विचार

जो बिडेन की चीन और सऊदी अरब पर नीति तय करेगी भारत-अमेरिका के रिश्ते

लाख टके का सवाल अमेरिका-चीन संबंधों के भविष्य के बारे में है। क्या राष्ट्रपति बिडेन इसका नया तरीका अपनाएंगे या फिर चीन को नियंत्रित करने की पहले से तय नीति पर ही आगे बढ़ेंगे? बहुत कुछ भारत और एलएसी पर तनाव खत्म करने में हमारी अक्षमता पर निर्भर करेगा।

फोटो : Getty Images
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काफी समय से इस बात के कयास थे और हो सकता है कि इसकी घोषणा होने में कुछ रुकावटें आएं, लेकिन पूरे भरोसे के साथ कहा जा सकता है कि डोनल्ड ट्रंप के राष्ट्रपति बने रहने के दिन लद चुके हैं। लेकिन विद्धतजन इस बात पर अपनी राय देने में हिचकिचा रहे हैं कि राष्ट्रपति पद खत्म होने के साथ ही क्या उनकी राजनीति का दौर भी खत्म हो जाएगा। सारे ओपीनियन पोल चुनाव का दिन आने से पहले भले ही जो बिडेन-कमला हैरिस की जीत की साफ संभावना जता रहे थे, लेकिन फिर भी यह कहा जा रहा था कि ट्रंप किसी न किसी तरह बाजी पलट देंगे। बीते 48 घंटों के दौरान काफी कुछ ऐसा ही हुआ है। पॉपुलर वोट भले ही पूरी तरह जो बिडेन के पक्ष में जा चुके हैं, लेकिन इलेक्टोरल वोट में अंतिम नतीजा फंसा हुआ था, जो 2016 के ट्रंप-हिलेरी मुकाबले की याद दिला रहा है। इस सबके बीच ट्रंप जीत का दावा कर रहे हैं, वहीं बिडेन ने लोगों से भरोसा और विश्वास कायम रखने की अपील की है। और अंत में भरोसे और विश्वास की ही जीत होती है।

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अमेरिकी चुनावों के बारे में बहुत कुछ ऐसा है जो लोकतंत्र के अनुयायियों के लिए चिंताजनक और परेशान करने वाला है। खुद को लोकतांत्रिक देशों का नेता कहने वाले और सबसे पुराने लोकतंत्र वाले देश को उसके अपने ही नागरिकों ने बुरी तरह झकझोरा है और इनकी संख्या कुल आबादी के आधे से कुछ ही कम है। लेकन आधे से अधिक लोगों ने बिडेन-हैरिस का समर्थन कर राहत का संदेश दिया है कि अमेरिका उदारवादी शासन के रास्ते पर वापस आ रहा है। इसमें संदेह नहीं कि नएशासन को विरोध या प्रतिरोध का सामना नहीं करना पड़ेगा, इसकी बानगी तो वोटों की गिनती के दौरान ट्रंप समर्थकों के आक्रामक रूप से मिल ही गई है।

इस चुनाव में भारतीयों की एक बड़ी संख्या उस नतीजे का इंतजार कर रही थी जिसकी हम सबको उम्मीद है क्योंकि इस बार प्रचार में भारतीय-अमेरिकियों ने भी अपनी छाप छोड़ी है और बिडेन-हैरिस के साथ अच्छे रिश्ते स्थापित किए हैं, लेकिन भारत और अमेरिका के रिश्ते आने वाले वक्त में कैसे होंगे यह देखना अभी बाकी है। कुछ याद करें तो उप राष्ट्रपति पद की उम्मीदवार अमेरिकि सांसद कमला हैरिस के जम्मू-कश्मीर पर विचार और राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार जो बिडेन की इस्लाम को लेकर राय ध्यान में रखनी पड़ेगी। इन मुद्दों पर भारत सरकार को कुछ दिक्कत हो सकती है क्योंकि वह इन पर तथ्यों को नया रूप देती रही है, लेकिन यह भी तथ्य है कि इन्हें भारत पूरी तरह अनिश्चितकाल के लिए खारिज नहीं कर सकता।

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स्पष्ट रूप से हम (और इसमें सभी राजनीतिक दलों के साथ-साथ भारत में भारतीय मुस्लिम समेत सभी समुदाय शामिल हैं) उग्रवादी समूहों के उन जिहादी कार्यक्रमों को अनदेखा नहीं कर सकते, जो पूरी दुनिया में जगह-जगह कहर बरपा रहे हैं, लेकिन निश्चित रूप से हम इस नजरिए को उस रुख के लिए भी नहीं इस्तेमाल कर सकते जिसमें सभ्यता की शर्तों पर इस्लाम पर सवाल उठाए जाते हैं। भारत की बहुलतावादी पहचान अन्य देशों और समाजों की विभाजनकारी प्रवृत्तियों के अधीन नहीं हो सकती है। भारत को एक खास आयाम में पेश करने के लिए ट्रम्प प्रशासन द्वारा प्रोत्साहन दिया गया हो सकता है और इसलिए हमें अपने बहुआयामी राष्ट्रीय चरित्र को ईमानदारी से दिखाने के लिए खुद को तैयार करना चाहिए।

