सूप तो सूप, छलनी भी बोले जिसमें छेद बहत्तर!’ जी हां, और तो और, भारतीय जनता पार्टी को ‘रिपब्लिक टीवी’ के मुख्य संपादक अर्नब गोस्वामी की गिरफ्तारी पर लोकतंत्र खतरे में दिखाई पड़ रहा है। सब को तो जाने दीजिए, स्वयं माननीय केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह को भी अब पत्रकारिता खतरे में दिख रही है। मोदी सरकार के हर मंत्री को अब इंदिरा गांधी का आपातकाल याद आ रहा है। मोदी जी और बेचारी उनकी सरकार। इस सरकार को निष्पक्ष पत्रकारिता और लोकतांत्रिक संस्थाओं की मान्यताओं से जितना प्रेम है, वह जगजाहिर है।
अभी चार रोज पहले की बात है कि जब सुप्रीम कोर्ट ने चुनाव आयोग को फटकार लगाई और पूछा कि आपको यह अधिकार किसने दिया कि आप कमलनाथ पर मध्यप्रदेश उपचुनाव को लेकर उंगली उठाएं। निःसंदेह चुनाव आयोग ऐसा मोदी सरकार के इशारे पर कर रहा था। स्वयं सुप्रीम कोर्ट पर भी आए दिन उंगलियां उठती रहती हैं। संसद का स्वयं जो हाल है, वह सब जानते हैं। पिछले सत्र में राज्यसभा में कृषि संबंधी विधेयकों को जिस धांधली से पारित कराया गया, उससे बड़ा मजाक तो शायद लोकतंत्र का हो ही नहीं सकता है। मोदी सरकार ने देश की लोकतांत्रिक प्रणाली को जिस तरह से खोखला कर दिया है, ऐसा तो इस देश के इतिहास में कभी हुआ ही नहीं।
Published: undefined
जी हां, अब उसी मोदी सरकार को पत्रकारिता पर प्रहार दिखाई पड़ रहा है। अरे, ये घड़ियाली आंसू अब किसको बहला सकते हैं। स्वयं पत्रकारिता के क्षेत्र में इस सरकार के इशारे पर क्या कुछ नहीं हुआ। याद है एनडीटीवी के ऑफिस पर ईडी का छापा। कौन नहीं जानता कि वह छापा इसलिए पड़ा था क्योंकि एनडीटीवी के स्वर मोदी सरकार के पक्ष में नहीं थे। गौरी लंकेश-जैसी निडर पत्रकार की हत्या को भला कौन भूल सकता है। उन्हें घर में घुसकर एक हिंदूवादी संगठन के लोगों ने इसलिए मारा था क्योंकि वह मोदी सरकार के खिलाफ पूरी निर्भीकता से लिखती थीं। मोदी सरकार की आलोचना करने वाले किस-किस पत्रकार को बीजेपी ने डरा-धमका कर चुप करवाने की कोशिश नहीं की।
उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्रीके खिलाफ एक मामूली से ट्वीट पर ‘द वायर’ के प्रधान संपादक सिद्धार्थ वरदराजन के खिलाफ एफआईआर दर्ज हो गई। हिंदी टीवी पत्रकारिता के स्तंभ विनोद दुआ पर सरकार की आलोचना करने की वजह से हिमाचल पुलिस ने मामला दर्ज कर दिया। ऐसे ही एक दर्जन छोटे-बड़े पत्रकारों का नाम गिनाया जा सकता है जिन्हें किसी-न-किसी तरह से प्रताड़ित किया गया। उत्तर प्रदेश में प्रशांत कनौजिया को अभी हाईकोर्ट ने जमानत पर रिहा किया है।
