवार ही है जिस पर अब भी यात्रा को ध्यान देना होगा। यह लोगों के बीच खड़ी की गई दीवार है: उनके वैविध्यपूर्ण समुदायों, भाषाओं, संस्कृतियों और इतिहास- और कहना न होगा कि इतिहास की मनगढ़ंत व्याख्या के रूप में। आरएसएस के ‘राष्ट्रवाद’ की पूरी इमारत ‘कभी के गौरवशाली’ हिन्दू भारत के विचार पर आधारित है। सरकार इस विचार को पनपने के लिए हर संभव खाद-पानी दे रही है। नतीजतन, भारत अपने अतीत के बारे में जो कुछ भी जानता था, उसे यूरोपीय विद्वानों और इतिहासकारों की शैतानी साजिश के तौर पर प्रस्तुत किया जा रहा है। यहां यह जानना दिलचस्प होगा कि हाल ही में चेन्नई में आयोजित भारतीय इतिहास कांग्रेस में इसके अध्यक्ष प्रोफेसर केसवन वेलाथुट को यह कहना पड़ा कि वाजपेयी सरकार ने भारतीय ऐतिहासिक अनुसंधान परिषद द्वारा प्रकाशित उन दस्तावेजों को छुपाना शुरू कर दिया था जिनमें आरएसएस की औपनिवेशिक सत्ता के साथ मिलीभगत दिखती थी। उन्होंने कहा कि मौजूदा सरकार भारत को लोकतंत्र की जननी होने का निराधार दावा कर रही है, जबकि जिस श्रोत पुस्तक का दावा इसके लिए किया जा रहा है वह साफ तौर पर कुलीनतंत्र की बात करती है, लोकतंत्र की नहीं (द हिन्दू में साक्षात्कार, 30 दिसंबर, 2022 )।   

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इस संबंध में नरेन्द्र मोदी और एमके स्टालिन की हालिया तकरार दिलचस्प है। दुर्लभ ही है जब इतिहास राष्ट्रीय दैनिकों में पहले पृष्ठ की सुर्खियों में दिखे। यह सब 2022 के अंतिम सप्ताह में हुआ। हाल ही में अस्तित्व में आए ‘वीर बाल दिवस’ पर बोलते हुए नरेन्द्र मोदी ने कथित तौर पर कहा था कि मनगढ़ंत इतिहास हीनभावना जगाता है। उनका संबोधन इस बारे में था कि किस तरह भारत को आत्मविश्वास और आत्म-सम्मान से लबरेज होना चाहिए और यह भी कि उनके शासनकाल में आकार लेने वाला ‘नया भारत’ किस तरह ‘अपनी असली विरासत को बहाल करने के लिए बीते दशकों की गलतियां सुधार रहा है’। गौरतलब है कि अगले ही दिन चेन्नई में भारतीय इतिहास कांग्रेस की बैठक होनी थी। इसके 81वें सत्र का उद्घाटन करते हुए एमके स्टालिन गुस्से में आ गए । उन्होंने कहा: ‘इतिहास का विद्रूप आज देश के सामने बड़ा खतरा है।’ उन्होंने कहा, ‘इतिहास का अध्ययन वैज्ञानिक तरीकों पर आधारित होना चाहिए। ‘कुछ लोग’ भ्रम को ही इतिहास समझने की कोशिश में हैं जिस पर किसी को भरोसा नहीं करना चाहिए।’ अब ‘कुछ लोग’ का आशय क्या था इस पर स्पष्टीकरण की शायद जरूरत नहीं। उन्होंने 1994 के नौ न्यायाधीशों के सर्वोच्च न्ययालय के उस फैसले का भी हवाला दिया जिसमें धर्मनिरपेक्षता को भारतीय संविधान के मूल ताने-बाने के रूप में निर्धारित किया गया था और कहा: “हम सभी को एक धर्मनिरपेक्ष समाज बनाने का प्रयास करना चाहिए।” 

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आखिरकार, धर्मनिरपेक्षता को दफनाना ही तो हिन्दुत्ववादी राजनीति की दिली मंशा है। यह धर्मनिरपेक्षता को आधुनिक समाज की नींव नहीं मानता। हिन्दुत्व के गुणों पर जोर देने के लिए यह इतिहास की दृष्टि की ओर मुड़ता है, जो पूरी तरह इसकी गढ़ी हुई है। उस नजरिये से तो सिर्फ हिन्दू, जैन और बौद्ध ही ‘वास्तव में’ भारत के हैं और ‘अन्य सभी’ को ‘बाकी सभी’ लोगों की तरह रहना सीख और स्वीकार कर लेना चाहिए। बीजेपी को यह बात परेशान नहीं करती कि भारत का एक संविधान भी है जो सभी नागरिकों को ‘समान नागरिक’ मानने की बात करता है। बीजेपी सरकार ने संविधान के इस मूल सिद्धांत को मटियामेट करने का हर हथकंडा अपनाया है; और झूठ की जमीन पर रचे खयाली इतिहास की वह दीवार ही है जिसे वह अपने राजनीतिक स्थान को सीमांकित करने के लिए खड़ा करना चाहती है। यात्रा को यह दीवार भी ढाहनी है। यानी एक मिशन के रूप में यात्रा को ‘तीर्थ यात्रा’ के तौर पर यात्रा समाप्त होने के लंबे समय बाद भी पूरी शिद्दत से जारी रखना चाहिए। 

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अलगाव के उपर्युक्त पांच सूत्र यात्रा का पूरा संदर्भ बयान कर देते हैं: 1- अमीर-गरीब के बीच की गहरी होती खाई, 2- समुदायों के बीच अलगाव, 3- सच और मीडिया के बीच तलाक, 4- नेताओं और राजनीतिक कार्यकर्ताओं के बीच की खाई, 5- अवाम और अतीत के प्रति गढ़ी गई धारणाओं की खाई। यात्रा की सफलता का मूल्यांकन इन सभी मोर्चों पर लोगों को फिर से जोड़ने की क्षमता, ‘जोड़ो’ के संदर्भ में किया जाना चाहिए ताकि ‘भारत’ को फिर से खोजा जा सके या कि जैसा अक्सर कहा जाता है ‘आइडिया ऑफ इंडिया’ को। जैसा कि गुणीजन कह गए हैं: “अंधेरे की परछाइयां तभी छोटी होती हैं जब क्षितिज को थोड़ा और ऊपर उठा दिया जाता है।”

गणेश देवी भाषाविद और कल्चरल एक्टिविस्ट हैं।  

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