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भारत के संदर्भ में अमेरिका के नए प्रशासन के सामने अन्य मुद्दे भी हो सकते हैं। ऐसा कोई कारण नहीं है कि अमेरिका रणनीतिक साझेदारी और सैन्य सहयोग के व्यावहारिक क्रियान्वयन के मामले में भारत के साथ आगे न बढ़े। लेकिन यह देखना होगा कि चीन को नियंत्रित करने का जो स्वाद ट्रंप ने लगाया था वह बदलेगा या नहीं। अमेरिका के साथ रणनीतिक सहयोग और विशेष मित्र का दर्जा होने के बावजूद भारतीय पेशेवरों के लिए एच 1 बी वीजा और कारोबार के मामले में हमारे पास दिखाने को बहुत ज्यादा कुछ नहीं है। नए प्रशासन के लिए राष्ट्रपति ट्रम्प के अमेरिका फर्स्ट के नारे से पीछे हटना थोड़ा मुश्किल होगा क्योंकि बिडेन भी तो मेक अमेरिका ग्रेट अगेन का नारा दे रहे हैं। नए राष्ट्रपति भी अमेरिका को महान बनाने की उसी आकांक्षा को आगे बढ़ाएंगे, हां उनका तरीका शायद अलग होगा।

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ब्लू और रेड के बीच फूट को खत्म करने का इरादा, नफरत के दाग को मिटाना, भय को खत्म करने की अपील के साथ बिडेन ने एक आदर्श तो पेश किया है लेकिन यह एक चुनौतीपूर्ण काम है। सीनेट की जटिलता और कुछ लोगों का मानना है कि 6-3 रूढ़िवादी सुप्रीम कोर्ट इस काम में शायद ही राष्ट्रपति की कोई मदद करें। आखिर बुरी तरह विभाजित देश को नया राष्ट्रपति कैसे एकजुट करने में सक्षम होगा? और इस प्रक्रिया में अन्य मित्र देशों को भी ऐसा करने के लिए प्रेरित कर पाएगा, यह लाख टके का सवाल है। बिना कहे यह समझा जाता है कि भारत सरकार ने अमेरिका से बहुत कुछ ले लिया हो और अमेरिका की तरह दूसरे देश भी भारत को एक सहयोगी बनाना चाहते हों, लेकिन जनता इसका विरोध करेगी। भारत की संप्रभुता और स्वायत्तता की सराहना के साथ हो सकता है इसमें बदलाव आए। लेकिन निश्चित रूप से इसमें नए प्रशासन के साथ-साथ हमारे नेतृत्व की ओर से स्पष्ट सोच भी होनी चाहिए।

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अमेरिका के एक लोकतांत्रिक प्रशासन की तरफ लौटने पर अन्य मुद्दों के बीच जलवायु परिवर्तन और ओबामा केयर पर अमेरिकी स्थिति भी प्रभावित होगी। अमेरिका-सऊदी अरब के रिश्ते अब कैसे होंगे, क्योंकि ट्रंप के दामाद और सऊदी अरब के क्राउन प्रिंस के एक-दूसरे से नजदीकी रिश्ते हैं। अफगानिस्तान से सैनिकों की लगातार वापसी का फैसला बदलेगा, इसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती। हालांकि यह देखना दिलचस्प होगा कि क्या अमेरिका एक बार बिना पुलिसवाला बने एक बार फिर विश्व नेतृत्व की भूमिका निभाने को तैयार होगा। लेकिन लाख टके का सवाल एक बार फिर अमेरिका-चीन संबंधों के भविष्य के बारे में है। क्या राष्ट्रपति बिडेन इसका नया तरीका अपनाएंगे या फिर चीन को नियंत्रित करने की पहले से तय नीति पर ही आगे बढ़ेंगे? बहुत कुछ भारत और एलएसी पर तनाव खत्म करने में हमारी अक्षमता पर निर्भर करेगा। अभी दो सप्ताह पहले तक भारत-अमेरिका के बीच 2 + 2 का आदान-प्रदान हुआ था और अमेरिकी विदेश मंत्री ने सार्वजनिक रूप से इस मामले में भूमिका की बात की थी। इससे भाव यह आता है कि हम शायद कुछ गड़बड़ा गए हैं।

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लब्बोलुआब यह लगता है कि दोनों पक्षों को हाल के वर्षों के कुछ गिले-शिकवे मिटाने होंगे, हाथ से निकल गए मौकों पर पछताने का सिलसिला बंद करना होगा और एक बेचैन और तनावपूर्ण दुनिया को नए सिरे से नेतृत्व प्रदान करने के लिए एक साथ काम करने के लिए अपने रिश्तों की प्रतिबद्धता को नए सिरे से स्थापित करना होगा।

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