Published: undefined
सच तो यह है कि बीजेपी ने पिछले छह वर्षों में निष्पक्ष पत्रकारिता की हत्या कर दी। आज स्थिति यह है कि देश का कोई बड़ा मीडिया संस्थान स्वतंत्र नहीं है। वे चाहे बड़े टीवी चैनल हों अथवा बड़े अखबार, यदि सरकार की हां में हां नहीं मिलाया तो बस विज्ञापन बंद। और विज्ञापन बंद तो समझिए टीवी चैनल और अखबार बंद। तब ही तो अब पत्रकार जगत में इस बात की होड़ है कि कौन कितना बढ़-चढ़ कर मोदी सरकार के ‘कसीदे’ पढ़ता है। कसीदा जानते हैं! उर्दू शायरी में राजाओं और बादशाहों की शान में जो कविता लिखी जाती थी, उसको कसीदा कहते हैं। आप रात नौ बजे कोई भी बड़ा चैनल खोल लीजिए, बड़े से बड़ा एंकर आपको सरकार की शान में कसीदा पढ़ता दिखाई पड़ जाएगा। यदि आप रवीश कुमार की तरह भूले से सरकार के आलोचक हुए तो ट्रोल आपका जीवन नरक कर देंगे। यह है बीजेपी का पत्रकारिता प्रेम।
आखिर, अर्नब गोस्वामी की गिरफ्तारी पर आपातकाल की दुहाई देने वाली बीजेपी को पहले अपनी गिरेबां में झांक कर देख लेना चाहिए। और अब कोई ऐसा भी बुद्धू नहीं है कि उसकी समझ में यह नहीं आ रहा है कि बीजेपी को अर्नब गोस्वामी की गिरफ्तारी पर क्यों पीड़ा हो रही है। अर्नब गोस्वामी और बीजेपी के आपसी रिश्ते सबको पता हैं। ‘रिपब्लिक टीवी’ को शुरू करने वाले राजीव चंद्रशेखर स्वयं बीजेपी के राज्यसभा सदस्य हैं। फिर, अर्नब का परिवार, सुनते हैं कि, असम में बीजेपी का नजदीकी रहा है। फिर ‘रिपब्लिक टीवी’ पर क्या कभी अर्नब ने मोदी जी पर उंगली उठाई। अपनी निष्पक्षता दिखाने के लिए कभी- कभार भले ही बीजेपी पर हल्की-फुल्की टिप्पणी कर दी हो। लेकिन अर्नब गोस्वामी के सामने मोदी जी के विरुद्ध कोई मुंह नहीं खोल सकता है। ‘रिपब्लिक टीवी’ एक प्रकार से सरकारी पक्ष में काम करने वाला चैनल है जो संघ और बीजेपी के राष्ट्रवाद का खुला प्रोपेगेंडा करता है।
Published: undefined
सत्य तो यह है कि अर्नब गोस्वामी ने भारत के टीवी जगत में एक नई और अनोखी पत्रकारिता की विष बेल डाली। उनके चैनल पर विशेषकर खुद उनके एक घंटे के शो में आपको समाचार नहीं मिलेगा। हां, समाचार के नाम पर उनका भाषण सुनने को मिलेगा। वह भाषण मुख्यतः सच-झूठ कुछ भी हो सकता है। वह फेक न्यूज हो सकती है। अभी कुछ समय पहले सुशांत सिंह राजपूत के मामले में अर्नब गोस्वामी ने रिया चक्रवर्ती का जिस प्रकार से चरित्र हनन किया, क्या उसको पत्रकारिता कहा जा सकता है!
पत्रकार जगत में सबको यह समझ में आ रहा था कि सुशांत और रिया का मामला उछालने के पीछे दो कारण थेः पहला यह कि बॉलीवुड की चटपटी झूठी- सच्ची खबरें चलाकर खुद के चैनल की टीआरपी बढ़ाकर अधिक-से-अधिक पैसा कमाया जाए; दूसरा कारण यह था कि लॉकडाउन से उत्पन्न होने वाले आर्थिक संकट की ओर से जनता का ध्यान बंटा रहे ताकि मोदी सरकार के खिलाफ जनता में आक्रोश उत्पन्न न हो सके, अर्थात पूरी सुशांत-रिया पत्रकारिता का मकसद पैसा कमाना और मोदी सरकार की सेवा करना था। अंततः सारा मामला झूठा साबित हुआ। जिस रिया चक्रवर्ती के सिर पर सुशांत की हत्या का आरोप मढ़ा जा रहा था, उसका इस मामले में हाथ नहीं निकला। स्वयं सरकारी सूत्रों ने यह मान लिया कि सुशांत की हत्या नहीं हुई थी बल्कि उन्होंने आत्महत्या की थी।
Published: undefined
यह है अर्नब गोस्वामी और ‘रिपब्लिक टीवी’ की निष्पक्ष पत्रकारिता की एक झलक। इस नई पत्रकारिता में पत्रकार अर्थात चैनल के एंकर को देश का संरक्षक तक बनने का अधिकार प्राप्त है। वह चाहे जैसी भी तीखी या अभद्र-अटपटी भाषा का प्रयोग करे। वह किसी को भी चिल्ला-चिल्लाकर ‘शट अप’ कह सकता है। क्योंकि उसने स्वयं को देश की संपूर्ण जनता का प्रवक्ता घोषित कर दिया है और अब वह किसी से भी चिल्ला-चिल्लाकर ‘रिपब्लिक वांटस टु नो’ की आड़ में कोई भी सवाल कर सकता है। और फिर जिस व्यक्ति से सवाल पूछा जाता है, उसको जवाब देने का भी अधिकार नहीं है। और तो और, बहुत सारे अवसर ऐसे होते हैं जब विपक्ष का कोई नेता टीवी पर होता ही नहीं है और अर्नब चिल्ला-चिल्लाकर गला फाड़ते हैं और कहते हैं, ‘शरद पवार, उद्धव ठाकरे, आओ मुझे पकड़ो।’ कभी एक भांड के समान वह अपने चैनल पर चिल्ला-चिल्लाकर कहते हैं, ‘मुझे ड्रग दो, मुझे ड्रग दो!’
Published: undefined
आखिर, यह कौन-सी पत्रकारिता है जिसमें पत्रकार भांड का रूप धारण कर ले। भला कौन निष्पक्ष पत्रकार रिया चक्रवर्ती के विरुद्ध वह सवाल खड़े कर सकता था जो अर्नब ने खड़े किए। उनको केवल विपक्ष के नेताओं के खिलाफ कीचड़ उछालने का अधिकार किसने दिया! क्या कभी नरेंद्र मोदी अथवा अमित शाह के विरूद्ध उन्होंने उस भाषा प्रयोग किया जिस भाषा का प्रयोग वह सोनिया गांधी, शरद पवार, उद्धव ठाकरे और अन्य विपक्षी नेताओं के खिलाफ करते हैं। इससे स्पष्ट है कि वह अब तक खुद ही निष्पक्ष पत्रकारिता की हत्या करते आ रहे हैं। उनकी पत्रकारिता से देश में जिस प्रकार नफरत और बंटवारे का माहौल उत्पन्न हो रहा है, इस संबंध में बहुत पहले उनके खिलाफ मामला दर्ज होना चाहिए था। जहां तक खुदकुशी के एक मामले में उनकी गिरफ्तारी का सवाल है तो इसका पत्रकारिता से कुछ लेना-देना नहीं है। जिन्होंने आत्महत्या की, उन्होंने अपने सुसाइड नोट में अर्नब गोस्वामी को अपनी आत्महत्या के लिए जिम्मेदार ठहराया। इस मामले की छानबीन तो पहले ही होनी चाहिए थी। लेकिन तब महाराष्ट्र में बीजेपी की सरकार थी और वह इस मामले को ठंडे बस्ते में डाले हुए थी। अब दूसरी सरकार है और वह कानूनी कार्रवाई कर रही है। अर्नब गोस्वामी ने जो फसल बोई थी, वह अब वही काट रहे हैं। और बीजेपी उनकी आड़ में ‘पत्रकारिता पर प्रहार’ का ढोंग कर रही है। यह सब एक ड्रामा है जो अब जनता की भी समझ में आ रहा है।
Published: undefined
Google न्यूज़, नवजीवन फेसबुक पेज और नवजीवन ट्विटर हैंडल पर जुड़ें
प्रिय पाठकों हमारे टेलीग्राम (Telegram) चैनल से जुड़िए और पल-पल की ताज़ा खबरें पाइए, यहां क्लिक करें @navjivanindia
Published: undefined